प्रगतिशील लेखक संघ का स्थापना दिवस: फ़ासिज़्म के ख़िलाफ़ फिर बनाना होगा जनमोर्चा

9 अप्रैल, प्रगतिशील लेखक संघ का स्थापना दिवस है। साल 1936 में इसी तारीख को लखनऊ के मशहूर ‘रिफ़ाह-ए-‘आम’ क्लब में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन संपन्न हुआ था। जिसमें बाक़ायदा संगठन की स्थापना की गई। अधिवेशन 9 और 10 अप्रैल यानी दो दिन हुआ। इस अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए महान कथाकार प्रेमचंद ने कहा था,‘‘हमारी कसौटी पर वह साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो, जो हम में गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’’

प्रेमचंद द्वारा दिए गए इस बीज वक्तव्य को एक लंबा अरसा बीत गया, लेकिन आज भी यह वक्तव्य, साहित्य को सही तरह से परखने का पैमाना है। उक्त कथन की कसौटी पर खरा उतरने वाला साहित्य ही हमारा सर्वश्रेष्ठ साहित्य है। यही अदब अवाम के दिल-ओ-दिमाग़ में हमेशा ज़िंदा रहेगा। उन्हें संघर्ष के लिए प्रेरित करता रहेगा।

प्रगतिशील लेखक संघ का गठन यूं ही नहीं हो गया था, बल्कि इसके गठन के पीछे ऐतिहासिक कारण थे। साल 1930 से 1935 तक का दौर परिवर्तन का दौर था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद सारी दुनिया आर्थिक मंदी झेल रही थी। जर्मनी, इटली में क्रमशः हिटलर और मुसोलिनी की तानाशाही और फ्रांस की पूंजीपति सरकार के जनविरोधी कामों से पूरी दुनिया पर साम्राज्यवाद और फ़ासिज्म का ख़तरा मंडरा रहा था। इन सब संकटों के बावजूद उम्मीदें अभी ख़त्म नहीं हुई थीं। हर ढलता अंधेरा, पहले से भी उजला नया सवेरा लेकर आता है। जर्मनी में कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर दिमित्रोव के मुक़दमे, फ्रांस के मज़दूरों की बेदारी और ऑस्ट्रिया की नाकामयाब मज़दूर क्रांति से सारी दुनिया में क्रांति के एक नये युग का आग़ाज़ हुआ।

चुनांचे, साल 1933 में प्रसिद्ध फ्रांसीसी साहित्यकार हेनरी बारबूस की कोशिशों से फ्रांस में लेखक, कलाकारों का फ़ासिज्म के ख़िलाफ़ एक संयुक्त मोर्चा ‘वर्ल्ड कान्फ्रेंस ऑफ राइटर्स फार दि डिफ़ेन्स ऑफ कल्चर’ बना। जो आगे चलकर पॉपुलर फ्रंट (जन मोर्चा) के तौर पर तब्दील हो गया। इस संयुक्त मोर्चे में मैक्सिम गोर्की, रोम्या रोलां, आंद्रे मालरो, टॉमस मान, वाल्डो फ्रेंक, मारसल, आंद्रे जीद, आरांगो जैसे विश्वविख्यात साहित्यकार शामिल थे। लेखक, कलाकार और संस्कृतिकर्मियों के इस मोर्चे को अवाम की भी हिमायत हासिल थी।

दुनिया भर में चल रही इन सब इंक़लाबी वाक़िआत ने बड़े पैमाने पर हिंदोस्तानियों को भी मुतास्सिर किया। इन हिंदोस्तानियों में लंदन में आला तालीम ले रहे सज्जाद ज़हीर, डॉ. मुल्कराज आनंद, प्रमोद सेन गुप्त, डॉ. मुहम्मद दीन ‘तासीर’, हीरेन मुखर्जी और डॉ. ज्योति घोष जैसे तरक़्क़ीपसंद नौजवान भी थे। जिसका सबब लंदन में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना थी। प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र का शुरुआती मसौदा वहीं तैयार हुआ।

सज्जाद ज़हीर और उनके चंद दोस्तों ने मिलकर तरक़्क़ीपसंद तहरीक को आलमी तहरीक का हिस्सा बनाया। स्पेन के फ़ासिस्ट विरोधी संघर्ष में सहभागिता के साथ-साथ सज्जाद ज़हीर ने साल 1935 में गीडे व मेलरौक्स द्वारा आयोजित विश्व बुद्धिजीवी सम्मेलन में भी हिस्सेदारी की। जिसके अध्यक्ष गोर्की थे। साल 1936 में सज्जाद ज़हीर, लंदन से भारत वापिस लौटे और आते ही उन्होंने सबसे पहले प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन की तैयारियां शुरू कर दीं।

‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के घोषणा-पत्र पर उन्होंने भारतीय भाषाओं के तमाम लेखकों से विचार-विनिमय किया। इस दौरान सज्जाद ज़हीर गुजराती भाषा के बड़े लेखक कन्हैयालाल मुंशी, फ़िराक़ गोरखपुरी, डॉ. सैयद ऐज़ाज़ हुसैन, शिवदान सिंह चौहान, पं. अमरनाथ झा, डॉ. ताराचंद, अहमद अली, मुंशी दयानारायन निगम, महमूदुज्ज़फ़र, सिब्ते हसन आदि से मिले।

‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के घोषणा-पत्र पर सज्जाद ज़हीर ने उनसे राय-मशवरा किया। प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद रखने और उसको परवान चढ़ाने में उर्दू अदब की एक और बड़ी अफ़साना निगार, ड्रामा निगार रशीद जहॉं का भी बड़ा योगदान है। हिंदी और उर्दू ज़बान के लेखकों, संस्कृतिकर्मियों को उन्होंने इस संगठन से जोड़ा। मौलवी अब्दुल हक़, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, सूफ़ी गु़लाम मुस्तफ़ा जैसे कई नामी गिरामी लेखक यदि प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े, तो इसमें रशीद जहॉं का बड़ा योगदान है।

यही नहीं संगठन बनाने के सिलसिले में सज्जाद ज़हीर ने जो इब्तिदाई यात्राएं कीं, रशीद जहॉं भी उनके साथ गईं। लखनऊ, इलाहाबाद, पंजाब, लाहौर जो उस ज़माने में देश में अदब और आर्ट के बड़े मरकज़ थे, इन केन्द्रों से उन्होंने सभी प्रमुख लेखकों को संगठन से जोड़ा। संगठन की विचारधारा से उनका तआरुफ़ कराया। लखनऊ अधिवेशन को हर तरह से कामयाब बनाने में रशीद जहॉं के योगदान को हम भुला नहीं सकते। अधिवेशन के वास्ते चंदा जुटाने के लिए उन्होंने न सिर्फ़ यूनीवर्सिटी और घर-घर जाकर टिकिट बेचे, बल्कि प्रेमचंद को सम्मेलन की सदारत के लिए भी राज़ी किया।

बहरहाल, प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन बेहद कामयाब रहा। जिसमें साहित्य से जुड़े कई विचारोत्तेजक सत्र हुए। अहमद अली, फ़िराक़ गोरखपुरी, मौलाना हसरत मोहानी आदि ने अपने आलेख पढ़े। अधिवेशन में उर्दू के बड़े साहित्यकार तो शामिल हुए ही, हिन्दी से भी प्रेमचंद के साथ जैनेन्द्र कुमार, शिवदान सिंह चौहान ने शिरकत की। अधिवेशन में लेखकों के अलावा समाजवादी लीडर जयप्रकाश नारायण, यूसुफ़ मेहर अली, इंदुलाल याज्ञनिक और कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने भी हिस्सा लिया। सज्जाद ज़हीर इस संगठन के पहले महासचिव चुने गये। वे साल 1936 से 1949 तक प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव रहे।

सज्जाद ज़हीर के व्यक्तित्व और दृष्टिसम्पन्न परिकल्पना के ही कारण प्रगतिशील आंदोलन, आगे चलकर भारत की आज़ादी का आंदोलन बन गया। देश के सारे प्रगतिशील-जनवादी लेखक, कलाकार और संस्कृतिकर्मी इस आंदोलन के इर्द-गिर्द जमा हो गये। सज्जाद ज़हीर के अलावा डॉ.मुल्कराज आनंद भी प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन के प्रमुख सिद्धांतकार थे। कलकत्ता में प्रगतिशील लेखक संघ की दूसरी अखिल भारतीय कॉन्फ्रेंस में मुल्कराज आनंद न सिर्फ़ कलकत्ता कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष मंडल में शामिल थे, बल्कि उन्होंने कॉन्फ्रेंस में तरक़्क़ीपसंद तहरीक की विस्तृत रूपरेखा और उसकी आगामी चुनौतियों पर शानदार वक्तव्य भी दिया था।

मुल्कराज आनंद की ज़िंदगी का काफ़ी अरसा लंदन में गुज़रा। साल 1939 में वे स्पेन गए। स्पेन में उन्होंने इंग्लैंड, फ्रांस, यूरोप एवं अमेरिका के तरक़्क़ीपसंद लेखक और बुद्धिजीवियों को फ़ासिज्म के ख़िलाफ़ लड़ते देखा। उन्होंने वहां देखा, ‘‘लेखकों की यह जद्दोजहद महज़ ज़बानी या क़लमी नहीं थी, बल्कि बहुत-से लेखक और बुद्धिजीवी वर्दियां पहनकर, जनतांत्रिक सेना की टुकड़ी ‘इंटरनेशनल ब्रिगेड’ में शामिल हो गए थे और प्रगतिशीलता व प्रतिक्रियावाद के सबसे निर्णायक और ख़तरनाक मोर्चे पर अपना ख़ून बहा कर और अपनी जानें देकर शांति और संस्कृति की दुश्मन ताक़तों को रोकने की कोशिश कर रहे थे।’’ (किताब-‘रौशनाई तरक़्क़ीपसंद तहरीक की यादें’, लेखक-सज्जाद ज़हीर, पेज-162, 163)

ज़ाहिर है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवाद और फ़ासिज़्म के ख़िलाफ़ लेखक जिस तरह से दूसरी जनतांत्रिक ताक़तों के साथ एकजुट होकर संघर्ष कर रहे थे, ठीक उसी तरह का संघर्ष और आंदोलन वे भारत में भी चाहते थे। भारत आते ही उन्होंने यह सब किया भी। ”उन्होंने देश के बड़े-बड़े शहरों में विद्यार्थियों, लेखकों और बुद्धिजीवियों की सभाओं में स्पेन की लड़ाई के अंतरराष्ट्रीय महत्त्व पर ओजस्वी भाषण दिए और अपने सहधर्मी साहित्यकारों के समूह को ख़ास तौर पर दुनिया के तमाम मानवता प्रेमी बुद्धिजीवियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर युद्धोन्माद व प्रतिक्रियावाद के ख़िलाफ़ संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया।’’ (किताब-‘रौशनाई तरक़्क़ीपसंद तहरीक की यादें’, लेखक-सज्जाद ज़हीर, पेज-164)

साल 1942 से 1947 तक का दौर, प्रगतिशील आंदोलन का सुनहरा दौर था। यह आंदोलन आहिस्ता-आहिस्ता देश की सारी भाषाओं में फैलता चला गया। हर भाषा में एक नये सांस्कृतिक आंदोलन ने जन्म लिया। इन आंदोलनों का आख़िरी मक़सद, मुल्क की आज़ादी था। उस दौर में आलम यह था कि प्रगतिशील लेखक संघ की लोकप्रियता देश के सभी राज्यों के लेखकों के बीच थी। प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन में लेखकों का शामिल होना, प्रगतिशीलता की पहचान मानी जाती थी।

आंदोलन ने जहां धार्मिक अंधविश्वास, जातिवाद व हर तरह की धर्मांधता का विरोध किया, तो वहीं साम्राज्यवाद और देसी सरमायेदारों से भी टक्कर ली। देश में एक समय ऐसा भी आया, जब उर्दू के सभी बड़े साहित्यकार प्रगतिशील लेखक संघ के परचम तले थे। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अली सरदार जाफ़री, मजाज़, कृश्न चंदर, ख़्वाजा अहमद अब्बास, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी, इस्मत चुग़ताई, राजिंदर सिंह बेदी, प्रेम धवन, साहिर लुधियानवी, हसरत मोहानी, सिब्ते हसन, जोश मलीहाबादी, मुईन अहसन जज़्बी जैसे कई नाम तरक़्क़ीपसंद तहरीक के हमनवां, हमसफ़र थे।

इन लेखकों की रचनाओं ने मुल्क में आज़ादी के हक़ में एक समां बना दिया। यह वह दौर था, जब प्रगतिशील लेखकों को नये दौर का रहनुमा समझा जाता था। तरक़्क़ीपसंद तहरीक को पं. जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू, रबीन्द्रनाथ टैगोर, अल्लामा इक़बाल, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान, प्रेमचंद, वल्लथोल जैसी सियासी और समाजी हस्तियों की सरपरस्ती हासिल थी। वे भी इन लेखकों के लेखन एवं काम से बेहद मुतास्सिर और पूरी तरह से मुतमईन थे।

बहरहाल, प्रगतिशील लेखक संघ को गठन हुए एक लंबा अरसा गुज़र गया, लेकिन देश-दुनिया के सामने चुनौतियां उसी तरह की हैं। फ़र्क सिर्फ़ यह भर है कि अब फ़ासीवाद और साम्राज्यवाद नये-नये रूप बदलकर आ रहा है। प्रतिक्रियावादी ताक़तें, पहले से भी ज़्यादा मुखर हैं। उन्हें खुलकर सत्ता की सरपरस्ती हासिल है। इन प्रतिक्रियावादी ताक़तों से टक्कर तभी ली जा सकती है, जब प्रगतिशील और जनवादी विचारों से जुड़े सभी लेखक, कलाकार और संस्कृतिकर्मी एकजुट हो, इनके ख़िलाफ़ संयुक्त मोर्चा बनाएं। अपने छोटे-छोटे स्वार्थ और हितों को भूलकर, सड़कों पर आएं। अवाम की नुमाइंदगी करें। तभी इनके ख़िलाफ़ जनमोर्चा क़ायम होगा।

(ज़ाहिद ख़ान वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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