शाहू महाराज : एक राजा जिसकी सामाजिक प्रतिबद्धता प्रगतिशीलों से ज़्यादा थी

कोल्हापुर के शाहू महाराज (26 जुलाई 1874 – 6 मई 1922) को छत्रपति और राजर्षि भी कहा जाता है। यह यक़ीन करना बेहद मुश्किल है कि ऐसा कोई राजा या सामंत सचमुच था जिसकी सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता उस दौर के (या आज के भी) ‘प्रगतिशीलों’ से भी कहीं अधिक थी। बानगी के तौर पर एक किस्सा-ए-मुख़्तसर। गंगाराम कांबले नाम के एक दलित व्यक्ति को वहाँ साईस का काम करते थे, दीगर ‘खानदानी’ नौकरों ने इसलिए बुरी तरह पीटा क्योंकि उसने दलितों के लिए वर्जित पानी की टंकी को छू लिया था।

कहते हैं, यह सब महाराज की अनुपस्थिति में हुआ। उनके कोल्हापुर लौटने पर जब गंगाराम ने हिचकियाँ लेते हुए अपनी पीठ पर पड़े कोड़ों-चाबुकों के निशान दिखाए, तो महाराज आग-बबूला हो गए। उन्होंने गंगाराम के साथ यह सलूक करने वाले नौकरों को बुलवा कर ख़ुद उनकी पिटाई की।

उन्होंने गंगाराम को प्रेमपूर्वक थपथपा कर उसे नौकरी से आज़ाद करते हुए कोई अपना काम धंधा करने की सलाह दी और हर संभव मदद करने का आश्वासन भी दिया। गंगाराम कांबले ने ‘सत्यसुधारक’ नाम से होटल खोला मगर अछूत के होटल में चाय पीने कौन जाए? हर सुबह शाहू महाराज अपनी घोड़ागाड़ी में कोल्हापुर शहर की सैर के लिए निकलते तो गंगाराम कांबले के होटल के सामने घोड़ागाड़ी रुकवा कर अपनी ज़बरदस्त आवाज़ में चाय का ऑर्डर देते।

उनके साथ जितने लोग उस समय होते, उन सब को भी चाय पीनी पड़ती। इतना ही नहीं, काग़ज़ों पर उनके दस्तख़त लेने आने वालों को सत्यशोधक होटल आने को कहा जाता और चाय पीने के बाद ही उन्हें दस्तख़त हासिल होते। सत्यसुधारक होटल की स्थापना की शती  2018 में मनाई गई। इस लेख के साथ दिया जा रहा चित्र एक म्यूरल का है  जो कोल्हापुर के शाहू स्मारक भवन में  लगा है। इस में शाहू महाराज को गंगाराम कांबले के हाथों चाय लेते हुए दिखाया गया है।

यह हैरानी और अफ़सोस की बात है कि हिन्दी पट्टी में शाहू महाराज के बारे में बेहद कम लोग जानते हैं। ज्ञान प्रसार की पोथियों और सामाजिक अभियानों में उनका ज़िक्र नहीं के बराबर आता है। यह एक रिवाज सा ही है कि अगर किसी शख़्स ने वंचित तबकों को न्याय और बराबरी दिलाने के लिए काम किया है तो उसके योगदान के बारे में बताते रहने की ज़िम्मेदारी इन्हीं तबकों के लोगों को निभानी पड़ेगी।

मुझे याद है कि शाहू महाराज के अविश्वसनीय लगने वाले कारनामों के बारे में पहली बार सुनने पर मैंने वर्धा के अपने दोस्त भारत भूषण तिवारी से फोन पर ब़ड़े बेवकूफ़ाना अंदाज़ में पूछा था कि वे कैसे शख़्स थे। भारत ने तुरंत जवाब दिया था- “ज़बरदस्त। आप एक ही बात से समझ लीजिए न कि उन्होंने अपने राज्य में तब आरक्षण लागू कर दिखाया था। आरक्षण को लेकर आज भी किसी प्रगतिशील को ज़रा खुरचो तो उसका सवर्ण बाहर निकलकर आ जाता है।“ब्राह्मणवादी शिकंजे में बुरी तरह जकड़े समाज और राज्य व्यवस्थाओं के बीच उस वक़्त वंचितों के लिए आरक्षण लागू कर दिखाना वाकई असंभव सा लगने वाला काम है। बताया जाता है कि उनके राज्य में वंचित तबकों के लिए 50 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था थी।

शाहू महाराज को चाय पिलाता गंगाराम कांबले।

हालांकि, इस बारे में फ़िलहाल यह ठीक-ठीक कहने की स्थिति में नहीं हूँ कि इस आरक्षण व्यवस्था का क्राइटेरिया क्या था। असल में उन पर हिन्दी में बहुत ज़्यादा ऑथेंटिक सामग्री उपलब्ध भी नहीं है। कुछ लेख और संजीव का एक उपन्यास `प्रत्यंचा`। एक मराठी एक्टिविस्ट के मुताबिक, शाहू महाराज के राज्य में आरक्षण का आधार फुले से प्रेरित था जिसका मकसद कास्ट और रिलीजन से परे जाकर भागीदारी/प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना था। ऐसे में इसमें मुसलमान जातियां भी लाभार्थी थीं। शायद, मुद्दतों बाद, उत्तर भारत के बहुजन समाज पार्टी के अभियान का शुरुआती नारा भी कुछ ऐसा ही था- `जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी`। बहरहाल, यह बात मेरे लिए और ज़्यादा जानने के लिए अध्ययन सामग्री जुटाने की वजह बनेगी। 

आज जब शाहू महाराज के स्मृति दिवस पर हम उनके योगदान की चर्चा कर रहे हैं तो देश के संविधान में वंचितों के लिए लागू किए गए जैसे-तैसे आरक्षण को निष्प्रभावी किए जाते हुए देख रहे हैं। एक राजा की व्यवस्था वाले राज्य ने कभी राजा की पहल पर ही ग़ैर बराबरी और उत्पीड़न की ब्राह्मणवादी व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए सख़्त कदम उठाए थे लेकिन लोकतांत्रिक राष्ट्र आज पेशवाई राज की ज़ोर-शोर से वापसी देखने के लिए `अभिशप्त` नज़र आ रहा है। शाहू महाराज का योगदान इतना विशाल है कि निकट इतिहास में कोई एक अकेला शख़्स इतने सारे काम करके दिखा गया है, यह सुनने में मिथ की तरह लगता है। शाहू महाराज पढ़े-लिखे व्यक्ति थे।

कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी ने उन्हें एलएलडी की मानद उपाधि दी थी। लेकिन उनका पढ़ना-लिखना हमारे बहुत सारे उन ज्ञानी जन की तरह नहीं था जो दुनिया भर के क्रांतिकारी सिद्धांतों की समीक्षा तो ख़ूब कर सकते हैं पर अपने जीवन तक में अमल के नाम पर कहने लगते हैं कि समाज इसके लिए तैयार नहीं है। स्कूलों में नि:शुल्क शिक्षा, स्कूलों का प्रसार, नि:शुल्क छात्रावास, छुआछूत के ख़िलाफ़ अभियान, ब्राह्मण पुजारी व्यवस्था को तोड़ना, अंतरजातीय विवाहों को प्रोत्साहन, देवदासी प्रथा पर रोक, लड़कियों के लिए शिक्षा व्यवस्था, महिलाओं को संपत्ति में अधिकार, देवस्थानों की सम्पत्ति पर राज्य का अधिकार, थोड़ी सी ज़मीन देकर दलित परिवारों को बंधुआ बनाने की परंपरा का अंत, दलितों का इलाज पहली बार अस्पतालों में सुनिश्चित कराना.. 6 मई 1922 को महज 48 साल की उम्र में निधन से पहले 28 वर्षों के शासन में शाहू महाराज ने क्या-क्या नहीं कर दिखाया था! 

शाहू महाराज को शक्तिशाली ब्राह्मणों का ही विरोध नहीं झेलना पड़ा, उन्हें राष्ट्रवादी और प्रगतिशील `सितारों` से भी मुश्किलें नहीं मिलीं। लेकिन, अन्याय को सामाजिक व्यवस्था और परंपरा कह कर गर्व करने वाले हिन्दुस्तान में सामाजिक बराबरी और न्याय सुनिश्चित कराने के अथक प्रयासों के चैम्पियन डॉ. आम्बेडकर के साथ उनके गहरे रिश्ते थे।           

(धीरेश सैनी जनचौक के रोविंग एडिटर हैं।)

धीरेश सैनी
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