यूथ फॉर हिमालय 2024 में ‘भाखा बहता नीर’ का विमोचन

कांगड़ा। समस्त हिमालयी राज्यों के पर्यावरणवादी समूह यूथ फॉर हिमालय की संभावना संस्थान पालमपुर में आयोजित एक कार्यशाला में हिमाचल प्रदेश आधारित लेखक गगनदीप सिंह की पुस्तक पहाड़ी भाषाओं के विकास की चुनौतियां, भाखा बहता नीर का विमोचन किया गया। इस कार्यक्रम में हिमाचल प्रदेश, उतराखंड, जम्मू, कश्मीर, सिक्किम, मणिपुर, अरुणांचल प्रदेश के पर्यावरणवादी कार्यकर्ता मौजूद थे।

अपनी पुस्तक में गगनदीप सिंह के द्वारा बहुत ही बेबाकी के साथ व्यवस्थित रूप से पहाड़ी भाषाओं के साथ किये जा रहे भेदभाव को उजागर किया है और इस बात को रेखांकित किया है कि जिस तरह से औपनिवेशिक ताकतों ने देश ही अन्य भाषाओं के साथ भेदभाव किया, उनके विकास के मौकों को अवरुद्ध किया और व्यवस्थित रूप से कुछ भाषाओं और खासकर अंग्रेजी और हिंदी को थोपा गया, इस से पहाड़ी भाषी समाजों के इतिहास और विकास के साथ भी खिलवाड़ किया गया है। पुस्तक इस बात को भी लगातार रेखांकित करती है कि खासतौर से अंग्रेजी और हिंदी के वर्चस्व के कारण आजादी के बाद देश भाषाओं की कब्रगाह बन गया है। गगनदीप ने इससे पहले सुकेत रियासत के विद्रोह नाम से भी पहाड़ी जनता के सामंती राजाओं के खिलाफ हुए संघर्षों पर पुस्तक लिखी थी जिसके तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।

पुस्तक का विमोचन करते हुए यूथ फॉर हिमालय के सुमित और अनमोल और फातिमा ने गगनदीप सिंह को बधाई देते हुए कहा कि पश्चिमी पहाड़ी भाषाओं पर केंद्रित यह किताब हिमाचल में पहाड़ी भाषाओं के संरक्षण के लिए कार्य कर रहे लोगों के लिए बेहद जरूरी किताब है और हिमालय के अन्य राज्यों की मातृभाषाओं के समस्त आ रही चुनौतियों पर भी इस तरह के लेखन की जरूरत है। मातृभाषाएं ज्ञान की पहली स्रोत होती हैं, मातृभाषाओं में इतिहास, संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपराएं जुड़ी होती हैं। अगर कोई भाषा खत्म होती है तो उसके साथ उपरोक्त सारी विरासत भी धराशायी हो जाती हैं।

विमोचन के समय संभावना संस्थान और यूथ फॉर हिमालय से जुड़ी फातिमा का कहना था कि हिमालय में बसे छोटे-छोटे समुदायों की भाषाएं लंबे समय से चुनौतियों का सामना कर रही हैं। स्कूलों और घरों में पढ़े-लिखे लोग भी बच्चों को अपनी पहाड़ी भाषा बोलने पर डांटते हुए दिखाई देते हैं। स्कूलों में मातृभाषाओं को पढ़ाया नहीं जा रहा है। अंग्रेजी और हिंदी पर जोर दिया जा रहा है। ऐसे दौर में मातृभाषाओं के महत्व पर किताब आना बहुत आशाजनक है। उम्मीद है कि लोग अपनी मातृभाषाओं को अपने बच्चों तक पहुंचे के लिए जागरूक होंगे।

वहीं विमोचन के मौके पर मौजूद अन्य कार्यकर्ताओं ने भी इस बात पर जोर दिया कि हमें अपनी मातृभाषाओं के लिए काम करने की अवश्यकता है। देश-विदेश में मौजूद साहित्य, लेखन को लोगों तक ले जाने के लिए, हिमालय पर सरकारी नीतियों के कारण आई आपदाओं, उसके कारणों को समझाने के लिए भी अपनी-अपनी मातृभाषाओं में लेखन व अन्य मीडिया माध्यम से जागरुकता लाने की जरूरत है।

इस मौके पर यूथ फॉर हिमालय के गठन में जुड़े रहे गगनदीप सिंह ने भी अपने साथियों का धन्यवाद किया और इस किताब के किंडल एडिशन का भी विमोचन किया। उनका कहना था कि हर लेखक पहले अपनी मां बोली में सोचता है, अपनी मां बोली में सपने लेता है, कल्पना करता है, लेकिन जब वह लिखने बैठता है तो किसी दूसरी प्रतिष्ठित भाषा का सहारा क्यों लेता है। वह अपनी बोली वालों को अपने पाठक क्यों नहीं मानता।

उन्होंने आह्वान किया कि जितने भी फेसबुक, यूट्यूब, वाट्सएप या अन्य किसी भी सोशल मीडिया माध्यम में सक्रिय है कम से कम उन्हें हफ्ते में एक बार अपनी मां बोली के अंदर कुछ न कुछ लिखना, पढ़ना, सुनाना चाहिए। कम से कम एक वीडियो तो जरूर अपनी मां बोली में तैयार कर डालनी चाहिए। अपने-अपने घर, गांव, क्षेत्र की सबसे बुजुर्ग महिलाओं, पुरुषों के पास जाकर उनसे बात करो, उनसे बात कर पुराने शब्दों को नोट करो और अपनी बातचीत का हिस्सा बनाओं। बुजुर्गों की आडियो-विडियो रिकार्ड की जानी चाहिए। पुस्तक का प्रकाशन यूनिक्रिएशन पब्लिशर्स ने किया है। किंडल पर आप पुस्तक फ्री में पढ़ सकते हैं।

(जनचौक की रिपोर्ट)

Janchowk
Published by
Janchowk