आपस में लड़ते लोगों की ‘भीड़’

फिल्म ‘भीड़’ लेखक और निर्देशक की एक बहुत साहसिक फिल्म है। अनुभव सिन्हा ने ‘आर्टिकल 15’, ‘अनेक’, ‘थप्पड़’, ‘मुल्क’ आदि फिल्मों में समसामयिक बहसतलब मुद्दों को चुना और उन पर विश्वसनीय प्रस्तुतियां दीं। ‘भीड़’ इसी कड़ी में एक और फिल्म है जिसमें उन्होंने रंगीनियत और चकाचौंध और नियोनी रोशनियों के शानदार करतबों वाले दौर में स्याह और सफ़ेद माध्यम को चुना। बिना शक ये एक जोखिम था जो उन्होंने लिया। ऐसा करने के पीछे संभवतः कुछ ठोस कारणों को रेखांकित किया गया होगा। संभावित कारणों में सबसे मजबूत कारण ये समझ आता है कि वो दौर, उस समय की सत्ता और समाज, उस समय के मूल्य और महान मानवीय भावनाएं जो या तो स्याह हैं या फिर सफ़ेद को प्रस्तुत करना चाहते हैं।

बहुरंगीयत की बेहद कमी थी उस दौर में। आर्थिक कारण भी हो सकते हैं। फिर पंकज कपूर, राज कुमार राव, आशुतोष राणा, भूमि पेढनेकर आदि के दमदार अभिनय ने निर्देशक, लेखकों की परिकल्पनाओं को एक शक्ल दी है, उस समय की घटनाओं और चरित्रों और संघर्षों का एक प्रभावशाली चेहरा। कोरोना के दौर की दहशत और बेबस मनुष्यों की बेबसी का चेहरा, सत्ता द्वारा बनाये जा रहे कानून और मानवता के बीच के द्वंद्व का चेहरा।

फिल्म ‘भीड़’ यद्यपि सरकार द्वारा कोरोना विस्फोट के दौर की घटनाओं पर आधारित है तथापि फिल्म इससे काफी आगे बढ़कर दर्शकों से संवाद करती है। उसमें सिर्फ लॉकडाउन के समय की अनेक घटनाओं का चित्रण नहीं है अपितु उससे भी आगे बढ़कर व्यक्तियों और चरित्रों की आत्मा में बैठे संस्कारों और विचारों का, जीवन मूल्यों और प्रतिक्रियाओं का ताना-बाना है। बड़ी त्रासदियां न केवल व्यक्तियों की आत्मिक बुराईयों को बाहर ला देती हैं बल्कि उसे ऐसे अस्तित्वगत स्थितियों में डाल देती हैं जहां वह या तो मर सकता है या फिर अपने सदियों पुराने संस्कारों और मान्यताओं को बदल सकता है।

लेखक, निर्देशक ने खास तौर से जाति-संरचना और इसके भेदभावकारी स्थितियों को सामने रखा है, साथ ही वर्ग-भेदभाव को अपनी कथात्मक प्रस्तुति का एक हिस्सा बनाया है। एक शराबी और बीमार पिता को साइकिल के पीछे कैरियर पर बैठा कर अपने गांव पहुंच जाने की हिम्मत रखनी वाली लड़की और एक कार में अपने ड्राईवर के साथ चल रही एक औरत, ये निर्देशक के माध्यम भर हैं वर्ग-विभेद और वर्गीय संस्कारों को प्रकट करने का। कोरोना ने गरीबी-अमीरी के भेद को सबसे अधिक उजागर किया। जब मध्यवर्ग से सम्बन्ध रखने वाले अधिकारियों के लिए अस्पताल में कहीं बेड उपलब्ध नहीं तो गरीब और दिहाड़ी मजदूर और रिक्शा खेिचने वालों की क्या गिनती?

फिल्म प्रथम दृश्य में ही रेल की पटरी पर सो रहे मजदूर और उनके परिवारों की त्रासदी दिखाती है। किसी की सांस से या किसी को छू भर लेने से कोरोना होने की संभावना और लगातार हो रही मृत्यु के माहौल में खबर और अफवाह एक हो गये हैं। रेल की पटरियों पर चलकर अपने घर, अपने गांव पहुंच जाने के मंसूबे बांधे मेहनतकश इस खबरनुमा अफवाह के शिकार हैं कि रेल, बस, सड़कें सब बंद कर दी गयी हैं। इस पर विश्वास कर थके, निरंतर घिसट रहे लोग पटरी पर खाना खाते हैं और उनके हाथ पैर पसर जाते हैं और फिर रेल आती है। चेतना और सही खबर को पहचानने की वेधक शक्ति कम लोगों के पास होती है। फिल्मकार ने इस चेतना को, उस दौर के अंदेशे को आश्वस्तकारी रूप में दिखाया है।

इसके बाद फिल्म एक ऐसी जगह पर स्थिर हो जाती है जो शहर से दूर है, आसपास दूर तक खेत और खाली जमीन पर फैला हुआ पानी का विस्तार, पास एक मॉल है जो वीरानगी और सुनसानियत का शिकार है। यह तेजपुर नामक जगह है जो हिंदी प्रदेश की कोई भी जगह हो सकती है। तेजपुर भाषाई आधार पर उत्तर प्रदेश लग रहा है। इस बाहरी इलाके में सड़क से कोई न जा सके, इसके लिए पुलिस की नाकाबंदी लगाई जाती है और इसकी कमान युवा सब इंस्पेक्टर सूर्य कुमार सिंह टिकस को दी जाती है।

सब इंस्पेक्टर सूर्य कुमार सिंह टिकस जातीय समाज के वर्चस्व क्रम में निम्न है और उनके ज़ेहन में ये भावना जड़ कर गयी है कि उन्होंने लम्बे समय तक उच्च जाति वालों की सेवा कर ली। अब उनकी आत्मा जातीय गुलामी के खिलाफ आवाज बुलंद करने लगी है। वे यहां, इस तिराहे पर नाकाबंदी का चार्ज मिलने पर स्वयं को साबित करना चाहता है। पर उसकी उम्मीदों के विपरीत वहां सरकारी लॉक डाउन के आदेश को तोड़कर अपने घर और गांव जाने की कोशिश करने वालों का सैलाब आ जाता है।

इस भीड़ में महानगर के पत्रकार हैं जो पहली बार महानगर के बाहर के नजरिये से देश को देख रहे हैं। जातीय श्रेष्टता के गर्व में डूबे बलराम त्रिवेदी (पंकज कपूर) हैं। बलराम त्रिवेदी का चरित्र बेहद रुचिकर हैं। यद्यपि वे शहर में चौकीदार की नौकरी करते हैं पर अपनी कुटुम्बों को उन्होंने कुछ और ही बता रखा हैं। उनके साथ स्त्री-पुरुष और बच्चे हैं, एक बीमार भी; जिसे वे सबसे छुपाना चाहते हैं, उसके बुखार को मामूली बुखार बताते रहते हैं। एक युवा लड़की है जो अपने शराबी और बीमार पिता को हज़ार किलोमीटर दूर अपने गांव पहुंचाना चाहती है। और एक मध्यवर्गीय स्त्री है जो कुछ ही किलोमीटर दूर अपनी बेटी को पाना चाहती है।

और भी बहुत सारे लोग। लोगों की उम्मीदें, हसरतें और कोशिशें। पूरी एक भीड़ है जमीन पर बैठी, देखती, इंतज़ार करती।
यहीं पर अस्तित्ववादी समस्या लेखक,निर्देशक ने दिखाई है। कानूनी आदेश का पालन बनाम मानवता की दरकार। कानून का पालन जरूरी है पर क्या ये हर परिस्थिति में सही है? धीरे-धीरे भूख गहराती है। बच्चे भूख से रोने लगते हैं। बलराम त्रिवेदी जानता है कि मॉल में हमेशा रिज़र्व में खाद्य सामग्री रखी होती है। जबकी सरकार के आदेश पर सारे मार्ग, आवागमन के साधन बंद कर दिए गये हैं तो मॉल में मौजूद खाद्य सामग्री का उपयोग विशेष परिस्थितियों में मनुष्यता की आपात स्थिति में क्यूं नहीं किया जा सकता?

कानून समर्थकों और सरकारी दिमाग वालों के लिए ये विचार ही एक ‘क्रांति’ है, नक्सली सोच है और सरकारी आदेश का पालन करने वाले ऐसा कभी नहीं होने दे सकते। वे ‘ऊपरी आदेश’ को मानते हुए गोलियां चला सकते हैं, किसी भी व्यक्ति की जान भी ले सकते हैं। वे कभी सोच भी नहीं सकते कि सरकार आम जनता के लिए है, भीड़ के लिए है। लेखकीय खूबसूरती ये है कि ‘आदेश’ के जातीय और वर्गीय पहलू को उजागर किया गया गया है। इस ‘आदेश’, ‘भूख’ और मॉल में स्थित खाद्य-पदार्थों की रक्षा के त्रिकोण ने सूर्य कुमार सिंह टिकस की आत्मा को झकझोड़ दिया है।

सूर्य कुमार सिंह टिकस भी एक आतंरिक भूख का शिकार है वो है सम्मान और अवसरों की समानता की भूख का। यहां कानून का आदेश मानते हुए भूखों को गोली मारने वालों, जातिगत सम्मान और समानता का अवसर चाहने वालों और भूखे बच्चों की भूख से मजबूर बन्दूक उठाये मॉल के खाद्य पदार्थ को लूटने को प्रयत्नशील लोग, इस त्रिकोण को एक महाकाव्यात्मक गरिमा दी गयी है, एक औपन्यासिक विस्तार दिया गया है। कई सारे नाटकीय उदाहरण यहां याद आ जाते हैं। यही फिल्म का सबसे आकर्षक पक्ष है जो सोचने को मजबूर करती है कि आखिर ‘हम’ क्या हो गये हैं? या हमें क्या हो गया है? श्वेत-श्याम में चित्रित ये दृश्य बहुत जीवंत और विश्वसनीय लगे हैं।

फिल्म धार्मिक स्थिति पर भी टिप्पणी करती है। एक दृश्य में त्रिवेदी उन सभी लोगों से खाने का पैकेट छीन कर वापिस कर देते हैं जिन्होंने मुसलमान से ली थी। हालांकि बच्चों की भूख और बेबसी देखकर बाद में त्रिवेदी मुस्लिम भाईसाब से पैकेट मांगते भी हैं। स्त्रियों की स्थिति पर भी टिप्पणी है।

निर्देशक अनुभव सिन्हा के ट्रेडमार्क रूप में यहां कई सारे समकालीन सन्दर्भ हैं और कुछ आकर्षक संवाद भी ‘कमजोर के हाथ में न्याय दे दिया जाए तो न्याय अलग होगा’, ‘यहां कुंडली नहीं चलता, कानून चलता है’, ‘गलत क्या किये हम पानी मांगे, खाना मांगे तो? , ‘हमारा हीरो बनना गलत है क्या?’ आदि।

कोई शक नहीं, श्वेत-श्याम माध्यम में पंकज कपूर ने गज़ब ढाया है। उनकी आंखों की भाषा, चेहरे के भाव, क़दमों की चाल और संवाद अदाएगी अमिट छाप छोड़ने वाली है। जातिगत निम्नता की श्रेणी के दंश को झेलने वाले इंस्पेक्टर के रूप में राज कुमार राव ने न्याय किया है। अच्छा अभिनय किया है। आशुतोष राणा असरदार हैं।

सबसे बढ़कर कोरोना और लॉक डाउन की जानी पहचानी घटनाओं और कहानियों के बीच से एक मनुष्यता और समाज की साभ्यतिक संवाद करने वाला एक कथानक विकसित कर उसे परदे पर प्रस्तुत करने के शानदार प्रयास के लिए निर्देशक अनुभव सिन्हा के लिए प्रशंसा होनी चाहिए। बेहद कसावट भरा निर्देशन है जो कहीं सुस्त नहीं होती, न ही कुछ भी अनावश्यक परोसती है। भविष्य की पीढ़ी के लिए ये एक दस्तावेज की तरह का होगा, अलबत्ता डॉ. रवि सागर का लिखा गीत अंत से थोड़ा पहले होता तो बेहतर होता। यह उस समय पर प्ले किया गया है जब दर्शक उठकर जाने लगते हैं।

(मनोज मल्हार की समीक्षा)

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