आधे सफर का हमसफरः वे कहानियां जिन्हें प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिए था

‘लोग इन कहानियों को बर्दाश्त नहीं करेंगे। सच कहूं तो ये मुझसे भी बर्दाश्त नहीं हो रही हैं। ये वे कहानियां हैं जिन्हें प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिए था।’ शहादत की कहानियों को लेकर उक्त टिप्पणी दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक पूर्व प्रोफेसर ने की थी। प्रोफेसर खुद रचनाकार हैं और उन्होंने उर्दू में कई अच्छी कहानियां और नाटक लिखे हैं। शायरी के भी उनके कई संग्रह प्रकाशित हैं। इनमें से कुछ के हिंदी अनुवाद भी हुए हैं। एक बार जब मैं प्रोफेसर से मिलने गया था तो अपने साथ शहादत की ‘गुलिस्ता’ कहानी का प्रिंट भी ले गया था। यह कहानी संग्रह में शामिल है। इस को जब मैंने प्रोफेसर को पढ़कर सुनाया था तो तब उन्होंने यह टिप्पणी की थी। अब जब मुझे शहादत के संग्रह की खबर मिली है तो मुझे उस प्रोफेसर की यह टिप्पणी याद आ गई है।

पर बात यहां से शुरू नहीं होती। बात शुरू होती है वहां से जब उसने इस कहानी को लिखा था तो कई पत्रिकाओं में छपने के लिए भेजा था। कुछ दिनों बाद पत्रिकाओं के जवाब आए तो वे उसकी उम्मीदों के विपरीत थे। पत्रिकाओं के संपादकों ने कहानी की रचनात्मकता की तो भूरि-भूरि प्रशंसा की थी पर उसकी पृष्ठभूमि को देखते हुए उन्होंने उसे छापने से इनकार कर दिया था। यह इनकार तब था जब वह एक कहानीकार के रूप में लगभग अपना नाम बना चुका था और ‘हंस’, ‘कथादेश’, ‘कथाक्रम’ और ‘पहल’ जैसी राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में उसकी कहानियां प्रकाशित हो चुकी थीं।

कहानी को मैंने भी पढ़ा था। कहानी पढ़ने के बाद मुझे उसमें कुछ भी ऐसा नहीं लगा था कि जिससे उसे प्रकाशित करने या उस पर बात करने से इनकार कर दिया जाए, सिवाए कुछ तल्ख हकीकतों को। और ये वे हकीकतें हैं जिनसे हमारा समाज जानबूझ कर नज़रे मोड़े है। आप कहानी की शुरुआती लाइनें देखिए-

‘मैं तो एक आम-सी औरत थी। सीधी-सादी घरेलू औरत। लेकिन इस्लामिक नियमों ने मुझे घर निकालकर कोठे पर बैठा दिया। आप तो जानती ही हैं।’

यह पीड़ा कहानी की प्रमुख पात्र ‘गुलिस्ता’ की है। वह एक सीधी-सादी, आम-सी घरेलू औरत है। किसी भी आम भारतीय औरत की तरह। एक रोज़ उसका शौहर उसे गुस्से में आकर तीन तलाक दे देता है। बाद में गलती का एहसास होने पर अपने छोटे भाई के साथ उसका हलाल कराता है और उसे फिर अपने साथ रख लेता है। पर जब लोग इसके लिए उसका मज़ाक उड़ाते हैं तो वह फिर उसे तीन तलाक दे देता है और अपने बच्चों को लेकर शहर छोड़कर चला जाता है। इसके बाद गुलिस्ता की ज़िंदगी में ऐसी घटनाएं घटती हैं कि वह घर से निकलकर कोठे पर जा बैठती है।

गुलिस्ता की शादीशुदा ज़िंदगी भी आसान नहीं रही थी। शादी के बाद बेटे की चाह में उसने लगभग हर साल एक बेटी को जन्म दिया था। उसके यहां इतनी जल्दी-जल्दी बच्चे होने पर मोहल्ले की औरत की बातें देखिए-

“पड़ोस की औरतों को जब गुलिस्ता के फिर से हामला (गर्भवती) होने का पता चला था तो किसी ने कहा था, ‘क्या कुतिया जैसा बियांत हो गया है उसका? जो हर छह-आठ महीने बाद बच्चे जन रही है?’

जवाब में दूसरी ने कहा, ‘मुस्लिम औरतें कुतियों से कम हैं क्या? उनका तो काम ही यही होता है बच्चे पैदा करना और शौहरों की मार खाना। तू ख़ुद को देख। तेरे भी तो आठ हैं। भले ही तूने दो-दो साल बाद जने हों।’”

केवल यही नहीं, संग्रह की दूसरी कहानियां भी ऐसी ही हैं। ‘रहबर-ए-दीन’ कहानी की शुरुआती लाइनें ही पूरी कहानी को सार समेटे हुए हैं। कहानी कुछ यूं शुरु होती है-

‘पैगम्बर और सहाबा के बाद कहा गया कि मौलाना लोग ही रहबर-ए-दीन होंगे। मगर मौलानाओं ने क्या किया? उन्होंने उम्मत-ए-मुस्लिमा को अपनी रखैल बना लिया।’

यह वाकई एक चुभने वाली बात है। एक ऐसी बात जिसे जानकर भी कोई मुसलमान कभी नहीं कहेगा। कहानी एक नौजवान की है जो धार्मिक प्रचार के लिए तब्लीगी जमात में शामिल हो जाता है। इस सिलसिले में वह एक पूर्व तब्लीगी जमात के सदस्य मिलता है। वह उससे पूछता है कि उसने तब्लीग को क्यों छोड़ा? इस पर तब्लीग का वह पूर्व सदस्य जो कारण बताता है वह इतना घिनौना, घृणास्पद और अफसोसनाक होता है कि तब्लीगी जमात में लगा नौजवान खुद तब्लीग को छोड़ देता है और खुद के नास्तिक होने की घोषणा कर देता है।

देखा जाए तो यह कहानी का सिर्फ एक पक्ष है। कहानी का दूसरा पक्ष वह है जिस पर कहानी खुलकर बात तो नहीं करती पर उस ओर संकेत जरूरत करती है। वह पक्ष यह है कि आज का मुस्लिम युवा धर्मगुरुओं और प्रगतिशील मुस्लिम विद्वानों के बीच फंस कर रह गया है। वह समझ नहीं पा रहा है कि उसे किधर जाना चाहिए? अगर मौलाना की तरफ न जाए तो मरने के बाद जहन्नम है और अगर प्रगतिशील विद्वानों की बात न सुने तो फिर मौजूदा ज़िंदगी में कुछ हासिल नहीं। सच कहूं तो इस पक्ष का न उभरना कहानी को कमजोर भी करता है। अगर यह पक्ष ज्यादा खुलकर सामने आता तो कहानी कहीं ज्यादा दमदार नज़र आती। पर इससे कम से कम एक संभावना तो बनती है कि लेखक ऐसे मुद्दों पर भी कलम चलाने की हिम्मत रखता है जिन पर समुदाय के लोग मुंह सिए बैठे हैं।

ऐसा नहीं कि संग्रह की उपर्युक्त दो कहानियां ही उल्लेनीय हैं। संग्रह अपनी पहला कहानी से ही अपनी नवीन रचनात्मकता और अनछुए मुद्दों को लेकर पाठक की दिलचस्पी और उत्सुकता को एक नए स्तर पर ले जाता है। संग्रह की पहली कहानी ‘अल्लाह बेटियां न दे’ एक पारिवारिक कहानी है। इस कहानी में एक मां परिवार की गरीबी के लिए अपने बच्चों, खासतौर से बेटियों को कोसती और गालियां देती रहती है। बेटियां कभी पलटकर मां की किसी बात का जवाब नहीं देतीं। बस चुपचाप घर के कामों लग रहती हैं। मां को कभी भी घर के कामों को एहसास नहीं होता। उसे घर के कामों की अहमियत का तब पता चलता है जब शादी के बाद सभी बेटियां अपनी ससुराल चली जाती हैं और उसे रमजान की रात में सहरी के लिए सुबह तीन बज उठकर खाना बनाना पड़ता है। तब वह अपनी बेटियों को याद करके बहुत रोती है।

‘15 दिसंबर, 2019 की बात’ कहानी हाल में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जामिया यूनिवर्सिटी में हुए विरोध-प्रदर्शनों और दिल्ली पुलिस के यूनिवर्सिटी कैम्पस में घुसकर छात्रों को बेरहमी से पीटने की घटना के गिर्द बुनी गई है। कहानी में उस घटना के साथ-साथ भारत में एक आम मुसलमान की ज़िंदगी और अपनी ज़िंदगी को लेकर एक आम मुसलमान भारत सरकार और राष्ट्र की शासन व्यवस्था के बारे में क्या सोचता है, इसे भी बयान किया गया है।

‘हाउस टैक्स की रसीद’ सरकारी दफ्तरों में फैले भ्रष्टाचार और वहां आम मुसलमानों के साथ होने वाले धार्मिक भेदभाव और मानसिक शोषण की कथा है। कहानी एक आम मुस्लिम मजदूर को केंद्र में रखकर लिखी गई है, जो एक पेंशन फॉर्म के साथ लगाने के लिए अपनी हाउस टैक्स की रसीद की फोटो कॉपी, उसकी असली कॉपी खो चुकी है, लेने के लिए नगर पालिका जाता है। एक मुसलमान होने के कारण नगर पालिका के हिंदू अधिकारी उसके साथ कितनी निर्दयता से पेश आते हैं और कैसे उसे उपहास का पात्र बनाते हैं वह आप इस कहानी में पढ़ सकते हैं।

‘पहला प्यार’ कहानी वाकई एक रोचक कहानी है। यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है जो ईरान में रहता है और बुढ़ापे में अपने यौवन के उस प्यार को करता है जिसे उसने किसी लड़की से नहीं लड़के से किया था।

संग्रह की केंद्रीय कहानी ‘आधे सफ़र का हमसफ़र’ शादी में गए एक स्कूली छात्र के साथ घटी एक घटना से संबंधित है। शादी से लौटते हुए छात्र को पता चलता है कि क्षेत्रीय राजनीतिक दल का बंद होने के चलते इलाके की बस, ट्रेन और दूसरे यात्री वाहन बंद हैं तो वह एक ट्रक वाले से लिफ्ट लेता है। ट्रक ड्राइवर उसे लिफ्ट देने के लिए तैयार तो हो जाता है पर केवल आधे सफर तक। इस आधे सफ़र में उस ट्रक ड्राइवर और कहानी के पात्र स्कूल छात्र के बीच जो वार्तालाप होता है वह इस कहानी का केंद्रिय बिंदु है।

‘शौहर’ कहानी एक ऐसे नौजवान की कहानी जो अपनी कमउम्र सौतेली मां को लेकर भाग जाता है और उसके साथ शादी कर लेता है। ‘लड़की भगाने की कीमत’ ऑनर किलिंग पर आधारित कहानी है। वहीं ‘नए इमाम साहब’ एक ऐसी कहानी है जहां मस्जिद का इमाम ही मोहल्ले की एक लड़की को लेकर भाग जाता है। ‘आशिक-ए-रसूल’ संग्रह की एक वाकई लीक से हटकर कहानी है। इस कहानी में मुस्लिम धर्मगुरुओं के दोहरे चरित्र को उजागर किया गया है। कहानी का आधार वह वक्त है जब स्वीडन के एक कार्टूनिस्ट द्वारा पैगंबर मोहम्मद के कार्टून बनाए जाने पर पूरी मुस्लिम दुनिया उफान पर थी। उसी दौरान शहर में मुसलमानों की एक आम सभा होती है। इसमें वह लड़का खुद को आग लगाकर मुसलमानों का हीरो बन जाता है जिसे कुछ दिन पहले ही शहर-इमाम ने ‘विधर्मी और बेदीन’ कहकर इस्लाम से खारिज कर दिया था।

‘निकाह’ कहानी अपनी जवान बेटियों की शादियों के लिए संघर्ष करते एक मजदूर, गरीब और बेसहारा बूढ़े बाप की कहानी है। इस कहानी में सामाजिक विभाजन इतने तीव्रता से उभरकर आता है कि पाठक एक वक्त के लिए झुंझलाकर रह जाता है।

संग्रह की अंतिम कहानी है ‘तुमसे’। यह एक मीडिया संस्थान में काम करने वाले दो दोस्तों की कहानी है। इनमें से एक दोस्त अपनी दोस्ती को बरकरार रखने के लिए दूसरी से अपनी बहन की शादी कराने की सोचता है पर दूसरा दोस्त उसके साथ अपनी उस दोस्ती को एक नया ही रंग देते हुए पाठक को चौंका देता है।

संक्षेप में कहूं तो यह पूरा संग्रह बेहद पठनीय और सराहनीय। पर इसकी कई कहानियां ऐसी हैं जिनके लिए मैं भी उन प्रोफेसर की बात ही दोहराऊंगा कि उन कहानियों का न छपना ही अच्छा था।

किताब का नाम- आधे सफ़र का हमसफ़र

प्रकाशक- हिंद युग्म प्रकाशन

मूल्य- 199

(समीक्षक इस्तेखार अहमद, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा(महाराष्ट्र) रिसर्च स्कॉलर हैं।)

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