जयंती पर विशेष: राही का मानना था- देश के राजनीतिक-आर्थिक ढांचे में बसता है सांप्रदायिकता का भूत

‘‘मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझे कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है/मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मुंह पर फेंको/और उस जोगी से यह कह दो/महादेव अब इस गंगा को वापिस ले लो/यह जलील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गर्म लहू बनकर दौड़ रही है।’’ (‘गंगा और महादेव’) अपनी नज्म-शायरी और बेश्तर लेखन से साम्प्रदायिकता और फिरकापरस्तों पर तंज वार करने वाले, राही मासूम रज़ा का जुदा अन्दाज़ इस नज्म की चंद लाइनें पढ़कर सहज ही लगाया जा सकता है। 1 सितम्बर, 1927 को गाजीपुर के छोटे से गांव गंगोली में जन्मे राही को मुकद्दस दरिया गंगा और हिन्दुस्तानी तहजीब से बेपनाह मोहब्बत करने का सबक, उस आबो-हवा में मिला जिसमें उनको तालीम-ओ-तर्बियत मिली। फिल्मी दुनिया में शोहरत की बुलंदियों को छू लेने के बावजूद, गंगा और गंगोली गांव से राही का यह जज्बाती लगाव आखिर तक कायम रहा। गंगोली से उन्हें बेहद प्यार था।

हालांकि, साल 1967 में जो वे एक बार मुम्बई पहुंचे, तो दोबारा गंगोली नहीं गए। इसकी वजह, बचपन में बीते हुए गंगोली का पहले वाला अक्स था, जो उनकी आंखों में बसा था और वे उस अक्स को हर्गिज मिटाना नहीं चाहते थे। गंगोली में राही मासूम रजा का परिवार छोटे ज़मींदारों का अपनी परम्पराओं से बंधा हुआ खानदान था। परिवार से जुदा राही बचपन से रेडिकल मिजाज के थे। गलत बात बर्दाश्त करना और किसी के आगे झुकना उनकी फितरत में नहीं था। जब आला दर्जे की तालीम के लिए वे अपने बड़े भाई डॉ. मुनीस रज़ा के पास अलीगढ़ पहुंचे, तब तक अलीगढ़ वामपंथियों का गढ़ बन चुका था। यूनिवर्सिटी में उस समय प्रो. नूरूल हसन, डॉ. अब्दुल अलीम, डॉ. सतीश चंद, डॉ. रशीद अहमद, डॉ. आले अहमद सुरूर जैसे आला वामपंथी प्रोफेसर मौजूद थे और बिलाशक इसका असर नौजवान राही की पूरी शख्सियत पर भी पड़ा।

साल 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की कायमगी हो गई थी। इस अंजुमन की जानिब तरक्कीपसंद और आज़ादख्याल नौजवान अदीबों का गजब का झुकाव था, ये अदीब इसकी ओर खिंचे चले आते थे। राही भी साल 1945 में तरक्की पसंद तहरीक से जो एक बार जुड़े, तो आखिर तक प्रगतिशील और जनवादी बने रहे। जनवाद और प्रगतिशीलता से उन्होंने कभी नाता नहीं तोड़ा। राही मासूम रजा के अदबी सफर का आग़ाज़ शायरी से हुआ। मासूम रजा उनका असली नाम और ‘राही’ तखल्लुस है, जो आगे चलकर उनके नाम के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया। साल 1966 तक आते-आते उनके सात गज़ल, नज्म संग्रह शाया हो चुके थे।

‘नया साल’, ‘मौजे गुल मौजे सबा’, ‘रक्से मय’, ‘अजनबी शहर अजनबी रास्ते’ आदि उनके खास काव्य संग्रहों में शुमार किये जाते हैं। यही नहीं 1857 स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी पर साल 1957 में लिखा गया उनका एपिक ‘अठारह सौ सत्तावन’ उर्दू और हिन्दी दोनों ही जबानों में प्रकाशित हो, बेहद मकबूल हुआ। राही मासूम रजा की आवाज़ में जादू था और तिस पर तरन्नुम भी लाजवाब। जब मुशायरे में नज्म पढ़ते, तो एक समां सा बंध जाता। बचपन में ‘तिलस्मे-होशरूबा’ के किस्सों से मुतास्सिर राही के गद्य लेखन का सिलसिला अलीगढ़ से एक बार जो शुरू हुआ, तो उसे उन्होंने हमेशा के लिए अपना लिया।

पढ़ाई के दौरान ही वे अपनी रचनात्मकता और खाली वक्त का इस्तेमाल गद्य लेखन में करने लगे थे। उस वक्त इलाहाबाद के मशहूर पब्लिशर अब्बास हुसैनी उर्दू में ‘निकहत’ नाम का महाना और ‘जासूसी दुनिया’, ‘रूमानी दुनिया’ जैसे रिसाले निकालते थे, जो आम-ओ-खास दोनों में ही मशहूर थे। राही, शाहिद अख्तर के अलावा अलग-अलग नामों से इन रिसालों में लिखते थे और यहीं से उन्हें पाबन्दी से लिखने की आदत पड़ी। पाबंदी से लिखने की इस आदत का ही सबब था कि वे एक ही समय फिल्मों में पटकथा, संवाद, दूरदर्शन के लिए धारावाहिक, अखबारों में नियमित कॉलम और नज्म, गजल, उपन्यास साथ-साथ लिख लिया करते थे।

हिन्दी अदबी हल्के में राही मासूम रजा का आगाज साल 1966 में उपन्यास ‘आधा गांव’ के जरिये हुआ। शुरुआत में ‘आधा गांव’ का स्वागत बड़े ठण्डे स्वरों में हुआ। जैसा कि स्वयंसिद्ध है, ‘‘अच्छी रचना का ताप धीरे-धीरे महसूस होता है।’’ ‘आधा गांव’ की ख्याति और चर्चा हिन्दी-उर्दू दोनों ही जबानों में एक साथ हुई। साल 1972 में डॉ. नामवर सिंह की अनुशंसा पर जोधपुर विश्वविद्यालय में एमए हिंदी के पाठ्यक्रम में उपन्यास ‘आधा गांव’ लगाने का फैसला हुआ। उपन्यास लगते ही बवाल मच गया। नैतिकतावादियों, प्रतिक्रियावादियों ने एक सुर में डॉ. राही मासूम रज़ा और उनके इस उपन्यास की जमकर आलोचना की। उपन्यास पर अश्लील और साम्प्रदायिक होने के इल्जाम लगे।

इन आरोपों, आलोचनाओं से राही बिल्कुल नहीं डिगे, बल्कि फिरकापरस्त ताकतों से लड़ने का उनका इरादा और भी ज्यादा मजबूत हो गया। जो आगे भी उनकी रचनाओं में बार-बार झलकता रहा। अखबारों में लिखे गये उनके कॉलम बेहद तीखे और सख्त होते थे। जिसमें न ही वे किसी की परवाह करते थे और न ही किसी को बख्शते थे। अपने एक लेख ‘भारतीय समाज किसी मजहब की जागीर नहीं है !’ में वे लिखते हैं,‘‘सेक्यूलरिज्म कोई चिड़िया नहीं है कि कोई बहेलिया कंपे में लासा लगा के उसे फंसा लेगा। सेक्यूलरिज्म सोचने का ढंग है, जीने का तरीका है ! और जब तक देश के आर्थिक और राजनीतिक ढांचे में बुनियादी परिवर्तन नहीं करेंगे, तब तक साम्प्रदायिकता का भूत यूं ही हमारी बेजुबान और बेबस सड़कों पर नाचता रहेगा।’’

मुल्क की आज़ादी की जद्दोजहद और बंटवारे की आग में हिन्दुस्तान से पाकिस्तान और पाकिस्तान से हिन्दुस्तान हिजरत करते लाखों लोग राही ने अपनी आंखों से देखे थे, उनके रंजो-गम में वे खुद शामिल रहे थे। लिहाजा साम्प्रदायिकता के घिनौने चेहरे से वे अच्छी तरह से वाकिफ थे। यही वजह है कि साम्प्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषा की संकीर्णता पर उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिए लगातार प्रहार किये। राही का कहना था, ‘‘धर्म का राष्ट्रीयता और संस्कृति से कोई विशेष सम्बंध नहीं है। पाकिस्तान का निर्माण मिथ्या चेतना के आधार पर हुआ है और जिस भवन की बुनियाद टेढ़ी होगी, वह बहुत दिन तक नहीं चलेगा।’’ उन्होंने उपन्यास ‘आधा गांव’ में इस बात की ओर इशारा किया था कि पाकिस्तान बहुत दिनों तक, एक नहीं रहेगा। बहरहाल भाषाई आधार पर साल 1971 में पाकिस्तान टूटा और बांग्लादेश बना।

उनकी बात जस का तस सच साबित हुई। उपन्यास ‘आधा गांव’ विभाजन के पहले शिया मुसलमानों के दुख-दर्द और पाकिस्तान के वजूद को पूरी तरह नकारता है। ‘‘पाकिस्तान क्या है ? कौनो मस्जिद बस्जिद बाय का ?’’ आधा गांव में अपने किरदार के मार्फत बुलवाया गया, उनका यह संवाद हिंदुस्तान के दूरदराज के गांव में बसने वाली अवाम का भोला-भाला चेहरा दिखलाता है, जो ऊपरी सतह पर चलने वाली सियासत और जंग से पूरी तरह अंजान है और जिसके लिए अपनी जन्म-कर्मभूमि ही उसका मुल्क है। गांव में बिना किसी विद्वेष, दुश्मनी के सदियों से संग रहने वाले बाशिंदों के दिलों के आपसी तआल्लुक, हुकूमतों द्वारा खींच दी गई सरहदों के बावजूद आज भी अटूट हैं।

‘टोपी शुक्ला’, ‘हिम्मत जौनपुरी’, ‘ओस की बूंद’, ‘दिल एक सादा कागज’, ‘सीन 75’, ‘कटरा बी आर्जू’, ‘असंतोष के दिन’ ‘नीम का पेड़’ आदि राही मासूम रजा के प्रमुख उपन्यास हैं। जिनमें ‘टोपी शुक्ला’ और ‘कटरा बी आर्जू’ अपने विषय, कथावस्तु, भाषा-शैली और अनोखे ट्रीटमेंट के लिए जाने जाते हैं। साल 1969 में लिखे उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ में जहां राही अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के अन्दर चलने वाली वाम राजनीति और अन्य से अपने अन्तः सम्बन्धों की पड़ताल करते हैं, तो वहीं आपातकाल के बाद लिखा गया उनका उपन्यास ‘कटरा बी आर्जू’, आपातकाल की भयावहता पर आधारित है। राही ने उपन्यास और उस दौर में लिखे अपने नियमित कॉलम में जो ‘नवभारत टाइम्स’, ‘रविवार’ वगैरह में छपते थे, आपातकाल की खुलकर मुखालफत की। इमरजेंसी के दौरान कुछ लेखक, बुद्धिजीवियों की चुप्पी और तटस्थता से वे बेहद निराश थे।

किसी भी मुल्क में आन पड़ी ऐसी घड़ियों को वे निर्णायक मानते थे, जिसमें आपकी प्रतिबद्धता, पक्षधरता सामने आती है। जिसका असर भावी समाज और आने वाली पीढ़ियों पर पड़ता है। कॉलम ‘विभाजन के रास्ते’ में इसके मुतअल्लिक राही लिखते हैं, ‘‘इन बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, विचारकों ने इमरजेंसी लगने के बाद डर के मारे जो चुप्पी साधी थी, वह चुप्पी अब तक नहीं टूटी है।’’ साल 1984 के सिख विरोधी दंगे हों या अयोध्या-बाबरी मस्जिद के प्रसंग के चलते मुल्क में बढ़ती जा रही साम्प्रदायिकता, ऐसे कई मुद्दों पर समाज में फैलती जा रही खामोशी से वे हैरान-परेशान रहते थे। अपने लेखन के जरिए वे अक्सर ऐसे सवालों से जूझते-टकराते रहे।

राही ने साम्प्रदायिकता के विभिन्न पक्षों को अपने उपन्यास और लेखों में समय-समय पर रेखांकित किया। उनके उपन्यासों में अतीत की निर्मम आलोचना है। अपने इन उपन्यासों में वे अतीत और वर्तमान में संवाद स्थापित करने में कामयाब रहे हैं। अपने माज़ी से सबक लेकर वर्तमान और मुस्तकबिल को सुनहरा बनाने की यह कवायद बार-बार उनके उपन्यासों में देखने को मिलती है। राही साल 1967 तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्राध्यापक रहे। पारिवारिक और व्यक्तिगत कारणों से तंग आकर, उन्होंने अलीगढ़ छोड़ा। अलीगढ़ से वे जब मुम्बई पहुंचे, तो वहां आर.चन्द्रा और एक्टर भारत भूषण ने उनकी काफी मदद की।

राही के दोस्त कृश्न चन्दर, साहिर लुधियानवी, राजिंदर सिंह बेदी और कैफी आज़मी ने उन्हें फिल्मों में संवाद और स्क्रिप्ट लिखने की सलाह दी। बहरहाल फिल्मों में उन्होंने जो एक बार रुख किया, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। फिल्में उनकी रोजी-रोटी का जरिया थीं, तो साहित्यिक-रचनात्मक लेखन से उन्हें दिली खुशी मिलती थी। यह बात वाकई दिलचस्पी जगाती है कि ‘आधा गांव’ के अलावा उनके सारे उपन्यास मुंबई में ही लिखे गए। संघर्षकाल में उनकी मदद करने वालों में हिंदी के बड़े साहित्यकार धर्मवीर भारती भी थे। उनके सम्पादन में निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ के लिए राही ने निरंतर स्तम्भ लेखन का कार्य किया।

राही मासूम रजा ने अपने ढाई दशक के फिल्मी जीवन में तकरीबन 300 फिल्मों की पटकथा, संवाद लिखे। जिनमें उनकी कुछ कामयाब फिल्में हैं-‘बैराग’, ‘जुदाई’, ‘सगीना’, ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’, ‘अंधा कानून’, ‘सरगम’, ‘जूली’, ‘मिली’, ‘कर्ज’, ‘डिस्को डांसर’, ‘गोलमाल’, ‘हम पांच’, ‘कल की आवाज’, ‘तवायफ’, ‘निकाह’। उन्हें संवाद और पटकथा के लिए तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला। हिंदी फिल्मों में अपने लेखन से वे किसी मुगालते में नहीं थे। बड़े ही साफगोई से उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा था,‘‘फिल्म में लेखन की कोई अहम भूमिका नहीं होती।

फिर भी मैं अपनी बात कहने के लिए, फिल्म का कुछ हाशिया लेता हूं।’’ मुल्क के आम आदमियों में राही मासूम रजा की पहचान, दूरदर्शन के प्रसिद्ध धारावाहिक ‘महाभारत’ में लिखे गये उनके संवाद और पटकथा से हुई। सीरियल के डायलॉग ने उन्हें घर-घर में मशहूर कर दिया। महाभारत की इस बेशुमार कामयाबी के पीछे उनका गहन अध्ययन था। इस धारावाहिक को लिखने के लिए उन्होंने काफी मेहनत कर तथ्य इकट्ठा किए थे। जिस ‘महाभारत’ ने राही मासूम रजा को देश-दुनिया में इतनी शोहरत दी, इस सीरियल की स्क्रिप्ट राईटिंग और डायलॉग लिखने के पीछे भी एक दिलचस्प किस्सा है।

जब इस सीरियल को बनाने का ख्याल आया, तो डायरेक्टर बी. आर. चोपड़ा ने अपने पसंदीदा स्क्रिप्ट राईटर के सामने इसकी स्क्रिप्ट और डायलॉग लिखने का प्रस्ताव रखा। राही मासूम रजा, उस वक्त फिल्मों में बहुत मशरूफ थे। लिहाजा उन्होंने यह पेशकश ठुकरा दी। बावजूद इसके बी. आर. चोपड़ा ने मीडिया में यह जाहिर कर दिया कि सीरियल की स्क्रिप्ट और डायलॉग राही मासूम रजा लिखेंगे। मीडिया में जब यह बात आई, तो हंगामा मच गया। सीरियल के लिए चोपड़ा ने एक ‘मुस्लिम’ राही का चुनाव क्यों किया ?, इस बात के खिलाफ उनके पास बहुत सारे खत आए। चोपड़ा ने यह खत राही के पास भेज दिए। इनको पढ़ने के बाद, राही ने बीआर चोपड़ा को तुरंत फोन लगाकर, अपने इस फैसले की जानकारी दी,‘‘चोपड़ा साहब, ‘महाभारत’ अब मैं ही लिखूंगा। मैं गंगा का बेटा हूं, मुझसे ज्यादा हिंदुस्तान की सभ्यता और संस्कृति को कौन जानता है ?’’ इतिहास गवाह है, ‘महाभारत’ सीरियल जितना कामयाब हुआ, उसकी कामयाबी के पीछे स्क्रिप्ट और डायलॉग का भी बड़ा रोल था।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. राही मासूम रजा के लेखन में यद्यपि वैचारिक प्रतिबद्धता, पक्षधरता साफ झलकती है, मगर इस प्रतिबद्धता ने कभी वैचारिक कठमुल्लापन का रूप नहीं लिया। कम्युनिस्ट पार्टी की गलत नीतियों का उन्होंने हमेशा विरोध किया। केरल में कम्युनिस्ट पार्टी ने जब मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन किया, तो राही ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। साल 1962 में चीनी आक्रमण के समय जब पार्टी इस पशोपेश में थी कि वह एक समाजवादी देश का साथ दे या अपने मुल्क के संघर्ष में भागीदार हो, तब राही ने चीनी आक्रमण की पुरजोर मुखालफत की। राही का इस मुद्दे पर ख्याल था,‘‘चीनी शासकों ने कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीयता का सिद्धांत ताक पर रख दिया है। वे अपने राष्ट्रीय स्वार्थों को सर्वोपरि मान रहे हैं।’’ बहरहाल राष्ट्रीयता-अन्तर्राष्ट्रीयता के सवाल पर साल 1964 में कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन हो गया।

भारत-पाक बंटवारे के घाव अभी हरे थे। वे अभी तक भर भी नहीं पाए थे कि पार्टी के इस आकस्मिक बंटवारे ने राही को बहुत बड़ा सदमा पहुंचाया। बंटवारे के बाद राही किसी भी पार्टी में नहीं गए। वे इस बंटवारे को हिंदुस्तान के वामपंथी और जनतांत्रिक मूल्यों की त्रासदी मानते थे। इतिहास गवाह है कि इस बंटवारे के असर से देश में प्रतिक्रियावादी, साम्प्रदायिक शक्तियां मजबूत हुईं और कुछ ही अरसे में उन्होंने अपने आपको कांग्रेस के राजनैतिक विकल्प के रूप में पेश किया। लिहाजा साल 1964 की उस ऐतिहासिक भूल की भरपाई आज भी कम्युनिस्ट पार्टी नहीं कर पाई है। उत्तर भारत में जहां जातिवादी, साम्प्रदायिक पार्टियां उत्तरोत्तर मजबूत होती गईं, वहीं वामपंथी राजनीति आज कमजोर हुई है।

हिन्दी-उर्दू दोनों ही जबानों में अधिकार के साथ लिखने वाले राही उर्दू जबान के शायर थे, तो हिन्दी के उपन्यासकार। उर्दू जबान को फरोग करने के लिए देवनागरी लिपि अपनाने की उन्होंने खुलकर वकालत की। लेकिन उर्दू का रस्मुलखत बिल्कुल से छोड़ दिया जाये, वे इसके खिलाफ थे। उनके उपन्यास ‘आधा गांव’ को देखें, तो उसमें अवधी मिश्रित हिन्दी-उर्दू जबान का जमकर इस्तेमाल हुआ है। इस बात से यह एहसास होता है कि वे किसी भाषा की शर्त पर क्षेत्रीय बोली या दूसरी भाषा की कुर्बानी के हामी नहीं थे। उपन्यासों में राही का नरेशन अद्भुत हैं। जिसमें नरेशन की भाषा अलग तथा किरदारों की भाषा बिल्कुल अलग होती थी। जहां तक भाषाई-शुद्धता का सवाल है, राही भाषाई-शुद्धता पर एक जगह लिखते हैं कि‘‘ज़मीन को जमीन लिख देने से उसके मायने नहीं बदल जाते।’’

वामपंथी विचारधारा के हिमायती राही मासूम रजा का सपना हिंदुस्तान को एक समाजवादी मुल्क में साकार होता देखना था। लेकिन समाजवाद का मॉडल कैसा हो, उसमें कितने कारक काम करेंगे और किस तरह से अपने कामों को सर अंजाम देंगे ? उनके मुताबिक ‘‘यह सारी की सारी प्रक्रिया पूरी तरह से हिंदुस्तानी परिस्थितियों के अनुरूप होना चाहिए, नहीं तो भटकाव-टूटन होना स्वाभाविक है।’’ उपन्यास ‘कटरा बी आर्जू’ में अपने किरदार के मार्फत कहलवाया गया उनका यह संवाद हिंदुस्तान की मौजूदा परिस्थितियों में प्रासंगिक जान पड़ता है,‘‘सोश्ल-इज्म के आए में बहुत देरी हो रही है। सोश्ल-इज्म में यही तो डबल खराबी है कि फारेन में नहीं बन सकती। कपड़े की तरह बदन की नाप की काटे को पड़ती है।’’ 15 मार्च, 1992 को मुंबई में डॉ. राही मासूम रजा ने अपनी आखिरी सांस ली। जुदा राह का यह राही, उस डगर पर निकल गया, जहां से कोई वापस अपने घर लौटकर नहीं आता।

(मध्यप्रदेश निवासी लेखक-पत्रकार जाहिद खान, ‘आजाद हिंदुस्तान में मुसलमान’ और ‘तरक्कीपसंद तहरीक के हमसफर’ समेत पांच किताबों के लेखक हैं।)

ज़ाहिद खान
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