पुरखों को गोद लेने की चतुराई वंश बेल बताने नहीं, विषबेल फैलाने के लिए है

दुनिया भर में वंश चलाने के लिए वारिस गोद लेने का रिवाज है। जो संतानहीन होते हैं या स्वयं की संतान को जन्मने के झंझट से बचना चाहते हैं वे वारिस को गोद ले लेते हैं। मगर ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा और उसका मातृ-पितृ संगठन, दुनिया का सबसे बड़ा “स्वयं-सेवा-भावी” आरएसएस सबसे अलग है। वे पुरखे गोद लेते हैं या यूं भी कह सकते हैं कि दूसरों के पुरखों को उठाकर खुद को उनकी गोद में बिठाने की, अमूमन असफल, कोशिश करते हैं। क्योंकि इनकी खुद की जन्मना त्रासदी यह है कि इनके पास एक भी बंदा ऐसा नहीं है जिस पर ये गर्व करके कह सकें कि ये इनकी निरंतरता में हैं ।

इनकी दरिद्रता आनुवंशिक है। कोई 5 हजार वर्ष की भारत की समृद्ध वैचारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परम्परा में मनु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है जिसके साथ ये अपना नाभि-नाल का संबंध बताते हों या बता सकें। यहां तक कि वे सावरकर भी नहीं, जिन्हें वे उनके निधन के बाद से सर पर बिठाये घूम रहे हैं। सावरकर का लिखा कहा गवाह है कि जब तक – 1966 तक – वे जीवित रहे तब तक आरएसएस को गरियाते रहे, उसका मखौल उड़ाते रहे। जिन विवेकानन्द की तस्वीरों से यह कुनबा अपने दफ्तर-वफ्तर सजाता है वे तो पूरी तरह इनकी धारणाओं के विलोम और विरुद्ध दोनों हैं। कुनबे की अतिरिक्त समस्या यह है कि इनके विचार और संगठन शैली के जो असली अग्रज और जेनुइन कुलगुरु हैं, जिनसे प्रेरणा लेने की बात इनके सह-आदिपुरुष डॉ मुंजे स्वीकार भी चुके हैं, उन हिटलर और मुसोलिनी का उल्लेख करने की हिम्मत – कम से कम फिलहाल – इनमें है नहीं। ऐसे में इतिहास में सेंध लगाकर किसी स्थापित व्यक्तित्व को उड़ाकर, रंग-पोत कर उसे हड़पने के सिवा कोई चारा ही नहीं बचता।

इस कड़ी में इनके ताजातरीन “पुरखे” हैं राजा महेंद्र प्रताप सिंह ; वही अनूठे स्वतन्त्रता सेनानी , जो महज 28 साल की उम्र में 1 दिसंबर 1915 को काबुल में स्थापित हुयी भारत की पहली निर्वासित सरकार के राष्ट्रपति बने थे। भोपाल के मौलाना बरकतुल्लाह उनके प्रधानमंत्री थे। इनके अलावा देवबन्द के मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी गृहमंत्री, देवबन्द के ही मौलाना बशीर युद्ध मंत्री तथा तमिलनाडु के चेम्पक रामन पिल्लै विदेश मंत्री थे। वही राजा महेन्द्रप्रताप जो अपनी इस पूरी कैबिनेट के साथ उस समय ताजा ताजा हुयी रूस की क्रान्ति को देखने न सिर्फ वहां गए बल्कि लेनिन से भी मुलाक़ात की। अंग्रेजी राज से भारत की मुक्ति की लड़ाई की गाँठ सोवियत कम्युनिस्ट क्रान्ति और दुनिया के सारे उपनिवेशों के मुक्ति संग्राम के साथ बाँधी।

राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने खुद को कभी जाट राजा या जाट नहीं कहा, बल्कि खुद को खालिस हिन्दुस्तानी बनाए रखने के लिए अपना नाम ही ‘पीटर पीर प्रताप’रख लिया था। इसी नाम से उन्होंने एक किताब भी लिखी थी। मुड़सान के इस राजा की खासियत यह थी कि वे जहां भी जाते थे उनका एक मुस्लिम और एक दलित (वाल्मीकि) साथी उनके साथ रहता था। इस तरह जीवन भर जो जाति और सम्प्रदाय की पहचान से दूर रहे, किसान आंदोलन से डरे मोदी और उनकी भाजपा अब उन्हें हिन्दू जाट राजा साबित करना चाहती है। सर सैयद अहमद खान के जिस मोहम्मडन एंगलो कालेज में उनकी तालीम हुयी, जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी बनी, जिसकी तामीर के लिए राजा महेंद्र प्रताप ने जमीन और नकदी दोनों दी ; उसी के खिलाफ अपना प्रतीक चिन्ह बनाकर खड़ा करना चाहती है।

इससे एक बार फिर साफ़ हो जाता है की इनका मकसद वंश-बेल ढूंढना नहीं, विष-बेल रोपना है। पुरखों को गोद लेने की इस प्रवृत्ति के पीछे भी मंशा वंश बेल बढ़ाने की नहीं इन इतिहास-व्यक्तित्वों की ऊंची छवियों पर टांगकर विष बेल को आगे बढ़ाने की है। अब 1957 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी की जमानत जब्त कराकर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीते राजा महेंद्र प्रताप को सच्ची में याद ही करना था तो उनकी पूर्व रियासत मुड़सान या जिला मुख्यालय हाथरस में कुछ किया जा सकता था – मगर इसके लिए अलीगढ़ चुना गया ताकि स्वतन्त्रता संग्राम की इस असाधारण शख्सियत को भी ध्रुवीकरण का मोहरा बनाया जा सके। महेन्द्र प्रताप के प्रति इनका आदरभाव कितना था यह भी उसी दिन सामने आ गया था जिस दिन मोदी और योगी ने उन्हें जाट बताकर यूनिवर्सिटी का जलसा किया ; उस दिन भी अलीगढ़ से चंद किलोमीटर के फासले पर मुड़सान के किले में लगी राजा की मूर्ति के इर्द-गिर्द सफाई तक नहीं कराई गई थी ।

इस सारी धूर्ततापूर्ण कवायद के पीछे इनके या उनके प्रति अचानक उमड़ पड़ी निष्ठा या श्रद्धा नहीं है, निगाह विभाजन के लिए उनका इस्तेमाल कर जैसे भी हो वैसे चुनाव जीतने पर है। इसके दूरगामी नतीजों में इंडिया दैट इज भारत के नागरिकों की एकता अगर टूटती है तो टूटे ; अपना काम बनता भाड़ में जाए देश की एकता और उसकी जनता ।

पिछले चुनाव में राजभर वोटों के लिए वे राजा सुहेल देव को ढूंढ कर लाये थे। राजा सुहेलदेव को मोदी योगी सरकार राजा सुहेलदेव राजभर के तौर पर प्रचारित कर रही है जबकि इससे पहले उन्हें राजा सुहेलदेव पासी के तौर पर भी ख़ूब प्रचारित किया गया। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो राजा सुहेलदेव को राजपूत समाज का मानते हैं। ठीक इसी तर्ज पर अब राजा मिहिर भोज को लेकर आया जा रहा है। इन दिनों इन्हे लेकर दिल्ली की करीबी दादरी से मुरैना होते हुए ग्वालियर तक रार ठनी हुयी है । मिहिर भोज की मूर्तियों के आगे उनका नाम लिखे जाने को लेकर तलवारें खिंची हुयी हैं। गूजर नेता कह रहे हैं कि ठाकुरों ने उनके बैनर फाड़ दिये, ठाकुर नेता कह रहे हैं कि गूजरों ने उनकी बसें फोड़ दीं।

टकराव के केंद्र में 8 वीं सदी से 11 वीं सदी तक उस वक़्त के देश के बड़े भूभाग पर राज करने वाले गुर्जर-प्रतिहार वंश के, अपने बाप को मारकर राजा बने मिहिर भोज हैं, जिन्होंने कोई आधी शताब्दी तक राज किया था और नर्मदा किनारे आखिरी साँस ली । हालिया पंगा यह है कि ठाकुर उन्हें ठाकुर मानते हैं और गुर्जर उन्हें गुर्जर ; सो रार मची है !! रार भी ऐसी वैसी नहीं है – इत्ती कर्री है कि एक जिले से लगी धारा 144 बाकी जिलों में फैलती जा रही है । दोनों ही तरफ से खाई चौड़ी करने वाले, हरेक जाति, समुदाय, गोत्र को एक एक मूर्ति, एक एक खम्भा थमाकर आपस में लड़ाने की शकुनि विधा में पारंगत वही लोग हैं जो सिंधुघाटी के जमाने से अब तक जम्बूद्वीपे भारतखण्डे में जो भी बना है उस सब को बेच-बाच कर हिन्दुत्व पर आधारित हिन्दूराष्ट्र बनाना चाहते हैं। इसी तरह की एक पुड़िया हाल ही में योगी ने गोरखपुर के एक समुदाय, कुर्मी-सैंथवार, को पकड़ा दी है। उन्हें क्षत्रिय बता दिया है और उनकी लामबन्दियाँ शुरू कर दी हैं।

अलग अलग जातियों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की यही चतुराई यह कुनबा पहले हरियाणा में 35 बनाम 1 के नाम पर जाट विरुद्ध अन्य के रूप में और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में जाटव विरुद्ध बाकी दलित और यादव विरुद्ध बाकी ओबीसी के नाम पर आजमा चुका है। अब उत्तरप्रदेश में राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर वह है भी और नहीं भी है – टू बी ऑर नॉट टू बी – की शेक्सपीरियन उक्ति के स्वरुप में लेकर आया है। काफी पहले 2014 में ही आरएसएस प्रमुख मोहन भगवत भाजपा प्रवक्ता डॉ. विजय सोनकर शास्त्री द्वारा लिखी हिंदू चर्मकार जाति, हिंदू वाल्मीकि जाति व हिंदू खटीक जाति का संघी “इतिहास” बताने वाली तीन पुस्तकों का विमोचन कर एक नयी परियोजना की शुरुआत कर चुके हैं ; जिसका बीज सूत्र जोड़ना नहीं अपनी अपनी किताब लेकर, अपने अपने छोटे बड़े देवता और भगवान् की तस्वीरें उठाये स्वयं की श्रेष्ठता के उन्माद में एक दूसरे के खिलाफ खड़े करना है।

सुकून की बात है कि देश के मेहनतकशों ने इस साजिश को समझना शुरू कर दिया है। मुज़फ्फरनगर में 5 सितम्बर को हुयी “किसान मजदूर महापंचायत ” के 27 सितम्बर के भारतबंद के आह्वान को जिस तरह की जबरदस्त सफलता मिली है वह विभाजन की इस चकरघिन्नी को थामने की दिशा तक जाएगी और इसी महापंचायत के आह्वान मिशन उत्तरप्रदेश – मिशन उत्तराखण्ड में कुछ महीनो बाद दोनों प्रदेशों को भाजपा राज से मुक्त करायेगी। जाहिर है कि उसके बाद संघर्ष आगे ही बढ़ेगा और जरूरत नहीं कि अभिशाप से मुक्त कराने के लिए 2024 तक इन्तजार करना पड़े।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

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