कृषि महज उपभोग का एक साधन नहीं बल्कि संस्कृति है, इसकी उपेक्षा पूरे देश को पड़ सकती है भारी

2014 के लोकसभा चुनाव में अनेक लोक लुभावन वादों के बीच, किसानों के लिये सबसे प्रिय वादा भाजपा का था, 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करना। साथ ही एमएस स्वामीनाथन आयोग की संस्तुतियों को लागू करना। लेकिन आज छह साल बाद जब 5 जून, 2020 को सरकार ने किसानों से जुड़े, तीन अध्यादेशों को जारी किया, जो अब राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून बन गए हैं, तो वे न केवल किसान विरोधी हैं बल्कि, खुलकर पूंजीपतियों के समर्थन में गढ़े गए कानून दिख रहे हैं।

इन कानूनों को लेकर, किसानों के मन मे अनेक संशय हैं। वैसे तो इन कानूनों को लेकर, अध्यादेशों के जारी होने के दिन से ही, किसान आंदोलित थे पर जब राज्य सभा से विवादित माहौल में, यह तीनों बिल ध्वनि मत से पारित कर दिए गए तो सरकार की ज़िद और किसान विरोधी रवैये को लेकर देश भर के किसान भड़क उठे। 25 सितंबर 2020 को समस्त किसान संगठनों द्वारा, भारत बंद का आयोजन किया गया था, और यह आयोजन सफल भी रहा। 

हालांकि सरकार अब भी यह कह रही है कि, यह कानून किसान हित मे हैं, पर वह इन कानूनों के सन्दर्भ में निम्न संदेहों का समाधान नहीं कर पा रही है। 

● किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिले, इसके लिये इन कानून में कोई वैधानिक प्रावधान क्यों नहीं है ? 

● कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग वाले कानून में आपसी विवाद होने की स्थिति में, किसानों के लिये सिविल न्यायालय जाने का प्रावधान क्यों नहीं है ? 

● कॉन्ट्रैक्ट में विवाद होने पर, न्यायपालिका के बजाय, एग्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट को ही क्यों यह विवाद तय करने की जिम्मेदारी दी गयी है ? 

● मंडी पर टैक्स और मंडी के बाहर कोई टैक्स नहीं, इससे मण्डियां धीरे-धीरे बंद हो जाएंगी और कॄषि उपज पर कम्पनी और व्यापारियों का एकाधिकार हो जाएगा, जिससे अंत में सरकारी खरीद कम होने लगेगी जिसका परिणाम, सरकारी अन्न भंडारण और पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम पर भी पड़ेगा, परिणामस्वरूप किसान पूरी तरह से बाजार के रहमोकरम पर हो जाएगा। इस सन्देह के निवारण के लिये कानून में क्या प्रावधान किये गए हैं ? 

● अनाज, आलू, प्याज सहित अन्य वस्तुओं की जमाखोरी बढ़ जाएगी क्योंकि आवश्यक वस्तु अधिनियम में, संशोधन के बाद, यह सब जिंस आवश्यक वस्तु की श्रेणी से बाहर आ गयी हैं। अब इस संशोधन के अनुसार, इनकी जमाखोरी पर कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं रहा है। इससे बाजार में इन वस्तुओं का जब चाहे, जमाखोर और मुनाफाखोर व्यापारियों द्वारा कृत्रिम अभाव पैदा कर के मुनाफा कमाया जा सकता है। जिसका सीधा असर न केवल किसानों पर पड़ेगा, बल्कि हर उपभोक्ता पर पड़ेगा। ऐसी स्थिति में सरकार के पास ऐसा कौन सा कानूनी मेकेनिज़्म अब शेष है जिससे यह प्रवृत्ति रोकी जा सके ? 

2014 में लोकप्रियता के शिखर पर खड़ी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार, विगत छह सालों में अपनी किसान विरोधी कुछ नीतियों के कारण, किसानों के मन में, अपनी अच्छी छवि नहीं बना पाई है। यह स्थिति 2014 लोकसभा चुनाव के बाद ही बनने लगी थी जब केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून को संसद में पेश कर दिया था। पूंजीपतियों के हित में, पूंजीपतियों के ही इशारे पर ड्राफ्ट किये गए उक्त भूमि अधिग्रहण कानून ने, किसानों को सरकार के प्रति निराशा से भर दिया और उन्हें सशंकित कर दिया। आगे चलकर किसानों की उत्तरोत्तर खराब होती हुयी स्थिति ने उन्हें सड़कों पर उतरने के लिए बाध्य कर दिया। 2014 के बाद, आंदोलन की प्रभावी शुरुआत महाराष्ट्र के नासिक जिले में हुयी, जब किसानों ने शहरों में फल, सब्जी और दूध की आपूर्ति रोक दी थी। उसके बाद और भी आंदोलन जगह-जगह होने लगे, जिनका संक्षिप्त उल्लेख नीचे किया जा रहा है। 

25 सितंबर का भारत बंद, 2014 के बाद होने वाला कोई, पहला किसान आंदोलन नहीं है, बल्कि 2014 के बाद से ही देश भर में कहीं न कहीं, या तो स्वामीनाथन आयोग की संस्तुतियों को लागू करने को लेकर, या कर्जमाफी की मांग को लेकर या आत्महत्याओं से उपजे असंतोष को लेकर, या फसल बीमा में अनेक अनियमितताओं को लेकर, किसान देश में कहीं न कहीं आंदोलित होते रहे हैं। लेकिन इन नए कृषि कानूनों ने, देश भर के किसानों को आर-पार की लड़ाई के लिये एकजुट कर दिया है।

अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार 2014 से 2016 के बीच किसानों के आंदोलन से जुड़े 4837 मामले पुलिस अभिलेखों में दर्ज हैं। यह वृद्धि इसके पहले के आंकड़ों की तुलना में 700 % से अधिक है। 25 सितंबर के बंद के पहले महाराष्ट्र में किसानों का नासिक से मुंबई मार्च, मध्यप्रदेश के मन्दसौर में किसानों द्वारा किया गया आंदोलन जिसमें पुलिस की गोली से कई किसान हताहत हो गए थे, जैसे बड़े आंदोलनों के भी आंकड़े इस संख्या में शामिल हैं।

सरकार के इस आश्वासन से कि यह कानून किसान हित में है और वह किसानों का उपकार करना चाहती है, पर किसान सरकार की इस बात से बिल्कुल ही सहमत नहीं है और वे उन सभी संदेहों को बार-बार उठा रहे हैं, जिन्हें मैंने इस लेख के प्रारंभ में ही लिख दिया है। सरकार के प्रति किसानों की विश्वसनीयता इतनी कम हो गयी है कि वे इन लोक लुभावन आश्वासनों पर कोई भरोसा नहीं कर पा रहे हैं। अब यह किसान असंतोष इतना व्यापक हो गया है कि सरकार अब इसे नजरअंदाज करने की स्थिति में भी नहीं है। 

2014 के पहले होने वाले किसान आंदोलन अधिकतर स्थानीय समस्याओं पर आधारित हुआ करते थे और वे अक्सर स्थानीय मुद्दों पर विभाजित भी हो जाते हैं। बड़े किसान संगठन भी, कभी गन्ने के बकाया मूल्यों को लेकर, तो कभी प्याज की घटती कीमतों को लेकर, तो कभी आलू आदि की भंडारण की समस्याओं को लेकर, तो कभी कर्ज माफी की मांग को लेकर अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में आंदोलन करते रहते हैं। देशव्यापी एकजुटता और किसी कानून के सैद्धांतिक विरोध से उत्पन्न देशव्यापी आक्रोश का उनमें अभाव भी रहता था। लेकिन इन तीन कृषि कानूनों के बाद, अलग-अलग मुद्दों पर आधारित किसानों के आंदोलन न केवल एकजुट और देशव्यापी हो गए बल्कि वे सरकार के किसान विरोधी दृष्टिकोण के खिलाफ जबरदस्त और निर्णायक लड़ाई लड़ने के लिये आज लामबंद नज़र आ रहे हैं जिसकी उपेक्षा करना सरकार के लिये सम्भव नहीं हो पायेगा। 

2014 में जब नरेंद्र मोदी ने किसानों की मूल समस्याओं जैसे स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के आधार पर एमएसपी तय करने और 2022 में किसानों की आय को दुगुना करने की बात कही तो किसानों को उम्मीदें बहुत बढ़ गयी थीं। देश का माहौल ही ऐसा बन गया था कि लगने लगा था कि अब सभी समस्याओं का समाधान आसानी से हो सकेगा। लोग उम्मीदों से लबरेज थे और उनकी अपेक्षाएं इस नयी सरकार और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बहुत बढ़ गयीं थीं। लोगों को लगा कि अब तक सरकार द्वारा बनाये गए बजट में अक्सर उद्योग जगत और फिर संगठित क्षेत्र के कामगार प्रमुखता से अपना स्थान पाते रहते थे लेकिन अब किसान उपेक्षित नहीं रह पाएंगे।

पहली बार किसानों को लगा कि प्रधानमंत्री के रूप में एक ऐसा नेता उनके बीच आया है जो न केवल स्वामीनाथन आयोग की बहुत दिनों से लंबित सिफारिशों को पूरा करेगा बल्कि 2022 में उनकी आय को दुगुनी करने के लिये हर सम्भव कोशिश करेगा। लेकिन यह मायाजाल लंबा नहीं चल सका। 2017-18 तक आते आते किसानों में निराशा फैलने लगी। अब जब अचानक 5 जून को यह तीनों अध्यादेश सरकार ने जारी कर दिये तो किसानों की सारी उम्मीदें धराशायी हो गईं और वे खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगे।

जून 2017 में मध्यप्रदेश के मन्दसौर में किसानों के प्रदर्शन पर पुलिस ने उसे नियंत्रित करने के लिये बल प्रयोग किया और पुलिस द्वारा गोली चलाने से 6 किसान मारे गए और कुछ घायल हुए। इस घटना की व्यापक प्रतिक्रिया मीडिया और सोशल मीडिया में हुयी। उस समय मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार थी, जो बाद में होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता से बाहर हो गयी और कांग्रेस की सरकार सत्ता में आयी। हालांकि कांग्रेस की सरकार भी फरवरी में संगठित दलबदल के कारण गिर गयी और फिर से भाजपा के शिवराज सिंह चौहान प्रदेश के मुख्यमंत्री बने जो मंदसौर गोलीकांड के समय भी मुख्यमंत्री थे। इस गोलीकांड से भाजपा की किसान विरोधी छवि और उभर कर सामने आ गयी। 2017 में ही दिल्ली में जंतर मंतर पर लम्बे समय तक धरने पर तमिलनाडु के किसान बैठे रहे और व्यापक जनचर्चा के बाद भी, सरकार ने उनकी उपेक्षा की। 

जब मन्दसौर गोलीकांड हुआ तो टीवी मीडिया द्वारा बार-बार यह नैरेटिव तय करने पर कि तमिलनाडु के किसानों का जंतर-मंतर आंदोलन एक तमाशा और मंदसौर गोलीकांड, किसानों की उद्दंडतापूर्वक कार्यवाही पर पुलिस की एक वैधानिक कार्यवाही थी, लेकिन कुछ टीवी चैनलों में सरकार के पक्ष में हवा बनाने के बाद भी, सरकार का किसान विरोधी स्वरूप और उजागर होता रहा। इसी बीच सरकार नोटबन्दी की घोषणा कर चुकी थी, जिसका असर, उद्योगों और बाजार पर पड़ना शुरू हो गया था। देश की अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट मिलने लगी थी। सरकार ने किसानों से 2014 में किये वादे पर चुप्पी ओढ़ ली थी।

सरकार की किसान विरोधी सोच और किसान हितों की लगातार हो रही इस उपेक्षा ने, किसानों को उद्वेलित और उन्हें भाजपा के खिलाफ लामबंद करना शुरू कर दिया। महाराष्ट्र और राजस्थान में स्थानीय किसान संगठनों ने छोटी-छोटी पदयात्राएं आयोजित करनी शुरू कर दी और सरकार पर, उसके द्वारा किये गए वादे को पूरा करने के लिये दबाव डालना शुरू कर दिया। कुछ टीवी चैनल तो सरकार के साथ थे पर किसान संगठनों और उसके समर्थन में उतरे विरोधी राजनीतिक दलों ने किसान समस्या को प्रमुखता से उजागर करना शुरू कर दिया और इस अभियान में, सोशल मीडिया का भरपूर लाभ किसान संगठनों ने उठाया। 

किसान असंतोष ने किसानों के हर वर्ग को एकजुट करने में अपनी अहम भूमिका निभाई और देश भर के लगभग सभी किसान संगठनों ने मिल कर, एक सुनियोजित संगठनात्मक ढांचा बनाना शुरू कर दिया। इस ढांचे में ग्रामीण क्षेत्र में खेती से ही जीवन यापन करने वाले तबके से लेकर नगरों में कृषि उत्पाद पर निर्भर रहने वाले लोगों को एकजुट करने की एक सुव्यवस्थित मुहिम चलाई गयी। इस एकता का परिणाम यह हुआ कि यह संगठन ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर नगरों तक फैल गया। भारी संख्या में किसानों के आंदोलन शुरू होने लगे और इन आंदोलनों में बड़े किसानों से लेकर छोटे किसानों तक ने अपनी अपनी समस्या को उठाने और उन समस्याओं के समाधान के लिये अपनी आवाज़ उठानी शुरू कर दी।

इसी का परिणाम यह हुआ कि, जून 2017 के मंदसौर गोलीकांड के बाद ही देश के लगभग 70 किसान संगटन एक झंडे के नीचे आ गए और शीर्ष स्तर पर अखिल भारतीय किसान संघर्ष कोऑर्डिनेशन कमेटी ( एआइकेएससीसी ) की स्थापना हुयी, जिसमें इस समय देश भर के कुल 250 छोटे बड़े किसान संगटन सम्मिलित हैं। इस कोऑर्डिनेशन कमेटी में छोटे, मझोले, बड़े किसानों के साथ साथ भूमिहीन किसान तथा खेत मज़दूर भी सम्मिलित हैं। इन संगठनों में क्षेत्र, उपज, राजनीतिक सोच और तरह-तरह की विविधिताओं के बावजूद एक बात पर सहमति है कि कृषि को लेकर सरकार का रवैया मूलतः कृषि और किसान विरोधी है। 

किसानों की शीर्ष संस्था के रूप में गठित किसान संघर्ष कोऑर्डिनेशन कमेटी ने किसान राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात किया है। इसने न केवल सरकार से उन वादों को पूरा करने की प्रबल मांग की है, जो सरकार ने अपने संकल्पपत्र मे खुद ही सम्मिलित किये हैं, बल्कि इसने सरकार से कृषि सुधार के लिये नए विधेयकों को लाने की भी मांग की और यही नहीं उन विधेयकों के प्रारूप भी तय किये और साथ ही अपनी मांगों के समर्थन में राजनीतिक दलों को भी सहमत करने की कोशिश की। कोऑर्डिनेशन कमेटी ने किसान मुक्ति विधेयकों के नाम से तीन कानूनों के प्रारूप भी तय किये, जिसमें किसानों की दो सबसे पुरानी मांगें कर्ज माफी और कृषि उपज की उपयुक्त कीमत की बात प्रमुखता से रखी गयी।

एआईकेएससीसी ने खुद द्वारा ड्राफ्ट किये विधेयकों के लिये भाजपा को छोड़ कर 21 राजनीतिक दलों का समर्थन भी प्राप्त कर लिया था। पी साईनाथ के एक लेख के अनुसार, 2018 में इन विधेयकों को एक निजी विधेयक के रूप में संसद में प्रस्तुत किये जाने पर भी रणनीति बनी थी, पर यह विधेयक संसद के शीघ्र सत्रावसान के कारण सदन के पटल पर प्रस्तुत नहीं किये जा सके। 

देश के अलग-अलग हिस्सों में अपनी-अपनी तरह से अपनी बात कह रहे, तमाम किसान संगठनों ने 2018 के बाद संसद में कानूनी प्रक्रिया के रूप में अपनी बात कहने के लिये एकजुटता प्रदर्शित की थी। कोऑर्डिनेशन संघर्ष समिति जो शीर्ष प्रतिनिधि के रूप में उभर कर आयी है, से सरकार के किसी भी नुमाइंदे ने इनकी समस्याओं को हल करने के बारे में इनसे बात नही की और 5 जून को नए कृषि अध्यादेशों को जारी कर दिया। 5 जून से 20 सितंबर के बीच भी सरकार ने किसानों की इस शीर्ष संस्था से बातचीत कर के किसानों के संदेहों को समझने और उनकी शंका समाधान की कोई कार्यवाही नहीं की। यही नहीं जब 20 सितंबर को इन विधेयकों को राज्य सभा में पेश किया गया तो अफरातफरी में ही उसे राज्य सभा में पारित करवा दिया गया और राष्ट्रपति जी ने उन पर हस्ताक्षर भी कर दिए, जो होना ही था। 

अब कुछ आंकड़ों की बात करते हैं। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन ने 31 मई, 2018 को कृषि वृद्धि दर पर कुछ आंकड़े जारी किए थे। इन आंकड़ों के अनुसार, 

● 2018 में कृषि विकास दर 2.1 फीसदी रहने की उम्मीद जताई गयी थी, जो कि पिछले वर्ष की तुलना में 4.9 फीसदी से काफी कम थी।

● आर्थिक सर्वेक्षण-2018 की रिपोर्ट कहती है कि कृषि आय पिछले 4 वर्षों में महज 1.9 फीसदी की दर से बढ़ी है। अब अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस दर से किसानों की आय दोगुनी करने में कितना समय लग सकता है ?

● पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने एक बयान में कहा कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए हमें 14 फीसदी की दर से किसानों की आय में बढ़ोतरी करनी होगी।

● नोटबन्दी के पहले, भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर अच्छी थी तब भी, इसी अर्थव्यवस्था में कृषि के लिए स्थितियां प्रतिकूल वातावरण में ही थीं और कृषि उत्पादों की गिरती कीमतों ने किसानों की आय को प्रभावित भी किया। 

यह सभी आंकड़े, बीएचयू के इकॉनोमिक थिंक काउंसिल के प्रमुख डॉ विक्रांत सिंह के एक लेख से लिये गए हैं। इन आंकड़ों से यह साफ पता चलता है कि सरकार जो कह रही है उससे ज़मीनी हक़ीक़त बिल्कुल उलट है। किसान संगठनों के अनुसार, 

● किसानों को एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी मिलनी चाहिए। 

● इसके लिए एक स्वतंत्र, जवाबदेह आयोग बनाया जाना चाहिए।

● किसानों को उनके उत्पादन के लिए एमएसपी प्राप्त करने का कानूनी अधिकार होना चाहिए। इससे वे अदालत में एमएसपी के लिए कानूनी लड़ाई लड़ कर भुगतान की देरी के लिए मुआवजा भी प्राप्त कर सकेंगे। 

लेकिन, क्या सरकार इन मांगों पर कोई विचार करेगी ? फिर 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करने का उसके पास क्या रोड मैप है? 

डॉ विक्रांत अपने शोधपत्र में कहते हैं, “इस देश की कृषि नीति की सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि हमने किसानों की आमदनी को बढ़ाने के बजाय हमेशा उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया। जैसे यूपीए सरकार के लिए भ्रष्टाचार के मामले एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आए थे, कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान एनडीए सरकार के लिए कृषि संकट के रूप में सामने आने जा रही है”। 

भारत मे कृषि केवल जीवन यापन का साधन ही नहीं है बल्कि यह एक संस्कृति है। यह संस्कृति लम्बे समय से भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था का आधार रही है। अमेरिकन या पाश्चात्य थिंक टैंक की मानसिकता शुरू से ही कृषि विरोधी रही है। 1998 से ही ऐसे किसान विरोधी कानूनों के लिये अमेरिकी थिंक टैंक भारत पर दबाव डालता रहा है। वह यह नहीं चाहता कि किसानों को सब्सिडी दी जाए, खेती को सरकार की सहायता मिले औऱ हमारा कृषि तंत्र तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार मज़बूत हो।

1966 में पीएल 480 पर अमेरिका से मंगाए गेहूं पर आश्रित रहने वाला भारत केवल छह साल में ही 1972 में हरित क्रांति कर के दुनिया भर के कृषि वैज्ञानिकों को चमत्कृत कर चुका है। यही जिजीविषा और देश की यही जीवनी शक्ति अमेरिकी थिंकटैंक को आज भी असहज करती रहती है। उद्योग और कृषि दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। सरकार उद्योग की कीमत पर कृषि को जिस दिन से नज़रअंदाज़ करने लगेगी उसी दिन से देश की आर्थिकी खोखली होने लगेगी। सरकार को चाहिए कि वह देश और अर्थव्यवस्था के हित में किसान संगठनों से बात करे और उनकी समस्याओं का समाधान निकाले। 

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

विजय शंकर सिंह
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विजय शंकर सिंह