वैवाहिक संबंधों में जाति से ज्यादा पद, पावर और पैसा महत्वपूर्ण

21वीं सदी के भारत में हम भले ही प्रेम भाईचारे की बात करते हों। मगर कुछ इंसानों की सोच अभी भी जातिगत भेदभाव दकियानूसी और संकीर्णता से भरी पड़ी है, भारतीय समाज में जाति व्यवस्था सबसे बड़ी बुराईयों में से एक है। वैसे तो जाति व्यवस्था लगभग तीन हजार वर्ष पुरानी है, मगर समय के साथ बदलाव यह हुआ कि अब जातियों की अलग-अलग श्रेणियों की बजाय अदृश्य रूप से दो श्रेणियां बन गयी हैं, एक अमीर जाति और दूसरी गरीब जाति। आज प्रामाणिक रूप से भले ही हम सबको जातियों के अनुसार जानते हैं, मगर सच तो यह है कि सामाजिक रूप से हम किसी को अमीरी गरीबी वाली जाति में बांटकर देखते हैं।

अमीरी-गरीबी कभी जाति देखकर नहीं आती, पैसा न हो तो सवर्ण भी भेदभाव के शिकार हो दुत्कारे जाते हैं, और आर्थिक रूप से सम्पन्न यानी अमीर लोग अपनी मर्जी के मालिक होते हैं, न वो किसी मामले में किसी का दखल पसंद करते हैं, न ही अपने निर्णयों में किसी की परवाह करते हैं। वर्तमान समय में जिसके पास पैसा और पावर है, उसे उच्च और जो इन दोनों से वंचित हैं उसे निम्न समझा जाता है, भले ही वह सवर्ण हो या दलित, सभ्य समाज के लोग उसकी जाति का मूल्यांकन उसकी हैसियत के अनुसार करते हैं।

आज चैनलों अखबारों में एक विधायक पुत्री का एक दलित युवक के साथ भागकर विवाह कर लेना और अपने परिजनों से अपने व अपने पति को जान का खतरा बताना और युवक द्वारा खुद को दलित बताना सुर्खियों में है, न्यूज चैनल इस पर डिबेट कर रहे हैं, जबकि यह उस परिवार का बेहद निजी मामला है। इस पर इतनी हाय तौबा की जरूरत नहीं थी। मगर टीआरपी खोर चैनलों के लिए यह एक दलित सवर्ण मुद्दा लगा सो लपक लिया और उस लड़की के पिता को फोन लाइन पर लेकर लगे सवाल पर सवाल दागने सब कुछ तो ठीक था, मगर एंकर का लड़की के पिता से यह सवाल कि क्या वह अपनी बेटी को अपनाएंगे उसे अपने घर में जगह देंगे जैसे सवाल बेहद बचकाना लगा, जब लड़की का पिता कह रहा है कि वह (लड़की) बालिग है अपना निर्णय लेने को स्वतंत्र है,वह जहां रहे खुश रहे, तो बात यहीं खत्म हो जानी चाहिए क्योंकि लड़की अपनी मर्जी से भागी है और कोई पिता यह सहन नहीं कर सकता की उसकी लड़की ऐसा निर्णय ले जिससे उसकी समाज मे जग हंसाई हो।

तो वह क्यों उसे अपने घर में जगह देगा और उस लड़की के पति का यह कहना कि मैं दलित हूं इसलिए उसे वो (लड़की के परिजन) स्वीकार नहीं कर रहे हैं। लड़के का डिफेंसिव मोड है, क्योंकि लड़का उस परिवार में आता-जाता, खाता-पीता रहा है, अगर दलित सवर्ण वाला मुद्दा रहता तो एक ब्राम्हण क्यों एक दलित को घर में जगह देता। हम यह नहीं कह रहे कि लड़की के परिजन सही हैं या लड़की, मगर यह जरूर तय है कि लड़का-लड़की के परिवार की बराबर की हैसियत नहीं रखता वरना जाति कोई अहम मुद्दा नहीं होता।

आज जो न्यूज चैनल इस प्रेम विवाह को इतना खींच रहे हैं उन्होंने कभी करीना कपूर से पूछा कि अधेड़ सैफ अली खान से उन्होंने क्यों विवाह किया ? भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री रामलाल की भतीजी श्रेया ने मुस्लिम फैजान से क्यों शादी की, अगर फैजान करीम हैसियत में कम होता तो क्या यह शादी हो पाती? क्या  फारूक अब्दुल्ला की बेटी सारा अब्दुल्ला और सचिन पायलट की शादी हो पाती अगर दोनों में से किसी की राजनैतिक आर्थिक हैसियत कमतर होती, ऐसी बहुत सी शादियों के किस्से फ़िल्म और उद्योग जगत में भरे पड़े हैं, मगर कभी उधर सवाल नहीं खड़े होते, क्योंकि वहां बात दलित, सवर्ण, हिन्दू, मुस्लिम की जगह हैसियत को ही जाति मानी जाती है। 

दरअसल अब असली भेदभाव तो अमीरी और गरीबी के बीच है न कि जात-पात के बीच। आप गरीब हैं तो अमीर लोगों के लिए आप अछूत हैं, आप उनकी हैसियत के हैं आपके पास पैसा पावर है तो आप बराबर हैं। मगर न्यूज चैनलों को अमीरी-गरीबी वाले मुद्दे नहीं दलित सवर्ण, हिन्दू मुस्लिम,जैसे मुद्दे ही दिखते हैं। यही चलता रहा तो एक दिन न्यूज चैनलों की तरफ कोई पलट कर देखेगा भी नहीं।

(अमित मौर्या बनारस से निकलने वाले दैनिक अखबार “गूंज उठी रणभेरी” के संपादक हैं।)

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