नाटक की प्रयोगशाला में एक नूतन प्रयोग है पुंज प्रकाश का ‘पलायन’

सच्चाई है कि लुटियन के टीले पर जारी नाटक के समक्ष भारत के तमाम नाटक अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। बावजूद इसके जनता का नाटक और सत्ता के नाटक का फर्क करते हुए हमने बरसों बाद पटना में नाटक के भीतर हो रहे एक नव-प्रयोग को देखने की कोशिश की। हमने इस नाटक को देखने के लिए “ नाट्य आख्यायिक दर्शन“ की सहायता ली। भारतीय वांग्मय में जिन 64 कलाओं की चर्चा है, उनमें “नाट्य आख्यायिक दर्शन “ भी एक कला है। कला सिद्धांत की इस व्याख्या के अनुसार नाटक देखना महत्वपूर्ण कला है।

यह जानते हुए भी कि “नाटक“ शब्द को भारत के सर्वोच्च सदन ने असंसदीय घोषित कर दिया है। हमने लगभग 2 सौ से ज्यादा दर्शकों के साथ पटना के कालीदास रंगालय में बीते सोमवार असंसदीय “नाटक” देखने की कोशिश की। रात में सोने के लिए मच्छरदानियां तनी हुई हैं। मोटर साइकिल, फटे-पुराने कपड़े मजदूरों की बेतरतीब ज़िंदगी जैसे कि हम वीरचंद पटेल पथ के फुटपाथ या मंदिरी के उजड़ गए रैन बसेरे के सामने बैठे हैं। दिन भर की हड्डी-तोड़ मेहनत के बाद सोने से पहले मजदूर अपनी-अपनी परेशानी, अपने इर्द-गिर्द की घटित घटनाओं पर सामूहिक संवाद करते हैं।

असंगठित श्रमिकों के जीवन का दर्द क्या है? वे अपने गांवों से क्यों नगर -महानगर की तरफ भाग रहे हैं? महानगर में उनकी जिंदगी में त्राहिमाम क्यों है ?मेहनतकश श्रमिक अपनी रोज-रोज की तंग जिंदगी से नित्य पल-पल युद्ध रचते हैं ।नाट्य लेखक, निर्देशक पुंज प्रकाश ने “पलायन“ में श्रमिकों के दर्द को श्रमिकों के द्वारा ही विमर्श का विषय बनाने की कोशिश की है।नाट्य परिकल्पना में निर्देशक ने श्रमिकों के मुद्दे पर किसी महाकवि ,किसी महान प्रगतिशील ,किसी खास  बुद्धिजीवी ,किसी नामचीन पत्रकार को इस विमर्श के मध्य में पात्र नहीं बनाया । 

टीना ,बाल्टी ,पुराने प्लास्टिक के डब्बे ,लोटा ,थाली ,डब्बू ,बेलन वाद्य-यंत्र बने हैं । फुटपाथ हो या महानगर में किराए का संकरा कमरा –बुनियादी सुविधाओं के लिए श्रमिक दर-दर भटकते रहते हैं ।कम पढ़े –लिखे युवा गाँव में खेती –बाड़ी में लगातार घाटा सहते हुए ,किसी तरह के स्व-रोजगार की गारंटी नहीं होने की वजह से महानगर की ओर निकलते हैं ।महानगर में आने से मजदूरों की जिंदगी में क्या जन्नत नसीब होता है। एक श्रमिक की खैनी की चुनौटी गुम हो गई है ।

खैनी की चुनौटी एक श्रमिक के लिए सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है ।चुनौटी पीतल की है इसलिए प्लास्टिक की चुनौटी से ज्यादा मंहगी है। खैनी की चुनौटी, खैनी की चुनौटी, खैनी की चुनौटी का शोर मचा हुआ है ।किसी सा… ने मेरे खैनी की चुनौटी देखा है? श्रमिकों में बुजुर्ग श्रमिक जिन्हें सब बाबा कहते हैं ,वे चुनौटी के मसले पर शोर –शराबे पर कहते हैं। “चुनौटी कोई ताजमहल है ,जो कोई देखा है “।”है किसी में औकात कि देश के नव -जवानों को एक चुटकी खैनी खिला दे “। 

 एक श्रमिक को पेट में दर्द हुआ तो वह मूर्छित हो गया । दूसरे श्रमिक ने आवाज दी । “मर गया तो सुंघाओ जूता “। जूता सुंघाने से श्रमिक दुरुस्त हो गया। कई श्रमिकों के मध्य चप्पल एक ही है ,एक ही चप्पल को फेराफेरी कर सब पहनते रहते हैं। पीने का पानी ,नहाने का पानी सार्वजनिक नलके पर लंबी कतार में घंटों इंतजार के बाद प्राप्त होता है । एक साबुन किसके बदन से घिसते हुए किधर चला जाता है । छोटी –छोटी चीजों के लिए सब त्राहिमाम किए रहते हैं । 

गाँव से पलायन कर आया शिक्षित बेरोजगार श्रमिकों का आश्रय प्राप्त कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा है । दूसरे श्रमिक “पढ़ाकू “ को पढ़ाई में यथासंभव सहायता करते हैं । गाँव से आया हुआ एक युवक “कलाकार “ बनने का प्रशिक्षण ले रहा है।कलाकार नित्य कसरत करता है । पाँव में घुंघरू बांधकर नृत्य सीखता है ।अंगुली पर डंडा नचाने का करतब करता है ।साथ निवास कर रहे श्रमिकों के लिए कलाकारी कोई अजीब सी चीज है ।एक श्रमिक व्यंग्य करता है – “मूस मोटहिएं तो लोढ़ा कहलैएं”।उस्ताद बाबा कलाकार को नसीहत देते हैं । “कलाकारी करना है तो कला विरोधी दुनियाँ में विष पीने का माद्दा रखो।“

कलाकार ,पढ़ाकू ,नर्स और बाबा श्रमिकों की दैनिक आपद ज़िंदगी को अपने विवेक से थोड़ा सहज ,थोड़ा सरल और बोधगम्य बना देते हैं । अचानक कोरोना के नाम पर लॉक-डाउन घोषित हुआ और इन श्रमिकों की जिंदगी पर पहाड़ टूट गया । प्रधानमंत्री ने थाली बजा कर  ,दीया जलाकर कोरोना से लड़ने का आह्वान किया तो इन श्रमिकों की ज़िंदगी का दीया बुझ गया। बाबा कहते हैं कि हमने तो बुजुर्गों से सुना है कि खाली बर्तन बजाने से गृह –क्लेश होता है और दरिद्रता आती है।पुलिस फुटपाथ से मजदूरों को खदेड़ रही है । मकान मालिक किराए के बिना मजदूरों को घर से निकाल रहे हैं । काम बंद होने की वजह से मजदूरों के सामने भूख ,रोटी सबसे बड़ा प्रश्न है । महानगर में श्रमिकों को  चारों तरफ अंधेरा दिखने लगा। हर तरफ असहायता, श्रमिक विरोधी घृणास्पद वातावरण में हजारों ,लाखों श्रमिक कहाँ जाएँ। सब इकट्ठे रुदाली गा रहे हैं । कोरोनवा के माई मुर्दाबाद ।कोरोनवा के मौसी मुर्दाबाद । कोरोनवा के साली मुर्दाबाद।कोरोनवा के दादा मुर्दाबाद। कोरोनवा के दादी मुर्दाबाद । गो कोरोना गो ,गो कोरोना गो । 

भोजन की तलाश में भटकते मजदूरों की टाँग पर जब पुलिस डंडे मारती है तो मजदूर चीखते हैं ,चिल्लाते हैं । पुलिस लाउडस्पीकर से एलान कर रही है कि जो घर में हैं ,वे घर से बाहर नहीं निकलेंगे। “जो करोड़ों बेघर हैं ,वे कहाँ जाएँगे”। “जो करोड़ों बेघर हैं ,वे कहाँ जाएँगे”। मजदूरों के मध्य से एक बुलंद  आवाज निकलती है । “तय करो कि तुम आदम हो या आदमखोर हो “,“तय करो कि तुम आदम हो या आदमखोर हो “।

  बड़े –बड़े बंगले ,ऊंचे –ऊंचे अपार्टमेंट ,फैक्ट्री ,चौड़ी सड़कें सब हमने बनाई पर हमारे लिए आज इस नगर में कोई जगह नहीं । फिर शुरू होती है ,दुनियाँ में श्रमिकों की सबसे बड़ी पदयात्रा ।हम नगर से गाँव जाएंगे तो खाएँगे क्या ?लॉक-डाउन की वजह से फसल खेत में ही रह गई । “फसल ने खाई खेत या खेत ने खाई फसल “।  1000 किलोमीटर ,डेढ़ हजार किलोमीटर,2 हजार किलो मीटर की लंबी पदयात्रा। गांवों से रोटी कमाने नगरों में आए श्रमिकों के सामने हर तरफ मुसीबत पहाड़ बन कर खड़ी है ।सड़क पर पुलिस लाठी लेकर खड़ी है। सड़क पर श्रमिकों की भीड़ पर पुलिस इस तरह हमले कर रही है ,जैसे कि शत्रु राष्ट्र की सेना को देश की सीमा के भीतर आगे  बढ़ने से रोकने के लिए हमले कर रही हो। पुलिस प्रधानमंत्री ,मुख्यमंत्री के हुक्म का पालन करे या मानवतावादी बने ।

एक मुख्यमंत्री ने कह दिया कि हम अप्रवासी मजदूरों को प्रदेश की सीमा में घुसने नहीं देंगे । मुझे स्मरण है कि देश के एक शिखर आलोचक ने मुझसे तब फोन कर कहा था कि राज्य क्या एक मुख्यमंत्री के बाप का होता है कि वह प्रदेश के श्रमिकों को इस विपदा काल में घुसने नहीं देगा । किसको पता था कि हम अपने ही देश में अप्रवासी हो जाएंगे । पुलिस के डंडे की मार खतरनाक तो होती है ।मजदूर मुख्य पथ को छोड़कर रेल की पटरी पकड़ कर देश से देस की तरफ बढ़ते रहे ।मरने के बाद पाप कटाने के लिए पक्के हिन्दू जिस करमनाशा नदी में अपने कर्मकांड करते हैं।उस करमनाशा नदी में रेल पुल की पटरी धरे पार कर रहे कई मजदूर नदी में गिरकर मर गए।किसी ने नहीं बताया कि करमनाशा नदी में मरने से मृत श्रमिकों का पाप क्या खत्म हो गया । महाराष्ट्र के औरंगाबाद में पटरी पर एक दर्जन से ज्यादा मजदूरों को मालगाड़ी ने रौंद कर मार दिया । मीडिया ने खबर दी ,मजदूर पटरी पर सो रहे थे । भला सोचिए ,पटरी कोई सोने की जगह है । हम मरे भी तो हमारी मौत की खबर पर लोग हँसे।

हताश ,निराश ,स्तब्ध श्रमिकों ने आकाश की तरफ देखने की कोशिश की । 

“सूरज निर्विकार भाव से मोर को दाना खिला रहा था”। 

एक घंटे 50 मिनट तक कालीदास रंगालय में पसीने से तर-ब –तर सब एकटक नाटक को इस तरह देखते रहे ,जैसे दर्शक भी नाटक में किरदार की भूमिका निभा रहे हों । नाटक में दर्द सबसे ज्यादा है । मेहनतकशों के जीवन का संत्रास हावी है । नाटक का आधा हिस्सा गाँव से नगर आए श्रमिकों के श्रम की ताकत पर टिकी ज़िंदगी की डायरी है तो आधा हिस्सा 2020 की वह पदयात्रा है ,जिसे लोगबाग 2020 के मई माह में ही भूल चुके हैं । नाटक में भिखारी ठाकुर के विदेशिया का प्रभाव भी है ।गीत हैं पर हारमोनियम ,तबला आदि तरह का कोई वाद्य-यंत्र नहीं दिखा । हम सबकी नहीं जानते पर हमारा तो भींगा हुआ रोंगटा लगातार खड़ा होता रहा ।

नाटक खत्म होते ही एक विशिष्ट दर्शक दर्शक –दीर्घा से अचानक निर्देशक और नाटक के कलाकारों को शाबाशी देने मंच पर उपस्थित हुए। पसीने से तर विशिष्ट दर्शक ने बताया कि इसी रंगशाला में नाटक सीखते हुए मैं अब बड़े पर्दे पर अभिनय करता हूँ ,मेरा नाम पंकज त्रिपाठी है। प्रसिद्ध अभिनेता का दर्शकों की भीड़ में पसीने बहाते हुए अनजान होकर नाटक देखना और प्रिय नाट्य निर्देशक के नूतन –प्रयोग को महत्व प्रदान करना इस नाटक के  प्रथम प्रस्तुति की प्रथम सफलता ही है ।

कलाकारों के बदन पर नाटक के लिए अलग से कोई पोशाक नहीं । मंच पर खड़े सभी कलाकार श्रमिक चौक पर मजदूरी की आस में खड़े मजदूर प्रतीत हो रहे थे । पटना जैसे कस्बाई नगर में नाटक की वर्गीय चेतना है और ज़्यादातर नाट्य समूहों के अपने खास दर्शक होते हैं । पुंज प्रकाश ने दस्तक नाट्य समूह की स्थापना नाटक की एक प्रयोगशाला,नाटक की खोज की प्रतिबद्धता के साथ की है तो इन्हें इसी तरह का नाटक करना है ।नगर के धनी वर्ग ,सरकारी हाकिमों ,मंत्रियों को नाटक के मंच पर शोभायमान करना अगर आपके नाटक की फितरत नहीं है तो आप इसी तरह की कथावस्तु को नाटक का विषय बनाएँगे । कम से कम संसाधन में नाटक करते हुए नाट्य कला की गुणवत्ता को बेहतर करना आपकी प्राथमिकता होगी । 

पटना में पिछले डेढ़ दशक से नाटक बदल चुका है । बिहार सरकार ने शिक्षा ,स्वास्थ्य ,परिवार नियोजन , स्वच्छ्ता अभियान सहित तमाम सरकारी योजनाओं को नाटक के माध्यम से प्रचारित करने की कोशिश शुरू की । पटना के गांधी मैदान सहित सुदूर इलाकों में जनता के सवालों पर नुक्कड़ नाटक की परंपरा बंद हो चुकी है । बिहार सरकार के साथ –साथ भारत सरकार के अनुदान पर भी नाटक हो रहे हैं । सरकार के दान –अनुदान पर हो रहे नाटकों के लिए ना ही जन-संपर्क की और न ही इस तरह पसीने बहाते हुए नाटक देखने की दरकार है । सरकार का वातानुकूलित प्रेमचंद रंगशाला सरकारी सहायता से हो रहे नाटकों के लिए उपयुक्त है । 

हमने “पलायन” को उसी तरह देखा ,जिस तरह इसी र्ंगालय में कभी हबीब तनवीर का “चरणदास चोर “ देखा था । बावजूद इसके नाटक को मनोरंजन नहीं कला ,कला और जीवन की प्रयोगशाला की तरह जीने वाले पुंज प्रकाश को “पलायन“ के साथ कुछ और प्रयोग करने हैं । नाटक की कथावस्तु और शिल्प को विज्ञान की कसौटी पर कसने की दरकार है । पुंज प्रकाश ने दुनिया की सबसे बड़ी श्रमिक पदयात्रा को नाटक का विषय बनाया,यह काबिले-तारीफ है।  लेकिन हम कहते हैं कि अगर आपका नाटक एक नया प्रयोग है तो आपका नाटक प्रदेश और देश के बौद्धिक विमर्श का विषय क्यों नहीं हो सकता है । आपने बौद्धिक विमर्श से छूटे हुए विषय “ श्रमिक पदयात्रा “को अगर नाटक का विषय बनाने की कोशिश की है  तो आपको थोड़ी और मेहनत करनी होगी । मैं चाहता हूँ कि इस नाटक को देश के अलग –अलग हिस्सों में दिखाया जाए । मैं इस नाटक में  “नवान्न “ के  तरह की छटा देखना चाहता हूँ । “गोकुला में माचल हाहाकार,गोकुला में माचल हाहाकार, गोकुला में माचल हाहाकार “लगातार मेरे कान के पर्दों पर यही आवाज टकरा रही है ।

“पलायन “ और 2020 की श्रमिक पदयात्रा दोनों अलग –अलग मसले हैं । हम पलायन देखते हुए पदयात्रियों के तलवे क्यों देख रहे हैं । भैया जी बाबा धाम की कांवड़ यात्रा के फफोले और 2020 की श्रमिक पदयात्रा के फफोले में फर्क तो है । नाटक के पोस्टर में जो रक्त से लाल पदचाप  दिख रहा है ,वह नाटक के मंच पर अदृश्य है। अपने मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन पर बचवा दूध पीने के लिए मैया का कंबल खींच रहा था।मैया चिरनिद्रा में सो चुकी थी ।दिल्ली से पैदल आ रहा श्रमिक वाराणसी पहुँच कर दम तोड़ दिया था । माता –पिता को मृत बेटे का मुँह देखने की इजाजत नहीं दी गई। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने रक्तकुल के मृत श्रमिक रामजी महतो की मृतकाया के लिए लॉक डाउन का लॉक नहीं खुलने दिया । वजीरे –आला बिहार ने लॉक  नहीं खुलने दिया तो आप नाटक का लॉक ढीला क्यों छोड़ रहे हैं । थोड़ा कसिए । पसीना ज्यादा बह गया ,आँसू और पसीना साथ हो जाए तो निष्ठुर हुक्मरान की आँखों से भी लहू टपकेंगे।

(पुष्पराज लेखक और पत्रकार हैं आप आजकल पटना में रहते हैं।) 

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