वाजपेयी की पुण्यतिथि: मुखौटे में छिपा हिंदुत्व का चेहरा

पता नहीं क्यों अटल बिहारी वाजपेयी पर कुछ भी लिखने का मन नहीं कर रहा है।शायद इसका प्रमुख कारण यह है कि किसी व्यक्ति के न रहने पर अपने यहां चारण की परंपरा है और मुझे उनके बारे में सत्य लिखने की इच्छा हो रही है। इसलिए जोखिम उठाकर कुछ बातें तो कहना ही चाहता हूं।

अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते ही फ्रंटलाइन ने कवर स्टोरी छापी थी कि कैसे वाजपेयी जी की गवाही से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले चार देशभक्तों को सजा मिली थी।

वाजपेयी जी जब प्रधानमंत्री थे तब भी बहुत कुछ जानने की इच्छा थी और उस दौरान बहुत कुछ जाना सुना भी, लेकिन कई ऐसी बातें थीं कि उनके बारे में कभी भी अच्छी धारणा नहीं बन पायी।

जैसे मैं उस बात को कभी नहीं भूल पाया जब बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने की साजिश हो रही थी और वाजपेयी जी लखनऊ में देर शाम 5 दिसंबर को एक सभा को संबोधित करते हुए कह रहे थे- “वहां नुकीले पत्थर निकले हैं, उन पर तो कोई नहीं बैठ सकता तो जमीन को समतल करना पड़ेगा, बैठने लायक करना पड़ेगा।”

लखनऊ से निकलकर वह दिल्ली लौट आए थे, उन्हें पूरे व्यूह रचना के बारे में पता था। उन्हें यह भी पता था कि माहौल को अपने पक्ष में लाने के लिए नाटक की जरूरत पड़ेगी और इतना बड़ा महारथी अभिनेता बीजेपी में वाजपेयी के अलावा दूसरा कोई नहीं था (वैसे भी दूसरे अभिनेता लालकृष्ण आडवाणी बाबरी मस्जिद को तोड़े जाने के लिए अयोध्या में सशरीर उपस्थित थे)। उनके साथ चबूतरे पर मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती के अलावा जो दो ‘महान पत्रकार’ मौजूद थे उनमें से एक का नाम चंदन मित्रा था और दूसरे का नाम था स्वपन दासगुप्ता।

दोनों ही कभी अपने को कम्युनिस्ट कहते थे लेकिन खाए-अघाए घर से होने के कारण क्रांति सिर्फ फैक्ट्रियों में होती है- वाली बात से आगे नहीं बढ़ पाए थे। खैर, जब बाबरी मस्जिद को तोड़ा गया तो उत्साह में उमा भारती मुरली मनोहर जोशी के कंधे पर सवार होकर जोर-जोर से चिल्लाने लगी थीं और हमारे दोनों महान बंगाली क्रांतिकारी पत्रकार आडवाणी जी के पैर पर पहले गिरे थे और बाद में बांह पर हाथ पकड़कर हाथ मिलाते हुए भी पाए गए थे।

जब यह विध्वंस चल रहा था तो बीजेपी के सबसे पहले अभिनेता पंडित अटल बिहारी वाजपेयी संसद भवन में बाबरी मस्जिद ‘तोड़े जाने के विरोध’ में संसद भवन के भीतर ही धरने पर बैठ गए थे। वाजपेयी के इस अभिनय से गैर भाजपाई मध्यम वर्ग में उनकी छवि एक लिबरल नेता की बनाई जा चुकी थी।

हमें वह भी दिन याद करना चाहिए जब उन्होंने सरेआम कहा था कि बाबरी मस्जिद तोड़ा जाना राष्ट्रीय भावना का प्रकटीकरण था! खैर, छवि तो तब तक गढ़ ली जा चुकी थी, जबकि हकीकत तो यही है कि बाबरी मस्जिद को तोड़ने में जितने गुनाहगार उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी आदि थे उनमें से किसी से कम योगदान वाजपेयी का नहीं था।

लेकिन उनके मन में यह ख्वाहिश थी कि लोग उन्हें एक ‘स्टेट्समैन’ मानें, क्योंकि वह अपनी पार्टी के खिलाफ पोजिशन लेते हैं। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात दंगों के बाद नरेन्द्र मोदी की भर्त्सना की थी, और शायद उनका इस्तीफ़ा भी मांग लिया था। लेकिन यह उनकी स्टेट्समैन बनने की ख़्वाहिश थी, अन्यथा दंगों के दो महीने बाद ही गोवा में आयोजित भाजपा के सम्मेलन में मुस्लिमों के खिलाफ उन्होंने इतना जहर क्यों उगला था?

हालांकि मैं उन मामलों का जानकार नहीं हूं लेकिन मेरा मानना है कि कश्मीर की बेहतरी के लिए उन्होंने थोड़े अच्छे कदम ज़रूर उठाए थे। शायद यह भी कि पाकिस्तान के साथ भी भारत का रिश्ता अच्छा बनाने की कोशिश कर रहे थे जिसे लालकृष्ण आडवाणी एंड कंपनी ने बहुत ही तैयारी के साथ नाकाम कर दिया था।

राजनीति में तमाम तरह के जोड़-तोड़, दलाली की शुरुआत खुले रूप में उन्हीं के समय शुरू हुई जिसका सबसे बड़ा सितारा प्रमोद महाजन था। शायद उसी समय दलाल किस्म के कई लोगों को लगा कि दलाली करके भी बड़ा आदमी बना जा सकता है जिसके प्रत्यक्ष उदाहरण राजीव शुक्ला और अमर सिंह हैं। लेकिन इसकी सबसे दुखद शुरुआत वाजपेयी ने ही की थी।

कुल मिलाकर अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति मेरे मन में कभी आदर का भाव नहीं रहा। हां, यह ज़रूर है कि आज भी उन्हें मैं नरेन्द्र मोदी से बेहतर प्रधानमंत्री मानता हूं।

अटल बिहारी वाजपेयी इमेज बिल्डिंग के मामले में भी बहुत धूर्त किस्म की कोशिशें करते थे!

(जितेंद्र कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

जितेंद्र कुमार
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