राष्ट्रवाद के साथ धर्म भी बन गया है धूर्तों के चेहरे का मुखौटा!

जिस किसी ने भी कहा था कि राष्ट्रवाद धूर्तों की आख़िरी पनाहगाह है, उसे उस दूसरी चोर गुफा का अंदाजा नहीं रहा होगा, जिसे धर्म, रिलिजन या मजहब कहते हैं। कहीं कोई इन दोनों का कॉकटेल बनाने की सवाई धूर्तता में पारंगत हो, तो फिर जो होता है, वह इस पांच अगस्त को होने जा रहा है। 

जिस देश के संविधान में उसके नाम के साथ धर्मनिरपेक्षता जुड़ा है, उस देश के प्रधानमंत्री अब तक की सबसे खतरनाक महामारी के बीच अयोध्या में मंदिर काम्प्लेक्स का भूमिपूजन और शिलान्यास करने जाने वाले हैं। उस देश का राष्ट्रीय प्रसारण समूह इसका लाइव प्रसारण करेगा। कलेक्टर से लेकर मुख्य सचिव तक प्रशासनिक अमला किस-किस की चिलमें भर रहा होगा, यह बताने की जरूरत नहीं।

यह अलग तथ्य है कि शिलान्यास का यह “काम” विहिप और उनके साधु-संतों की मौजूदगी में पूरे विधि-विधान के साथ नौ नवम्बर 1989 को कामेश्वर चौपाल नाम के दलित बताए गए एक युवा के हाथों करवाया जा चुका है। एक ही शिलान्यास का दोबारा होना दिलचस्प बात है, मगर मोदी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पहले हो चुके कामों को पुनि-पुनि करते हुए दिखने के मामले में वे पक्के वाले द्विज हैं। 

बड़ा और बुनियादी सवाल यह है कि क्या किसी लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के मुखिया को मन्दिर, मस्जिद, गिरजे के इस तरह के आयोजनों में जाना/करना चाहिए कि नहीं? आजादी के बाद भारत इस तरह की बहसों से गुजर चुका है। 

सोमनाथ मंदिर के नवीकरण के समय देश के प्रधानमंत्री नेहरू ने, तब के राष्ट्रपति की असहमति के बावजूद, उसमें शामिल होने या इस काम के लिए सरकारी धन खर्च के इस्तेमाल करने को लेकर साफ़ न बोलकर एक स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया था। हालांकि इस मामले और उस प्रसंग में एक बुनियादी अंतर है। सोमनाथ मंदिर इस राम मंदिर की तरह किसी 462 साल पुरानी मस्जिद का ध्वंस करके उसकी जगह पर नहीं बनाया जा रहा था।

बाद में ऑपरेशन ब्लू स्टार से स्वर्ण मंदिर परिसर को पहुंचे नुकसान की दुरुस्ती के समय भी कमोबेश यह काम धर्मानुयायियों के हाथों ही करवाया गया। मगर यहां खुद प्रधानमंत्री जाएंगे और इस मौके पर उनके संघ कुटुम्बी देश भर में दीये जलाएंगे। 

यह कारनामा ठीक उस समय अंजाम दिया जा रहा है, जब महामारी के बीच, जो डरावनी गति के साथ हर रोज एक नया रिकार्ड बना रही है, पूरी दुनिया के साथ देश भी थर्राया हुआ है। कोरोना महामारी इतनी तेजी के साथ कुलांचें मार रही है कि पर्याप्त छान-फटक और कतरब्यौंत के बाद रोज शाम को जारी किए जाने वाले सरकारी आंकड़े भी गिनती की साधारण अंकगणितीय रफ़्तार भूल चुके हैं और वर्गमूल और घात के गुणकांकों के अनुपात में बीजगणितीय गति के साथ लगातार ऊंचाई से और ऊंचाई की ओर बढ़ते ही जा रहे हैं।

जब हर नागरिक से एक निश्चित दैहिक दूरी बनाने के लिए कहा जा रहा है, जब देश के सारे मंदिरों-मस्जिदों-पूजास्थलों पर ताले डाल दिए गए हैं, ताकि संक्रमण न फैले, जब इतिहास में पहली बार ईद की नमाज के लिए मस्जिद और ईदगाह नहीं खुले, गणेश की झांकियां नहीं लगने दी जाएंगी, तब प्रधानमंत्री स्वयं अयोध्या जाएंगे।

हजारों लोगों की भागीदारी से संक्रमण की जायज आशंका को लेकर यह भजन मण्डली कितनी सजग है, यह उमा भारती ने अपने उस बयान में साफ़ कर दिया, जिसमें उन्होंने कहा है कि “पांच हजार लोगों की जिंदगी से ज्यादा कीमती है राम मन्दिर।” क्या सच में!

जब हर मोर्चे पर विराट असफलताओं के ढेर खड़े कर लिए हों, जब इन्सानी जिंदगी को खतरे और अर्थव्यवस्था को बुरी से बुरी आशंकाओं से भी ज्यादा बुरे गर्त में धकेला जा चुका हो, जब उम्मीद की एक भी किरण दिखाने का विश्वास जगाने वाले सूरज और चांद, मजदूर और किसान स्थायी रूप से एक अंधेरे कारागार में बिठाए जा रहे हों, तब इस तरह के हुक्मरानों के पास सिवाय ऐसे धतकरमों के कोई और बहाना या आड़ नहीं बचती- भले उनके ऐसा करने का मतलब हजारों साल में विकसित हुई पारस्परिक सौहार्द्र और सद्भाव की संस्कृति की रंग-बिरंगी बगिया पर तुषार पड़ने के आसार ही क्यों न बन जाएं।

इसलिए यह सिर्फ संयोग नहीं है कि ठीक यही हरकत मोदी के राजनीतिक प्रतिरूप तुर्की के अर्दोगान ने ऐन महामारी के बीच अया सोफिया म्यूजियम को मस्जिद में बदलकर और इस तरह कमाल पाशा की बड़ी धर्मनिरपेक्ष पहल को उलट कर की है।

यही कुकर्म यहूदीवादी इजरायली येरुशलम और बेथलेहम का यहूदीकरण करके कर रहे हैं। यही दुष्टई बामियान की मूर्तियां गिराकर तालिबानों ने दिखाई थी। कहने की जरूरत नहीं कि समान (अ)धर्मी अपने बचाव के लिए एक तरह के झांसे और भुलावे, साजिशें और तिकड़म लेकर आते हैं।

महामारी के बीच मंदिर के शिलान्यास-भूमिपूजन के लिए हिन्दू पंचांग के हिसाब से पंचक के अशुभ दिन माने जाने के बाद भी पांच अगस्त की तारीख का चयन ऐसे ही नहीं किया गया। यह कश्मीर के ध्वंस की पहली बरसी का भी दिन है। अपनी ही जनता के विभाजन और अपने ही देश के नागरिकों के खिलाफ युद्ध छेड़ने में यकीन रखने वाली भाजपा अब अजुध्या, जिससे कोई युद्ध न कर सके ऐसी अयोध्या को एक बार फिर अखाड़ा बना रही है।

वह इस भरम में है कि मंदिर की ईंट रखते ही 130 करोड़ से ज्यादा देशवासी अपनी भूख, बेकारी, बर्बादी भूल जाएंगे। लॉकडाउन के बाद मची तबाही और अफरा-तफरी सुलट जाएगी, लोग मोदी की केंद्र सरकार तथा भाजपाई राज्य सरकारों द्वारा देश, लोकतंत्र, संविधान को दिए गए जख्मों के बारे में सोचना विचारना बंद कर देंगे। 

“मांगि कै खैबो मसीत को सोइबो”
रामचरित मानस लिखने वाले तुलसी कम से कम इस मामले में काफी दूरंदेशी थे। करीब साढ़े चार सौ साल पहले ही उन्होंने इस तरह के लोगों का चित्रण करते हुए लिखा था…
बंचक भगत कहाइ राम के।
किंकर कंचन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी।
धींग धरम ध्वज धंधक धोरी॥

मतलब यह कि जो खुद को राम का भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन, लोभ, क्रोध और काम के गुलाम हैं, धींगाधींगी करने वाले, धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दंभी और कपट के धंधों का बोझ ढोने वाले हैं; संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है।

पांच अगस्त को जब मोदी अयोध्या जाएंगे, तब राम को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाने वाले गोस्वामी तुलसीदास उनके लिए यही पंक्तियां गुनगुनाते हुए मिलेंगे। और जब वे अयोध्या से लौटेंगे, तो इस देश का अवाम आंदोलनों की नयी लहर से उनके साम्प्रदायिक मंसूबो की कीच को बहा देने वाले तेवरों के साथ तत्पर मिलेगा, क्योंकि मशहूर शायर कैफ भोपाली साहब पहले ही कह गए हैं…
ये दाढ़ियां ये तिलकधारियां नहीं चलतीं
हमारे अहद में मक्कारियां नहीं चलतीं

(लेखक पाक्षिक लोकजतन के संपादक हैं और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

बादल सरोज
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