‘उफ़! टू मच डेमोक्रेसी’: सादा ज़बान में विरोधाभासों से निकलता व्यंग्य

डॉ. द्रोण कुमार शर्मा का व्यंग्य-संग्रह ‘उफ़! टू मच डेमोक्रेसी’ गुलमोहर किताब से प्रकाशित हुआ है। वैसे तो ये व्यंग्य ‘न्यूज़क्लिक’ ई अख़बार के ‘तिरछी नज़र’ कॉलम में सिलसिलेवार छपे हैं और बहुत पसंद किए गए हैं, पर पुस्तकाकार रूप में कुछ भी पढ़ना शायद सर्वश्रेष्ठ रीडिंग होती है, किसी भी व्यवधान के बिना वर्ष 2020-2021 में लिखे गए उनके व्यंग्यों को निर्बाध पढ़ना एक सुखद अनुभव है।

इन व्यंग्य को पढ़ते हुए जो बात सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करती है वह यह है कि सत्ता परिवर्तन होने और मोदी ‘सरकार जी’ के सत्ता पर आसीन होते ही ऐसी-ऐसी अजीबोगरीब ‘घटनाएं’ देश में हुई हैं कि व्यंग्य लेखन के लिए विषयों की भरमार हो गई है। एक-एक दिन में सत्ताधारी पार्टी द्वारा और इसके मंत्रियों, संतरियों, विधायकों, पुलिस और अंधभक्तों द्वारा रोज ऐसे बयान, कथन और विचारों की उद्घघोषणा हुई है कि हर विचार, हर बयान, सरकार की हर नीति इतनी आश्चर्यजनक है, कि ‘न भूतो न भविष्यते!’ कि न कुछ कहते बने और न चुप रहते, करें तो क्या करें, खून के घूंट पिएं, माथा पीट लें, गुस्से से बिलबिला उठें या ऐसी मति पर दया खाएं, इतनी बेचैनी कि कुछ कहें तो कैसे कहें? और ऐसे में द्रोण कुमार शर्मा के व्यंग्य सामने आते हैं, गुस्से, क्रोध, बिलबिलाहट पर काबू करते हुए इतने शालीन, इतने सधे हुए ढंग से व्यंग्य करना कि पढ़ने वाले को पहले तो हंसी आ जाए या चेहरे पर मुस्कराहट पसर जाए और फिर मन में उठती टीस उसे किसी से साझा करने को बेचैन कर दे।

व्यंग्य में ‘सरकार जी’ की बातें की जा रही हैं, उन्हीं की तारीफ़ें हो रही हैं, उनकी जन-विरोधी नीतियों को ही दोहराया जा रहा है, पर क्या वाकई ऐसा है! भाषा से निकलते अर्थ सन्दर्भ इतने मारक हैं कि अब अंधभक्त तिलमिला उठें और यह भी न कह सकें कि कोई अपशब्द कहा गया है, कोई गाली दी गई है, या भाषा ‘बेशर्म’ है। आलोचना हो रही है, नीतियों का विरोध भी हो रहा है, कटाक्ष भी हो रहे हैं, पर कहाँ शब्दों में तो नज़र नहीं आते, ‘शब्दों के पार’ जो है उसे तो सिर्फ ‘महसूस’ किया जा सकता है, पकड़ा नहीं जा सकता।

इसे इस किताब के पहले व्यंग्य “वाकई! दाग़ भी अच्छे होते हैं’ से यूं समझें, “मोदी जी के शासन काल से पहले धन दो ही रंग का होता था, सफ़ेद और काला। मोदी जी ने 2016 में सारा काला धन समाप्त कर दिया, लगभग सारा पैसा बैंकों में जमा हो गया, सारा धन सफ़ेद हो गया, सफ़ेद तो सफ़ेद था ही, काला धन भी सफ़ेद हो गया। उसके बाद तो काले धन का उत्पादन ही बंद हो गया है। मोदी जी रंगीन तबीयत के इंसान हैं। कपड़े भी रंग-बिरंगे ही पहनते हैं …तो उन्हें भारतीय इकोनोमी में भी यह श्वेत-श्याम का चक्कर पसंद नहीं आया।

वैसे भी विज्ञान की नजर में काले रंग का अर्थ होता है रंग विहीन और सफ़ेद रंग में सभी रंग समाहित होते हैं। तो मोदी जी ने पहले तो, आनन-फानन में रंग विहीन काले धन को समाप्त कर सारे धन को सफ़ेद बनाया, बैंकों में जमा करवाया और फिर रंग-बिरंगी मुद्रा छपवाई।” इस सीधी-सादी भाषा में व्यंग्य कहाँ गहरी चोट कर रहा है, यह समझना मुश्किल भी नहीं है, वर्षों बीत जाने पर भी विमुद्रीकरण की सोची-समझी साजिश में आम जनता का आम जीवन कितने भयावह संघर्षों में बीता, इस पूरे घटनाक्रम की तस्वीर सामने आ जाएगी और टीस गहरी होती रहेगी, लेकिन मोदी जी की रंगीन तबीयत! वो तो रंगीन ही बनी रहेगी, डि-मोनेटाइजेशन के बाद छपवाए गए रंग-बिरंगे नोटों की तरह।

डॉ. द्रोण कुमार शर्मा के व्यंग्य की बेहद ख़ास बात विरोधाभासों में निहित, और विरोधाभासों से निकलता व्यंग्य है। मोदीजी को उन्होंने ‘सरकार जी’ के रूप में प्रस्तुत किया है जो बहुत सटीक प्रतीत होता है, मोदीजी का मतलब ही सरकार है क्योंकि मोदीजी ही तो पूरी सरकार हैं, पूरी बीजेपी सरकार में कोई और कुछ है ही नहीं, पूरे देश में, समाज में यहाँ तक कि दुनिया भर में सिवाय मोदी के और कुछ है ही नहीं, सब जगह मोदी, मोदी है, तो व्यंग्यकार भला उनकी तारीफ क्यों न करे, तो द्रोण के व्यंग्यों में सरकार जी, सर जी की तारीफ़ है, उनके व्यवहार की, उनके खूबसूरत कपड़ों की, रंग-बिरंगी मोहक जैकेटों की, बेशकीमती कपड़ों, चश्मों, घड़ियों और ऐतिहासिक स्वनाम लिखित सूट की, जो उन्होंने ओबामा के सामने पहना, सब की पूरी तारीफें हैं पर यह तारीफ कब और कैसे व्यंग्य में बदल जाती हैं, यह आप उनके “मोदी जी इतिहास लिख रहे हैं” व्यंग्य में देख सकते हैं।

व्यंग्य मोदी जी की तारीफ से शुरू होता है, “हमें तो बहुत ही पसंद हैं हमारे अपने मोदी जी। उनकी सभी बातें हमें बहुत ही पसंद हैं, पर उनका ड्रेसिंग सेंस, वे ग़ज़ब ढा देते हैं। देखा नहीं है कितने शानदार कपड़े पहनते हैं। वे अपनी ड्रेसिज से भी इतिहास लिख रहे होते हैं। उनका वह दस लाख वाला सूट तो इतिहास में लिखा ही जाएगा। ओबामा भी देख कर आश्चर्य में पड़ गया था। बेचारे को शर्म आ रही थी कि कहाँ मैं सबसे अमीर देश का राष्ट्रपति और यहाँ मोदी जी के सामने फीका पड़ रहा हूँ।”

दुनिया के सबसे बड़े अमीर देश के राष्ट्रपति और वह भी ‘ओबामा’ के सामने मोदी जी का दस लाख वाला सूट पहनना – उस ओबामा के सामने , जो गाँधी जी के सिद्धांतों के प्रशंसक रहे हैं, उन गाँधी जी के, जो पश्चिम की शानो-शौकत और मौसम की मार के सामने अपने देश के उन गरीब देशवासियों, जिनके पास तन ढकने के लिए पूरे कपड़े नहीं थे, के प्रतीक के रूप में, एक धोती पहने डटे रहे, उसी गरीब देश की जनता ने जिस एक गरीब ‘चाय बेचने वाले’ को प्रचंड बहुमत दे कर सत्ता दिलाई, वह चाय बेचने वाला ‘सरकार जी’ दस लाख का मोदी मोदी लिखा सूट पहन कर अपनी अमीरी दिखा रहा है। व्यंग्य में यह सब कुछ नहीं कहा गया, सिर्फ एक वाक्य! और इतनी बड़ी दास्तां बयां कर जाता है।

द्रोण की भाषा कई बार हरिशंकर परसाई और प्रेमचंद की भाषा की याद दिलाती है, उनके व्यंग्यों में भी कहीं शब्दों के लिए जद्दोजहद नहीं नजर आता, लेखन में कोई जटिलता नज़र नहीं आती, उनका व्यंग्य-लेखन मेरी तेरी उसकी बात, तेरी मेरी सबकी भाषा में कहता हुआ है। अपनी बात को जटिल शब्दों में, कठिन शब्दों में, उलझा कर, घुमा-फिरा कर कहना आसान होता है, पर सीधी सादी भाषा में, इतनी सादगी से कहना हमेशा मुश्किल होता है।

आपके पास कंटेंट (कहने के लिए कुछ सृजनात्मक) न हो तो भी भाषा की जटिलता कुछ समय के लिए भरमा सकती है, पर आसान भाषा बिना कंटेंट के चल नहीं सकती और द्रोण के व्यंग्यों का कंटेंट है – रोजमर्रा की राजनीति, रोज की घटनाएँ और जनता पर, आम आदमी पर पड़ता उसका प्रभाव, तो उसे तो आम आदमी तक उसी की भाषा में पहुँचाना होगा और इस पुस्तक के सारे व्यंग्य ऐसा करने में सफल होते हैं।

हरिशंकर परसाई से बहुत प्रभावित द्रोण के व्यंग्यों में उनके लेखन की झलक कहीं कहीं दिखती है। जैसे ‘रिटायर्ड मून रिटर्न इंस्पेक्टर मातादीन हाथरस में’ उन का यह वाक्य “इंस्पेक्टर मातादीन को गर्व है कि वे नेहरू काल की उन कुछ गिनी-चुनी चीजों में शामिल हैं जिन्हें वर्तमान सरकार भी कुछ सम्मान दे देती है अन्यथा वर्तमान सरकार तो नेहरू काल के भारत को भी सम्मान नहीं देती है। सरकार का बस चलता तो यह सरकार भारत की बजाय किसी ऐसे देश पर शासन करना चाहती जहां पूर्व में नेहरू का शासन नहीं रहा होता।”, हरिशंकर परसाई के बहुत प्रसिद्ध वाक्यों की याद दिलाता है, जैसे कि परसाई जी का ‘गाय’ पर कहा गया सुप्रसिद्ध वाक्य या उनके “भीगते स्वाधीनता दिवस और ठिठुरते गणतंत्र दिवस” वाले वाक्य।

डॉ. द्रोण के व्यंग्य में मुहावरों को नया मूल्यवान रूप भी प्रदान किया गया है, जैसे अंधेर नगरी ‘चौकस’ राजा, और उनके व्यंग्य के शीर्षक भी कभी कभी गहरी व्यंग्यात्मक चोट करते हैं, जैसे कि स्टेन स्वामी: जब उन्होंने फादर ऑफ़ द नेशन को नहीं छोड़ा तो ‘फादर’ को क्यों छोड़ते’।

द्रोण के व्यंग्य अक्सर किसी भी बात को बार-बार कहते, रिपीट करते हुए प्रतीत होते हैं, कई बार तो उनमें पैरा के पैरा में बात रिपीट होती है, एक ही बात कई वाक्यों में बार-बार दोहराई जाती है। पर ऐसा लगता है कि द्रोण पहली बार में बात कहते हैं, दूसरी बार में उसे स्पष्ट करते हैं, तीसरी बार में उसके सन्दर्भ में कोई बात बताते हैं, चौथी बार में उसका लिंक किसी और चीज से जोड़ते हैं और पाँचवीं बार फिर उसी बात के गंभीर अर्थ के साथ लौट आते हैं।

जो समझ पाते हैं वे जानते हैं बात तो वही बार-बार कही जा रही है पर अर्थ हर बार गहरे हैं, कोई ऐसा व्यक्ति कह रहा है जो पुराण भी जानता है, मिथ भी समझता है, उसने इतिहास भी पढ़ रखा है और वह विज्ञान का विद्यार्थी भी रहा है। बात गहरी है, उसे बार बार कहना जरूरी है, सीधी लगती है पर समझने लायक है। लेकिन फिर भी कहीं कहीं ये दोहराव अखरने लगते हैं, इसलिए इस दोहराव से बचने की जरूरत है ताकि व्यंग्य की धार और पैनी हो सके।

सबसे बड़ी बात यह है कि डॉ. द्रोण कुमार शर्मा पेशे से चिकित्सक हैं, एलोपैथी डॉक्टर हैं, चिकित्सक होते हुए भी अपने तईं ही उन्होंने साहित्य पढ़ा है और सिर्फ पढ़ा ही नहीं है, गुना भी है, उसमें से अर्थवान कुछ निकाला भी है और उस लिखने की परंपरा को आगे बढ़ाया है, यह बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि ऐसा आम तौर पर साहित्य के विद्यार्थी भी नहीं कर पाते।

इस पुस्तक को इरफ़ान के कार्टूनों ने बहुत ख़ूबसूरत बना दिया है, और उसे सार्थक बनाते प्रतीत होते हैं।

गुलमोहर किताब की प्रिंटिंग बहुत खूबसूरत है जिसके कारण इस पुस्तक को हाथ में ले कर पढ़ने में मन लगता है।

(लेखिका कमला कुमारी राजभाषा विभाग में अधिकारी रही हैं।)

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