स्मृति शेष:लेखक और पत्रकार राजकुमार केसवानी, जिनकी तमाम तहरीर में हिंदोस्तानी तहज़ीब झलकती थी

राजकुमार केसवानी से मेरा पहला तआरुफ़ उनके वीकली कॉलम ‘आपस की बात’ के मार्फ़त हुआ, जो मध्य प्रदेश के एक रोज़नामा अखबार में साल 2007 से रेगुलर आता था। इस कॉलम में उनके हिंदी फिल्मों का काबिल-ए-तारीफ़ इल्म, हिंदी-उर्दू से इतर हिंदुस्तानी ज़बान और किस्सागोई का अंदाज मुझे ही नहीं, उनके लाखों चाहने वालों को लुभाता था। पाठक उनके कॉलम का हफ्ते भर बेसब्री से इंतज़ार करते थे। जिसमें मैं भी शामिल था। राजकुमार केसवानी की एक और बड़ी पहचान थी, एक्टिविस्ट जर्नलिस्ट की। साल 1984 में 2-3 दिसम्बर की दरमियानी रात में भोपाल के अंदर जो गैस त्रासदी पेश आई, राजकुमार केसवानी देश के ऐसे पहले पत्रकार थे, जिन्होंने अपने छोटे से अखबार ‘रपट’ में अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड की लापरवाहियों और उनके संभावित खतरों पर एक से अधिक बार खबरें छापीं।

वे बार-बार सूबाई सरकार को इस बात के लिए आगाह करते रहे कि कीटनाशक का यह जहरीला कारखाना किसी रोज़ शहर को तबाही में धकेल सकता है। अफसोस, उनकी इन खबरों का न तो कोई नोटिस लिया गया और न ही किसी पड़ताल की ज़रूरत समझी गयी। जिसका नतीजा, यह निकला कि दुनिया की सबसे बड़ी मानव निर्मित त्रासदी भोपाल में पेश आई। जिसमें उस वक्त तीन हजार से ज्यादा लोगों की ख़तरनाक गैस से दम घुटकर मौत हुई और आज भी इस गैस के बुरे नतीजे मुकामी बाशिंदे भुगत रहे हैं।

बहरहाल, इस दर्दनाक वाकिये के बाद राजकुमार केसवानी की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया मे खूब चर्चा हुई। यहां तक कि ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने राजकुमार केसवानी की बाय-लाईन के साथ उनकी रिपोर्ट अपने अखबार के पहले पन्ने पर छापी। यह बात भी सनद रहे कि मशहूर पत्रकार बीजी वर्गीज़ ने कालजयी रिपोर्टिंग की चुनिंदा मिसाल लेकर जब एक किताब निकाली, तो उसमें केसवानी भी शामिल थे। साल 2004 में ‘कैनेडियन ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन’ और ‘व्हाइट पाईन पिक्चर्स’ ने पत्रकारिता में उनके अवदान को रेखांकित करती एक शानदार डॉक्यूमेंट्री ‘भोपाल-द सर्च फॉर जस्टिस’ बनाई। जिसमें केसवानी की ही ज्यादातर चर्चा है।

अपनी साहसिक और जन सरोकार से सराबोर पत्रकारिता के लिए राजकुमार केसवानी अनेक पुरस्कारों से नवाज़े गए। जिसमें साल 1985 में श्रेष्ठ पत्रकारिता के लिए ‘बीडी गोयनका अवॉर्ड’, तो साल 2010 मे पर्यावरण पर रिपोर्टिंग के लिए प्रतिष्ठित ‘प्रेम भाटिया जर्नलिज़्म अवॉर्ड’ खास तौर से शामिल हैं। इसके अलावा पेंगविन द्वारा प्रकाशित अंग्रेज़ी किताब ‘ब्रेकिंग द बिग स्टोरी’ में वे प्रथम अध्याय के लेखक हैं। राजकुमार केसवानी की एक और बड़ी उपलब्धि, साल 2008 में एशिया के 15 चुनिंदा पत्रकारों में चयन होना था।

26 नवम्बर, 1950 में भोपाल के पुराने इलाके इतवारा में पैदा हुए राजकुमार केसवानी हमेशा अपने सीने से भोपाल की तहज़ीब को लगाए रहे। वे शहर के उन गिने-चुने लोगों में शामिल थे, जिनकी तमाम तहरीर में भोपाल की तहज़ीब झलकती थी। अपने लेखन से उन्होंने मुसलसल इस तहज़ीब को आगे बढ़ाया। बर्रुकट भोपालियों में उनकी गिनती होती थी। भोपाल का चप्पा-चप्पा उनका देखा हुआ था। राजकुमार केसवानी का परिवार आज़ादी के बाद हुए मुल्क़ के बंटवारे में पाकिस्तान के सिंध से हिंदुस्तान आया था। उनके वालिद लक्ष्मण दास केसवानी की आज़ादी की तहरीक में तो हिस्सेदारी रही ही, बाद में पत्रकारिता के जरिए उन्होंने मुल्क़ और मुआशरे की ख़िदमत की। लक्ष्मण दास केसवानी ने अपनी मादरी ज़बान सिंधी में एक वीकली अखबार ‘चैलेंज’’ निकाला, जो आज भी बदस्तूर छप रहा है। जाहिर है कि घर में पढ़ाई-लिखाई के माहौल से राजकुमार केसवानी के अंदर भी यह शौक पैदा हुआ। साहित्यिक और सांस्कृतिक अभिरूचियां उनमें शुरू से ही थीं।

खास तौर से हिंदोस्तानी संगीत, हिंदी फिल्मों और उसके गीत-संगीत से उनके लगाव की कोई इंतिहा नहीं थी। उनके पास शास्त्रीय, फ़िल्मी संगीत सहित दुनिया-जहान के संगीत रिकॉर्ड का अनमोल खजाना था। तीस हजार से ज्यादा रिकॉर्ड उनके पास मौजूद थे। जिसमें अपने जमाने की मशहूर गायिका गौहर जान का गाया मुल्क का पहला रिकॉर्ड, जो कि साल 1903 में रिकार्ड हुआ, वह भी सही सलामत था। इसके अलावा और भी अनेक दुर्लभ चीज़ों को सहेजने के वे शौकीन थे। हिंदी, उर्दू, सिंधी और अंग्रेजी जबान पर उनका समान अधिकार था। इन चारों ही जबानों में उन्होंने खूब लिखा। उन्होंने अपने लेखन से हिंदी—उर्दू ज़बान के बीच मजबूत पुल कायम किया।

भोपाल के सेफ़िया कॉलेज से अपनी आला तालीम पूरी करने के बाद राजकुमार केसवानी पूरी तरह से पत्रकारिता में आ गए। जर्नलिज्म की इब्तिदा ‘स्पोर्ट्स टाईम्स’ के सह संपादक के तौर पर हुई। बाद में अपना खुद का एक वीकली अखबार ‘रपट’ निकाला। राजकुमार केसवानी ने पत्रकारिता के अपने लंबे सफर में भोपाल के छोटे-बड़े अखबारों से लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अखबारों जैसे न्यूयार्क टाइम्स, द इलस्ट्रेटेड वीकली, संडे, द संडे आब्ज़र्वर, इंडिया टुडे, आउटलुक, इकॉनमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, इंडियन एक्सप्रेस, जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, दिनमान, न्यूज टाइम, ट्रिब्यून, द वीक, द एशियन एज और द इंडिपेंडन्ट वगैरह नामी—गिरामी अखबार व मैगजीन से विभिन्न रूप से जुड़े रहे। साल 1998 से 2003 तक वे एनडीटीवी के मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के ब्यूरो प्रमुख रहे। उन्होंने अपनी आखिरी नौकरी भास्कर समूह में की। बीते एक दशक से राजकुमार केसवानी ने अपने आप को साहित्यिक पत्रकारिता और दीगर लेखन में ही महदूद कर लिया था। जिसका नतीजा उनकी हाल ही में आईं दो अहमतरीन किताबें ‘दास्तान-ए-मुगल-ए-आजम’ और ‘कशकोल’ हैं।

किताब ‘दास्तान-ए-मुगल-ए-आजम’ आई, तो मेरी चाहत भी इस किताब के जानिब जागी। लेकिन किताब के महंगे दाम को देखकर, मंगवा नहीं पाया। मेरे अलावा इस किताब में एक अजीज दोस्त की भी खा़सी दिलचस्पी थी, पर इसे मंगाने की उनकी भी हिम्मत नहीं हुई। बात हुई, तो उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘केसवानी साहब से बात करके, किताब का पेपरबैक संस्करण कब आएगा ?, मालूम करो।’’ केसवानी जी को मोबाइल लगाया और सबसे अव्वल ‘दास्तान-ए-मुगल-ए-आजम’ के लिए उन्हें मुबारकबाद दी। बाद में उनसे दरयाफ़्त किया, ‘‘किताब काफी महंगी है। इसका पेपरबैक संस्करण कब आ रहा है ?’’ मेरे सवाल के ज़वाब में उनकी कैफ़ियत थी, ‘‘किताब का सैटअप कुछ इस तरह से है कि पेपरबैक संस्करण लाने में फिलहाल दिक्कत है। किताब में शामिल रंगीन तस्वीरों की वजह से ये और भी मुश्किल है।

बाकी यह प्रकाशक का मौजू़ है कि वह इसे कब पेपरबैक में लाता है ?’’ केसवानी साहब के साथ इस मुख्तसर सी बातचीत के बाद, किताब खरीदने का ख्याल मुल्तवी हो गया। लेकिन कुछ दिन ही गुज़रे होंगे कि एक रोज दोस्त का मोबाइल आया, ‘‘‘दास्तान-ए-मुगल-ए-आजम’ उनके पास आ गई है।’’ मैंने उनसे पूछा, ‘‘कैसे ?’’ उन्होंने बतलाया, ‘‘इंदौर के उनके एक दोस्त ने उन्हें गिफ्ट में भेजी है।’’ यह बात सुनकर, किताब के जानिब मेरी बेसब्री ने जवाब दे दिया और उनसे कहा कि ‘‘पहले ये किताब मैं पढ़ूंगा।’’ मैंने किताब दो दिन में पढ़कर, इसका तफ्सिरा भी लिख दिया। जो एक के बाद एक कई जगह छपा। जो भी कहीं छपता, वह मैं राजकुमार केसवानी जी को व्हाट्सएप कर देता। एक रोज उनका मुख्तसर सा जवाब आया, ‘‘कितनी जगह छपवा दिया ? शुक्रिया।’’

थोड़ी सी बातचीत के बाद मैंने उनसे कहा, ‘‘अलबत्ता किताब अभी तक मेरे पास नहीं है..’’ मेरी इस बात को वे फौरन समझ गए और कहा, ‘‘कोशिश में हूं। फ़िक्र मत करो।’’ उसके बाद उन्होंने मेरा एड्रेस मांगा। इस बातचीत के डेढ़ महीने बाद, कोरियर से एक पैकेट मेरे पास पहुंचा। पैकेट खोला, तो उसमें ‘दास्तान-ए-मुगल-ए-आजम’ के अलावा उनकी दूसरी किताब ‘कशकोल’ भी मिली। मैंने उन्हें तुरंत व्हाट्सएप पर दिली शुक्रिया देते हुए कहा, ‘‘‘दास्तान-ए-मुगल-ए-आजम’ का मुंतज़िर था, ‘कशकोल’ भी आ गई।’’ ये उनकी मुहब्बत और शफ़कत नहीं, तो और क्या थी कि मेरे एक छोटे से इशारे पर उन्होंने अपनी दोनों कीमती किताबें मुझे तोहफे में भिजवा दीं। जिसके लिए मैं हमेशा उनका ममनून रहूंगा।

राजकुमार केसवानी कवि और कहानीकार भी थे, यह बहुत कम लोग जानते हैं। ‘बाकी बचे जो’ (साल-2006) और ‘सातवां दरवाजा’ (साल-2007) उनके कविता संग्रह हैं, तो वहीं 13वीं सदी के अज़ीम सूफ़ी दरवेश-शायर मौलाना जलालउद्दीन रूमी की फ़ारसी ग़ज़लों का उन्होंने शानदार हिंदोस्तानी ज़बान में अनुवाद ‘जहान-ए-रूमी’ (साल-2008) किया है। राजकुमार केसवानी का एक और अहम कारनामा हिंदी साहित्य की मशहूर लघु पत्रिका ‘पहल’ में कथाकार ज्ञानरंजन के साथ संपादन की जिम्मेदारी संभालना था। उन्होंने न सिर्फ 90 अंकों के बाद बंद पड़ी ‘पहल’ के दोबारा प्रकाशन की आगे आकर पहल की, बल्कि इस मैगजीन के आखिरी नंबर 125 तक उनका साथ दिया। राजकुमार केसवानी की उर्दू ज़बान से मुहब्बत जग जाहिर थी। यही वजह है कि जब वे पहल से जुड़े, तो उन्होंने ‘उर्दू रजिस्टर’ टाइटल से एक स्तम्भ लिखना शुरू किया। जो इसके आखिरी अंक तक जारी रहा। उनका यह स्तम्भ ‘आपस की बात’ की तरह ही मक़बूल हुआ। जिसमें उन्होंने उर्दू अदब के अनेक नामवर लोगों पर दिल से लिखा।

अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब ‘पहल’ के आखिरी नंबर में संपादक-कथाकार ज्ञानरंजन ने मैगजीन में राजकुमार केसवानी के योगदान को याद करते हुए, उनकी शख्सियत के मुताल्लिक यह अहम बातें कही थीं, ‘‘वे नैतिक रूप से कठिन, बेहद मानवीय और एक छुपे हुए लेखक हैं। उर्दू रजिस्टर की कल्पना, योजना उन्हीं की थी, जिससे ‘पहल’ की एक बड़ी कमी पूरी हुई। राजकुमार का कलश भरा हुआ है और वह दुर्लभ है। इसको रचनावली में परिवर्तित करने के लिए स्वयं उन्हें कई जीवन लगेंगे। लेकिन उन्होंने ‘पहल’ को गहरी प्राथमिकता के साथ अपना सर्वोत्तम दिया। जब कि वे एक पुरस्कृत पत्रकार हैं और उनका जीवन परिचय विरल है। राजसत्ता में गहरी पैठ के बावजूद उनकी स्वतंत्रता जानी मानी है और अभी भी वे पूरी तरह श्रमजीवी हैं।’’

कथाकार ज्ञानरंजन की इस बात से शायद ही कोई नाइत्तेफ़ाकी जताए कि मध्य प्रदेश में हर हुकूमत और सूबे की दोनों बड़ी पार्टियों के अहम लीडरों से अच्छे मरासिम होने के बाद भी उन्होंने कभी इसका ज़ाती फायदा नहीं उठाया। अपनी जर्नलिज्म और ख्यालों में वे आजा़द ही रहे। न किसी के दबाव में आए और न ही किसी के पिछलग्गू बने। राजकुमार केसवानी अप्रैल महीने की शुरुआत में कोरोना से संक्रमित हुए। 21 मई को अचानक यह मनहूस खबर आई कि इस महामारी ने उन्हें हमसे हमेशा के लिए छीन लिया है। ‘पहल पत्रिका’ फेसबुक पेज पर उन्होंने 6 अप्रैल को अपनी आखिरी पोस्ट लगाई थी। पोस्ट, ‘पहल’ के 125वें अंक से मुताल्लिक थी। जिसमें उन्होंने अपनी पोस्ट इस फलसफियाना अंदाज में मुकम्मल की थी, ‘‘हर कहानी का अंत होता है, लेकिन कहानी कभी ख़त्म नहीं होती।

मनुष्य का पुनर्जन्म का सिद्धांत अब तक मात्र एक विचार है लेकिन कहानी के संदर्भ में यह एक स्थापित सत्य है। हर पुरानी कहानी नए संदर्भों में, नए देश-काल में, नए नाम और नए रंग-रूप में जन्म लेती रहती है। किसी कुम्हार के घड़े की तरह। मिट्टी वही लेकिन टूटकर बिखरकर भी बन जाती है। कभी घड़ा, कभी कटोरा और कभी प्याला।’’ राजकुमार केसवानी की कहानी का भले ही अंत हो गया हो, लेकिन उनसे जुड़े अफ़साने कभी ख़त्म नहीं होंगे। नए संदर्भों और नए रंग-रूप में वे बार-बार याद किए जाएंगे।

(जाहिद खान वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और समीक्षक हैं आप आजकल एमपी के शिवपुरी में रहते हैं।)

ज़ाहिद खान
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