अक्सर हमारे भीतर ही मौजूद होते हैं हमारे दुर्भाग्य के बीज

कहीं बहुत भीतर, जाने कितने दरवाज़ों, आंगन और कमरों के पार कहीं एक तितली बर्फ़ में जमी होती है। न जीवित और न ही मरी हुई। जैसे उसकी थमी हुई धड़कन गरमाहट पाकर दोबारा चालू हो जाएगी। हम उस दरवाज़े को हमेशा बंद रखते हैं। ‘कला’ की नायिका (तृप्ति डिमरी) के भीतर उसी सफेद बर्फ़ में जमे जाने कितने दुःस्वप्न हैं। ज़िंदगी की गरमाई से यादों की ठंडी नसों में खून फिर-फिर दौड़ने लगता है।

फ़िल्म में बार-बार दिखने वाले चमगादड़ की शक्ल वाले डेविल की तरह उनके पंख फड़फड़ाने लगते हैं। नायिका अपने दुर्भाग्य के साथ हमारे मन में बहुत सारे सवाल छोड़ जाती है। आखिर वो क्या था जो इस कहानी की उन तीन अभिशप्त आत्माओं को उस बंद दरवाज़े तक ले गया, जिनके पीछे मृत्यु या अकेलापन प्रतीक्षा कर रहा था? 

‘कला’ एक ठहरी हुई फ़िल्म है। पात्र उसी गति से सांस लेते हैं, जिस गति से हम फ़िल्म को देखते समय ले रहे होते हैं। इसीलिए हम धीरे-धीरे उन पात्रों के साथ-साथ चलने लगते हैं। भीतर कहीं बहुत भीतर कांच की तरह सख़्त और ठंडी बर्फ़ में जमी तितली तक पहुंच जाते हैं। बेबस से उस दरवाजे को खुलते हुए देखते हैं, जिसके पीछे अकेलापन, पश्चाताप और मृत्यु है। हमारे सबसे करीबी रिश्तों में लगने वाली खरोचें और उनसे रिसता खून कितने लोग देख पाते हैं? मगर ‘कला’ की निर्देशक अन्विता दत्त की निगाह इसे देखती है। 

ऊपरी तौर पर यह सिर्फ अपराध बोध, गुनाह, पश्चाताप और पितृ सत्तात्मक समाज को दर्शाने वाली फ़िल्म लग सकती है, मगर जब फ़िल्म के सहारे इन किरदारों के मन की अतल ठंडी गहराइयों में उतरते हैं तो हम एक कॉस्मिक स्पेस में जाकर खड़े हो जाते हैं, जहां ईर्ष्या है, महत्वाकांक्षा है, बहुत छोटी-छोटी लालसाएं हैं और उनको हासिल करने की कोशिश में किए जाने वाले गुनाह हैं। 

नायिका, जिसका नाम भी कला है, एक डिस्टॉर्टेड पर्सनैलिटी के रूप में हमारे समक्ष आती है। एक गायिका मां (स्वस्तिका मुखर्जी) और संगीत की समृद्ध विरासत वाले पिता की बेटी। एक लड़की जिसने शायद कभी अपने बारे में जाना ही नहीं। उसे बस ये पता था कि उसे गाना है, उसे बस ये पता चलता है उसे गाना नहीं है। उसके जीवन का मकसद ही अपनी मां के चेहरे पर अपने लिए स्वीकृति देखना था। 

हम उन इच्छाओं में कैद होते चले जाते हैं, जिनका कभी हमने निर्माण ही नहीं किया होता है। लोग हमारे जीवन में दुर्भाग्य की तरह दाखिल होते हैं, “हेल इज़ अदर पिपल !” सार्त्र के नाटक ‘नो एक्जिट’ की तरह हर कोई किसी अन्य के लिए नर्क के दरवाज़े खोलता नज़र आता है और अपने लिए भी। मुझे फ़िल्म का वो दृश्य नहीं भूलता है जब कला को सजा देने के लिए उसकी मां घर से बाहर कर देती है। वह दरवाजे और खिड़कियों के बाहर बुदबुदाती हुई माफी मांगती रहती है, सफेद बर्फ़ उसके बालों पर जमती चली जाती है। इसकी ठंडक मानो उसके भीतर जम जाती है। फ़िल्म के उत्तरार्ध में नायिका कला का अवसाद उन्हीं बर्फ़ीली यादों के साथ उसे घेरता चला जाता है। 

कला के जीवन में दाखिल होने वाला जगन (बाबिल खान) खुद नहीं जानता कि वह किस दुर्भाग्य को न्योता दे रहा है। बाबिल ने अपने इस छोटे से मगर अहम रोल को यादगार बनाया है। उनके पिता इरफ़ान का अभिनय मुखर था मगर बाबिल पिता से अलग अभिनेता हैं। वे अपनी खामोशी से बोलने वाले अभिनेताओं की कैटेगरी में आते हैं।

वे अंडरप्ले करते हैं। मुझे उम्मीद है कि आने वाले दिनों में इरफ़ान की आँखों की तरह उनका पूरा चेहरा बोलेगा। कला का शोहरत हासिल करना और उसकी भीतर जमी उदासी कई जगह गुरुदत्त की फ़िल्म ‘कागज़ के फूल’ की अनायास ही याद दिला देती है। खास तौर पर वो दृश्य जहां सीढ़ियों पर वह प्रशंसकों और प्रेस वालों से घिरी होती है। 

तृप्ति डिमरी के अभिनय के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है मगर उन्होंने अपनी रुक-रुककर घूमती सुंदर मगर सहमी आंखों, गोरी रंगत से झांकती उदासी की कालिमा और टूट जाने की हद तक अपने भीतर चल रहे शोर और डर सामना करने के भाव को जिस तरह अपनी बॉडी लैंग्वेज से प्रस्तुत किया है, वह अद्वितीय है। स्वस्तिका मुखर्जी ने एक जटिल भूमिका को अंजाम दिया है, जो पूरी फ़िल्म में एक खल पात्र की तरह हमारे सामने रहता है मगर अंत में करुणा पैदा कर जाता है। 

फ़िल्म का अपना एक एस्थेटिक है। निर्देशक का सिग्नेचर हर दृश्य और हर फ्रेम पर मौज़ूद है, बिल्कुल किसी कविता, पेंटिंग या संगीत रचना की तरह। चाहे वो रंगों और प्रकाश का संयोजन हो, चाहे फ़िल्म की साज-सज्जा और सेट हों या सब कुछ मिलाकर बनी इस फ़िल्म की ठंडी तासीर। अन्विता दत्त की तारीफ़ करनी होगी कि लंबे समय बाद उन्होंने कोई ऐसा सिनेमा रचा है जिसे हम निर्देशक का सिनेमा कह सकते हैं। फ़िल्म में बहुत सी जगहों पर प्रतीकों का इस्तेमाल किया गया है। 

एक पज़ल जिसमें बाहर जाने का रास्ता खोजना होता है। पश्चिमी गॉथिक आर्किटेक्चर में बनी डेविल की मूर्ति बार-बार दिखाई जाती है। परछाइयों में भागते घोड़े और सबसे बढ़कर बर्फ़- जो धीरे-धीरे पूरी फिल्म में फैलती चली जाती है। यही बर्फ़ नायिका के अवसाद और उसकी स्मृतियों की ठिठुरन को अभिव्यक्त करती है। फ़िल्म का अंतिम दृश्य सारी संभावनाओं के खुले होने के बावजूद रीढ़ में एक सिहरन पैदा कर देता है। उस दृश्य को दोबारा याद कर पाना बहुत ही मुश्किल और तकलीफदेह है। 

इसे देखते हुए मुझे बरबस टॉमस हॉर्डी के उपन्यासों की याद आई, जहां प्रकृति लोगों के जीवन को संचालित करती है। जहां किरदारों की तबाही के बीज उनके भीतर ही छिपे होते हैं। फ़िल्म के तीनों ही किरदार ग्रे शेड वाले हैं। ‘कला’ का विस्तार से एनॉलसिस करने पर शायद कहीं कुछ बातें, कुछ प्रसंग अवास्तविक लगें मगर मेरे मन में बार-बार यह सवाल उठता है कि इनमें से हर कोई उस पज़ल से बाहर निकलने का रास्ता कैसे तलाश सकता था, जिसके ठीक बीचों-बीच वह अपने आपको पाता है? वो कौन से अदृश्य धागे हैं जिनसे इस फ़िल्म के ये तीन अहम किरदार बंधे हुए हैं? क्यों ‘हेल इज़ अदर पिपल’ समझने के बाद भी ये सारे बंधन तोड़कर छूट नहीं पाते हैं? 

मन के सात दरवाजों के भीतर वो कौन सी काली तितली बर्फ़ में जमी है, जिसके बारे में हमें पता ही नहीं, कि ज़िंदा है या मर गई?

(लेखक दिनेश श्रीनेत इकोनॉमिक टाइम्स में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं।) 

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