‘बिहार चुनाव’ के लिए की गयी ‘मोदी को किसानों का भगवान’ बनाने की ब्रॉन्डिंग

जो कोरोना से नहीं घबराये, प्रवासी मज़दूरों की दुर्दशा से बेचैन नहीं हुए, बेरोज़गारी और नौकरियाँ ख़त्म करने वाली महामारी से परेशान नहीं हुए, औंधे मुँह गिरी अर्थव्यवस्था से विचलित नहीं हुए, उस परम प्रतापी सत्ता को अचानक ऐसा क्या हुआ कि उसने उस संसद की धज़्ज़ियाँ उड़ाने का क्रूर रास्ता चुना जो संख्या-बल की बदौलत ग़ुलामों की तरह उसकी मुट्ठी में है? कृषि और श्रमिकों से जुड़े क़ानूनों को ज़बरन पारित करवाने की नौबत आख़िर क्यों और कैसे आयी? ख़ासकर तब, जबकि सरकार के सामने लोकसभा और राज्यसभा में बहुमत की कोई चुनौती नहीं थी। फिर आख़िर ऐसा क्या हुआ कि मोदी सरकार को संसद में दबंग और लठैत बनना पड़ा? राज्यसभा में 20 सितम्बर 2020 को जैसा ऐतिहासिक नज़ारा दिखायी दिया, उसकी असली वजह इन्हीं सवालों के जवाब में छिपी हुई है।

क्यों फूटी आँख नहीं सोहाती राज्यसभा?

राज्यसभा को परिपक्व और वरिष्ठ राज नेताओं का सदन माना जाता है। ये राज्यों के विधायकों का प्रतिनिधित्व करने वाला सदन है इसीलिए विधानसभाओं की दलीय स्थिति के अनुसार गठित होती है। यहाँ राज्यों के मुद्दे और सरोकार प्रमुखता पाते हैं। केन्द्रीय स्तर पर राज्यों की राजनीति की छटा भी यहीं नज़र आती है। राज्यसभा को लोकसभा की तरह भंग नहीं किया जा सकता। इसीलिए यहाँ पेश विधेयक कभी स्वतः समाप्त होते हैं। लोकसभा भंग रहने की दशा में इसी सदन पर पूरी संसद का दारोमदार होता है। इसके सदस्यों का कार्यकाल छह साल का होता है। इसके एक-तिहाई सदस्य हर दूसरे साल विधायकों के वरीयता-मत से चुने जाते हैं।

उपराष्ट्रपति, राज्यसभा के पदेन संरक्षक होते हैं, लेकिन इसके सदस्य नहीं होते। हालाँकि, इन्हें दोनों सदनों के सांसद चुनते हैं। जब उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति का दायित्व निभाना होता है, तब उनकी ज़िम्मेदारी उप-सभापति को मिल जाती है। ऐसी अनेक विशेषताओं की वजह से राज्यसभा को ऊपरी सदन या अपर हाउस कहा जाता है। राज्यसभा की बहस के स्तर को भी अपेक्षाकृत बेहतर माना जाता है, क्योंकि अक्सर ऐसे अनुभवी नेता इसके सदस्य बनते हैं जो किसी वजह से लोकसभा में नहीं पहुँच पाते लेकिन अपनी पार्टी में रसूख रखते हैं।

बीजेपी जब विपक्ष में थी, तब उसके कई शूरमा इसी सदन की शान बढ़ाते थे। ख़ूब संसदीय दाँव-पेंच आज़माते थे और ज़ोरदार तर्कों के साथ सरकार की जवाबदेही तय करते थे। लेकिन मोदी युग में बीजेपी का चाल-चरित्र और चेहरा इतना बदल गया कि उसे ऊपरी सदन फूटी आँख नहीं सोहाता। हालाँकि, सरकार के तमाम ‘होनहार’ मंत्री इसी सदन के सदस्य हैं। अपने ‘एक से बढ़कर एक’ वक़्ताओं से सुसज्जित होने के बावजूद इस सदन में बीजेपी के पास अपने बूते वाला बहुमत नहीं है। इसीलिए यहाँ उसे मनमानी करने में दिक्कत होती है। वैसे यहाँ का अल्पमत बीजेपी के लिए कभी बेड़ियाँ नहीं बना। उसे ‘दोस्त’ आसानी से मिलते रहे। तभी तो अनुच्छेद-370 और तीन तलाक़ जैसे विवादित मामलों में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई। अभी कृषि और श्रमिक क़ानूनों को लेकर भी बीजेपी को कोई दिक्कत नहीं होती। बशर्ते, उसने सब्र दिखाया होता।

चीन-नेपाल बने कोढ़ में खाज़

लिहाज़ा, असली सवाल तो यही है कि आख़िर मोदी सरकार ने अपेक्षित सब्र क्यों नहीं दिखाया? उसने उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह से बेहद पतित, अशोभनीय और असंवैधानिक आचरण क्यों करवाया? कृषि क़ानूनों को दबंगई से पारित करने का रास्ता क्यों चुना कि सड़कों पर सरकार की मिट्टी-पलीद हो रही है? टूटे-बिखरे विपक्ष को एकजुट होने का मौक़ा मिल रहा है? इन तमाम सवालों का इकलौता जवाब है ‘बिहार चुनाव!’ दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद फरवरी में पार्टी दंगों वाले अपने चिरपरिचित ब्रह्मास्त्र को आज़माकर देख चुकी है। कोरोना लॉकडाउन ने उसके लिए कोढ़ में खाज़ का काम किया। रही-सही कसर चीन-लद्दाख और नेपाल ने पूरी कर दी। क्योंकि शायद ही दुनिया में कोई हो जिसने 19 जून 2020 वाले इस भाषण को सच्चा माना कि ‘…न वहां कोई हमारी सीमा में घुस आया है और न ही कोई घुसा हुआ है, न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्जे में है’। इसी तेवर को सारी कहानी का टर्निंग प्वाइंट मान लीजिए।

इत्तेफ़ाकन, अब तक कोरोना को 21 दिवसीय महाभारत में परास्त करने, ताली-थाली, दीया-पटाखा और पुष्प-वर्षा का ख़ुमार टूट चुका था, क्योंकि लॉकडाउन कहर बरपा करने लगा था। ‘संकल्प से सिद्धि’ की बची-खुची बातें 15 अगस्त को ऐतिहासिक लाल क़िले के सम्बोधन से उड़न-छू हो चुकी थीं। आत्मनिर्भरता वाली काठ की हाँडी तो अभी चढ़ी ही थी कि चीन ने पीठ में छुरा भोंक दिया। गलवान घाटी में 20 सैनिकों की शहादत से ऐसा हाल हुआ कि बालाकोट की तरह ‘घर में घुसकर मारने’ की बातें दुश्वार हो गयीं। ले-देकर कड़े फ़ैसले लेने वाले खिसियानी बिल्ली की तरह चीनी एप्स पर बैन लगाकर ठंडे पड़ गये।

‘तेज़ी से कड़े फ़ैसले लेने’ वाला नैरेटिव

सरकार पर ऐसे परिवेश में संसद का सत्र बुलाने का संवैधानिक दबाव था। रस्म अदायगी के लिए 18 दिनों के मॉनसूत्र सत्र आयोजित तो हुआ, लेकिन भीतर-खाने सरकार सत्र को हफ़्ते भर भी नहीं चलाना चाहती थी। क्योंकि हर काम को छवि-निर्माण और ब्रॉन्डिंग की तरह पेश करने वालों को अब हवा के ख़िलाफ़ बहने का पुख़्ता अहसास हो रहा था। इसीलिए तय हुआ कि कृषि क़ानूनों को ऐसे अन्दाज़ में पारित किया जाए जिससे ‘मोदी जी को किसानों का भगवान’ बनाकर पेश किया जा सके। इससे ये ‘नैरेटिव’ बनाना था कि यदि बिहारियों ने इस ईश्वर के वचनों के मुताबिक़, नीतीश सरकार को बहाल नहीं रखा तो अनिष्ट निश्चित है। मानों देव-लोक कुपित होकर वज्रपात करने लगेगा। ज़ाहिर है, महा-पिछड़ा बिहार अपने सर्वनाश से बचने के लिए वैसा जनादेश ही क्यों नहीं देगा, जैसा भगवन उसे बताएँगे!

रोचक ये भी है कि सरकार के सामने आनन-फ़ानन में कृषि क़ानूनों को पारित करने की कोई मज़बूरी नहीं थी। अध्यादेश तो प्रभावी थे ही। विपक्ष ने इस चालबाज़ी को भाँप लिया। उसने विधेयक में खोट ढूँढ़कर उसे संसदीय समिति को भेजने की माँग उठा दी। इस माँग को मानने का मतलब होता कि बिहार में इस्तेमाल होने वाला तुरुप का पत्ता हाथ से निकल जाता। उधर, सरकार के ना-नुकुर का आभास पाकर विपक्ष ने आक्रोश भरने में सफलता पा ली। इसी वक़्त, यूपी-बिहार के बेरोज़गारों ने प्रधानमंत्री के जन्मदिन को ‘बेरोज़गारी दिवस’ का नाम देकर और सोशल मीडिया पर विश्व-गुरु के लिए ‘डिस्लाइक’ की बाढ़ लाकर ऐसा रंग में भंग डाला कि सब्र का बाँध टूट गया। 

एक साथ हुए इन हमलों से चक्रवर्ती सम्राट हांफ़ते दिखे। लुभावने मोर से भी अपना तनाव नहीं मिटा सके। नोटबन्दी के बाद प्रधानमंत्री निवास के गोल पत्थरों पर योगाभ्यास करने से जो आराम मिला था, वो औषधि भी अबकी बार जवाब दे गयी। ख़ुद को सेवक बताने वाला राजा ऐसा बदहवास हुआ कि उसने अपने सिपाहियों को फ़ौरन कृषि क़ानून बनाने का आदेश दे दिया। इसे लेकर जन्मजात दोस्त अकाली दल की समझाइश भी जब बेअसर साबित हुई तो हरसिमरत कौर ने मंत्री-पद को लात मार दी। फिर क्या था बन गयी रणनीति कि राज्यसभा के क़ायदे-क़ानून, बहस-चर्चा और परम्परा-परिपाटी को ताक़ पर रखकर फ़ौरन विधेयक पारित करवाये जाएँ। यहाँ तक कि मत-विभाजन भी नहीं होना चाहिए। वर्ना, ‘कड़े फ़ैसले लेने’ वाली छवि का कचरा हो जाएगा।

फ़िल्मी पटकथा जैसा तमाशा

सरकार के रणनीतिकार जानते थे कि इससे शोर-शराबा और हंगामा की ऐतिहासिक अव्यवस्था पैदा हो जाएगी। लिहाज़ा, इसे ही ‘आपदा को अवसर’ में बदलने वाले मंत्र की तरह पेश किया गया, ताकि हंगामा करने वाले सांसदों को चटपट निलम्बित करके ‘तेज़ी से कड़े फ़ैसले लेने वाली छवि’ को ही उभारा जाए। बाक़ी सब कुछ फ़िल्मी पटकथा के अनुसार हुआ। ऐन वक़्त पर राज्यसभा टीवी की आवाज़ यूँ ही ग़ायब (म्यूट) नहीं हुई। आठ सदस्यों के निलम्बन के बाद विपक्ष को तो संसद का बहिष्कार करना ही था। बस, फिर क्या था, दो दिन में राज्यसभा ने बुलेट ट्रेन वाली रफ़्तार से 15 विधेयकों को दनादन पारित कर दिया। इससे साबित हो गया कि कड़े फ़ैसले लेने वाले गुड्डे-गुड़िया के ब्याह से भी ज़्यादा आसानी और तेज़ी से क़ानून बना सकते हैं।

पश्चिम बंगाल का रास्ता बिहार से

उधर, शिवसेना की तरह अकालियों को भी बीजेपी से अपनी पैदाइशी दोस्ती होने का बहुत ग़ुमान था। इन्हें महबूबा की आपबीती भी याद नहीं रही। बाक़ी अब तो बिहार के नतीज़े बताएँगे कि नीतीश बाबू जैसे दग़ाबाज़ दोस्त का बुढ़ापा कैसा कटेगा, क्योंकि भगवा खेमे के लिए 2015 में मिले घाव अब भी हरे ही हैं। इन्हें तो बस सही मौके का इन्तज़ार है जब ये नीतीश बाबू को भी उनकी औक़ात दिखा देंगे। इतिहास गवाह है कि भगवा-नेतृत्व किसी का उधार नहीं रखता। दो-चार मुक़दमों से ही सुशासन बाबू ढेर हो जाएँगे। मध्य प्रदेश की तरह उनकी पार्टी में तोड़-फोड़ मचा दी जाएगी। क्योंकि बीजेपी जानती है कि उसके लिए पश्चिम बंगाल का रास्ता बिहार से ही खुल पाएगा। लिहाज़ा, संसद की जान जाती हो तो जाए, लेकिन बिहार तो हर क़ीमत पर चाहिए। यही वजह है कि चुनाव की डुगडुगी बजते ही मेनस्ट्रीम मीडिया पर चुनावी सर्वे वाला रामधुन बजा दिया गया कि बिहारियों के लिए सुशासन ‘मज़बूरी और ज़रूरी’ दोनों है।

संख्या-बल से नहीं लोकलाज से चलती है संसद

हमारी संसद के तीन अहम काम हैं। पहला – क़ानून बनाना, दूसरा – सरकार की जबावदेही तय करना और तीसरा – एक-दूसरे की आँखों में आँखें डालकर राजनीतिक बहस और चर्चा का सर्वोच्च मंच मुहैया करवाना। विपक्ष जहाँ ‘राजनीति’ को प्राथमिकता देता है, वहीं सत्ता-पक्ष क़ानून बनाने के आगे बाक़ी दोनों दायित्वों को कमतर बताना चाहता है। कौन सत्ता में है और कौन विपक्ष में, इससे संसदीय ‘राजनीति’ के तेवरों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। इसीलिए राजनीतिक दाँव-पेंच में जीत-हार तय होने के बाद ही बाक़ी काम हो पाते हैं। दरअसल, संसद के संचालन से जुड़े सारे नियम-क़ायदों में सिर्फ़ ‘संख्या-बल’ ही हावी रहती है। यानी, अगर सत्ता पक्ष ये चाह ले कि संसद नियमों से ही चलेगी तो विरोध जताने वाले सांसदों का निलम्बन तो छोड़िए, उन्हें बर्ख़ास्त करना भी बहुत आसान है।

अपने सदस्यों की बर्ख़ास्तगी का फ़ैसला भी ख़ुद संसद ही लेती है। लोकसभा में तो सत्ता पक्ष का बहुमत लाज़िमी है। लिहाज़ा, वो जब चाहे ‘रुल-बुक’ का चाबुक चला सकती है। हालाँकि, लोकतांत्रिक मर्यादाओं में सत्ता पक्ष से हमेशा ये अपेक्षा रहती है कि वो विपक्ष का भरोसा जीतकर सदन चलाए और ज़िम्मेदारियाँ निभाये। इसीलिए व्यवहारिक तौर पर संसद संख्या-बल से नहीं बल्कि लोकलाज से चलती है। विपक्ष हमेशा हंगामों से ही सरकार पर दबाव बनाता है। यही संसदीय लोकतंत्र का ख़ूबसूरत पहलू है। लेकिन यदि किसी को इसी ख़ूबसूरती से एलर्ज़ी हो तब? किसी को सवाल पूछने वाले हर तत्व से एलर्ज़ी हो तब? 

सरकार ने बता दिया है कि चाहे विपक्ष हो या पत्रकार या किसान और बेरोज़गार या सहयोगी दल, जो भी सवाल पूछने की ज़ुर्रत करेगा, उसका हश्र दूध की मक्ख़ी की तरह सबके सामने होगा। कोई इसे तानाशाही माने तो मानता रहे। वैसे, सत्रावसान होते ही ‘टाइम’ मैगज़ीन ने ‘दुनिया की 100 प्रभावशाली हस्तियों में शामिल’ प्रधान सेवक के चेहरे के पीछे छिपी कई परतों को उधेड़ कर रखा दिया। चलते-चलते, बाबरी मस्जिद मामले में आये अदालती फ़ैसले और हाथरस और बलरामपुर वाली निर्भयाओं के साथ हुई क्रूरता से भी मोदी जी की ब्रॉन्डिंग का कबाड़ा होना तय है क्योंकि अब सवाल ये खड़ा हो गया कि क्या ये घटनाएँ भी ‘एक्ट ऑफ़ गॉड’ ही समझी जाएँगी?

(मुकेश कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

मुकेश कुमार सिंह
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मुकेश कुमार सिंह