अजय सिंह की कविताएं पढ़ते हुए

अपनी बात शुरू करने से पहले एक बात मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि कविता की समीक्षा/आलोचना करने का इरादा/सामर्थ्य मुझ में नहीं है। वैसे कविताएं सुनना-पढ़ना मुझे अच्छा लगता है। यह लत मुझे होश संभालते ही लग गई थी। यूं कह लें एक कविता ने होश संभालने से पहले ही मेरे होश उड़ा दिए थे। गली में एक अमिट जादुई मुस्कान होंठों पे लिए पतला-दुबला सा बूढ़ा फकीर इकतारा लेकर आता था। इकतारा बजाते हुए वह नाचता था, शहद-सी मीठी आवाज़ में लोकगीत, बाउलगीत गाता था, कविताएं सुनाता था।

वह गाता:

ओ री ओ नोनोदी, आर दू मूठी चाल फेले दे हांड़ी ते,

ठाकुर जामाई एले बाड़ी ते,,,

हम बच्चे उसके साथ-साथ गाते-नाचते। दोनों हथेलियां जोड़कर वह भिक्षा लेता, नाचता-गाता चला जाता।

फ़िर एक दिन उसने कविता सुनाई:

“आमी बिद्रोही,

…………………….

आमी भोगवाने बूके पा दिए

एंके दीबो पोदोचिन्हो,,,

,,, ,,, ,,, ,,, ,,,”

एक विस्फोट हुआ, जिसकी गूंज चारों कूटों में फैल गई। और फ़िर सन्नाटा पसर गया। सब कुछ ठहर गया। तब तक हमने बड़े-बुज़ुर्गों को हर साँस का मोती, रब के नाम की माला में ही पिरोते देखा था। उस दिन पहली बार हाड़-मांस के साधारण से दिखने वाले एक बुज़ुर्ग का विद्रोही रूप देखा था, जो उस ‘सर्वशक्तिमान’ को ‘टिच्च’ ही समझता था और जो तौबा के टांकों से उस ख़ुदा का लिबास सीने के लिए तैयार नहीं था, जिसके सामने सारी दुनिया सज़दा करती थी।

वह फ़क़ीर जो गा रहा था, वो क़ाज़ी के बोल थे, क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम। तब मुझे पता नहीं था। मैं तो समझा था, फ़क़ीर जो वो गा रहा है, उसी के बोल हैं। बाद में पता चला। जब पता चला तो यह नाफ़रमान शायर-कवि लोग अच्छे लगने लगे। फ़िर सोहबत होने लगी। कुछ मेरे पास आ जाते, कुछेक के पास मैं चला जाता। आज यह बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि मैं उन ‘रईसज़ादों’ में से एक हूँ, जिसके लगभग सभी दोस्त ‘कॉमरेड-कवि’ हैं/थे। कुछ हाकिमों ने मार दिए, कुछ फिरकापरस्तों की गोलियों का शिकार हो गए। कुछ महामारियों की चपेट में आ गए और कुछेक ने अपनी कविता से कहीं अधिक शक्ति के साथ अपना अंत किया। हरेक अंत के पीछे एक वजह थी, कोई बेवजह नहीं मारा गया। पर जिन्होंने आख़िरी साँस तक हौसले की मश्क में मोहब्बत का पानी भरे रखा और नाउम्मीदियों को शिकस्त देकर नाफ़रमान शायरी ईज़ाद की।

अब जो बच रहे हैं, उनमे से एक कॉमरेड-कवि हैं- अजय सिंह। उनकी कविताओं का एक संग्रह आया है: ‘यह स्मृति को बचाने का वक़्त है’। इसमें शामिल कवितायेँ ख़ुद-ब-ख़ुद अपनी बात कहती हैं। वह राष्ट्रभक्ति के डंडे पर फड़कती कविताओं के कवितानुमा ढांचे को अपनी सीधी, प्रत्यक्ष और एक हद तक अकाव्यात्मक-सी लगने वाली सच्चाइयों से तोड़ते हैं, यही नाफ़रमान शायरी की एक ख़ास खसलत और खुशबू रही है।

इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि पाश, गोरख, जयमल और वह तमाम कॉमरेड-कवि कहीं नहीं गए, अभी भी हमारे बीच ही हैं। जब सब कुछ अविश्वसनीय गति से ख़त्म हो रहा हो तो अजय सिंह कुछ ‘बेशकीमती’ बचा लिए जाने की बात करते हैं-

“यही वो वक़्त है

जब ज़िन्दा रहने  आगे लड़ने के लिए

नए प्रेम की संभावना

तलाशी जाए

और पुराने सभी प्रेमों को

पुनर्जीवित किया जाये

प्रेम करने का सिलसिला

बिना रुके जारी रहना चाहिए

यही चीज़ हमें बचाएगी

हमारी स्मृति को बचाएगी”

अजय सिंह की कविता मुझे/आपको क्यों अच्छी लगती है? वो हर कविता जो मेरे और आपके ‘मन की बात’ करती है, मुझे/आपको अच्छी लगती हैं। अजय सिंह अपनी कविता में हमारी इस समकालीन दुनिया की अमानवीयता, हिंसा, परपीड़न या यो कहें परपीड़ा-सुख, संवेदनहीनता, संताप, भय, आतंक आदि की बात करते हुए इन्हीं के समकक्ष निरंतर मंद पड़ती मानवीय जिजीविषा के साथ-साथ संघर्षशीलता के अभाव और लाचारगी को अपनी कविताओं में बड़ी साफगोई से हमारे सामने रखते हैं। इसी संग्रह में भारत में लोकतान्त्रिक व्यवस्था और उसके नष्ट होते मूल्यों को बयां करती, उनकी एक कविता है- ‘दो हत्यारे संविधान-सम्मत, और वामपंथ’:

‘एक हत्यारा

प्रधानमन्त्री बना है

दोबारा

एक और हत्यारा

जो जेल में था

बाद में जिसे तड़ीपार किया गया था

बना है गृहमंत्री

यह धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक समाजवादी संविधान की

महान सफलता है

दोनों हत्यारे एक-दूसरे को आँख मारते

मुस्कियों का आदान-प्रदान करते

संविधान और देश को बचाने की

क़सम खा रहे हैं

वे कह रहे हैं

हम जनता को

सुरक्षा और विकास देंगे

दोनों संकल्प ले रहे हैं

हम देश को नए सिरे से

सुंदर  भव्य  क़त्लगाह बनायेंगे ….’

यह हमारे समय का सबसे कड़वा सच है। कविता को पढ़ते ही हॉवर्ड जिन याद आते हैं, जिन्होंने अपने समय के हाकिमों के लिए कभी कहा था, “जिन्हें कैदखानों में होना चाहिए, वो तख़्त पर बैठे हैं और जिन्हें तख़्त पर होना चाहिए, वो कैदखानों में बंद हैं।”

मंगलेश डबराल ने विदा होने से पहले यह कवितायेँ पढ़ी थीं और अपनी प्रतिक्रिया भी ज़ाहिर की थी। जिसमें वह कहते हैं, “…वामपंथ को लेकर जो बहस अजय सिंह करते हैं, दलित और अंबेडकर उसमें मौजूद हैं। अंबेडकरवाद और मार्क्सवाद में बहुत ज्यादा एकता स्थापित करने की जो कोशिशें हुई हैं, वे विफल हुई हैं। मानो, वहाँ इतिहास आकर कहता है मैं वापस आ जाऊंगा, कितनी अनदेखी कीजिए। तो जब इतिहास लौट-लौटकर आता है, आज़ादी से पहले का, आज़ादी के तुरंत बाद का… मार्क्सवाद और अंबेडकरवाद में जो बाईनेरीज़ खड़ी कर दी हैं (दोनों की जोड़ी बना दी है) तो उसको बाँटना उस इतिहास के कारण मुश्किल है।उसको कैसे बाँटा जाये, यह बहुत बड़ा सवाल है। मेरा भी मानना है कि इस देश में मार्क्सवाद, अंबेडकरवाद, नारीवाद तीनों एक नहीं होंगे, तब तक कोई भी बुनियादी बदलाव असंभव है”।

मंगलेश की राय जानकर ऐसा लगता है कि एक कवि, दूसरे कवि के बारे में जब अपने ख़याल रखता है तो सयानी बातें ही करता है। जैसे महाकवि शमशेर कहते हैं कि रघुवीर सहाय में सादगी है, ‘एक निरस्त्र करने वाली सादगी’ और इसके साथ ‘एक साहसिकता, संकोच का दामन थामे हुए….’। अजय सिंह के यहाँ साहसिकता तो है, किसी तरह संकोच नहीं है, मंटो जैसा खुलापन है। अजय सिंह ने अपनी कविता में सन्दर्भों और घटनाओं की जिस अंदाज़ में प्रत्यक्षता रची है, वह ‘कला के ह्रास’ से क्षुब्ध हमारी विश्वविद्यालीन आलोचना की दृष्टि में ‘अनुशासनहीन’ या ‘लाऊड’ हो सकती है। पाश की हत्या से पहले कई दिग्गज उनकी कविताओं के बारे में भी यही राय रखते थे। ब्रेख्त और पाश जैसों की तरह अजय सिंह भी विचारों को ही सर्वाधिक महत्त्व देते हैं, माध्यम के सुस्थापित और सर्वप्रशंसित स्वरुप को नहीं। 

इससे पहले भी 2015 में अजय सिंह का एक कविता संग्रह ‘राष्ट्रपति भवन में सूअर’ नाम से प्रकाशित हो चुका है। इस संग्रह में शामिल कवितायेँ भी नाफ़रमान शायरी की एक खूबसूरत मिसाल हैं। नाफ़रमान शायर की कलम भी वहीँ करती है जो नाफ़रमान विद्रोही की बन्दूक करती है। बन्दूक बगावत को दिशा देती है, शायरी सोच को।      

समंदर के लिए लहर लाज़मी हैं और बन्दे के लिए ज़मीर। असहमति का हौसला भी उन्हीं शायरों  में बाकी है, जिनका ज़मीर अभी ज़िन्दा है। आम लोहे में और तपे हुए लोहे में बड़ा फ़र्क होता है। आम लोहे पर हथौड़ा पड़े तो आवाज़ दूर तक जाती है, पर भठ्ठी में तपा हुआ लोहा हथोड़े की चोट और आवाज़ को अपने अन्दर समेट लेता है। अजय सिंह जैसे कॉमरेड-कवि भी ऐसे ही तपे हुए लोहे जैसी शै हैं। यह ज़मीर से ज्यादा जागे हुए समर्थ रचनाकार अपनी रूह के दरवाज़े पर दस्तक देकर खुद अपना ही नाम पूछते नज़र आते हैं। इनकी नज़्मों के साथ कुछ समां जरूर बसर करना चाहिए। आस की साँसें चलती रहती हैं। 

चलते-चलते अजय सिंह के काव्य-संग्रह ‘यह स्मृति को बचाने का वक़्त है’ को हाथ में लेते ही कुमार अंबुज की एक नन्हीं सी कविता ‘स्मृति की नदी’ याद आती है:

वह दूर से आती है गिरती है वेग से

उसी से चलती हैं जीवन की पनचक्कियाँ।

(देवेंद्र पाल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल पंजाब में रहते हैं।)

देवेंद्र पाल
Published by
देवेंद्र पाल