जरा ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन को भी याद कर लें!

‘भारत माता की जय’ और ‘वंदेमातरम’ अब हिंदुत्ववादियोें का ऐसा नारा बन गया है कि इस दौर में जवान हो रहे बच्चों के मन में यह भ्रम बैठ जाएगा कि इन्हीं लोगों ने देश को आजादी दिलाई है। वैसे भी, ये लोग गांधी जी का नाम इस तरह लेते हैं जिससे यही लगता है कि इनके राजनीतिक पुरखों ने उनके कंधे से कंधे मिला कर संघर्ष किया है।

‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की सालगिरह पर हम इसके बलिदानियों की याद करें ताकि यह लोगों को यह रहे कि असल में किन लोगों ने आजादी की अंतिम और निर्णायक लड़ाई लड़ी और किन लोगों ने अंग्रेजों का साथ दिया। ‘भारत छोड़ो’ यानि अगस्त क्रांति आजादी के संघर्ष में 1857 के बाद दूसरा मौका था जब भारतीयों ने अपनी आज़ादी की घोषणा खुद कर दी। अंग्रेजों से गुहार नहीं लगाई। लेकिन 1857 के विपरीत इस आंदोलन का नेतृत्व राजे-रजवाड़ों के हाथ में नहीं, बल्कि आम लोगों के हाथ में था। 

ब्रिटिश हुकूमत ने ‘भारत छोड़ो’  का प्रस्ताव पारित होते ही कांग्रेस के पूरे नेतृत्व को जेल में डाल दिया। लेकिन कांग्रेस समाजवादी पार्टी पहले से बड़ी लड़ाई की तैयारी कर रही थी और अंग्रेज सरकार ने जैसे ही गिरफ्तारियां शुरू की, डॉ. राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अरूणा आसफ अली समेत कई नेता भूमिगत हो गए। गांधी और अन्य नेताओं की अनुपस्थिति में उन्होंने ही आंदोलन को संचालित किया। अगस्त क्रांति का बिगुल बजते ही जयप्रकाश नारायण और उनके साथी जेल तोड़ कर बाहर भाग निकले और भूमिगत आंदोलन संयोजित करने में जुट गए।

आठ अगस्त को आंदोलन की घोषणा और नौ अगस्त को गांधी जी का करो या मरो का संदेश मिलते ही देश के कोने-कोने में लोगों ने अपने को आजाद करने की कार्रवाई स्वतःस्फूर्त ढंग से शुरू कर दी। पूरे देश में रेल की पटरियां उखाड़ने, डाकखानों और कचहरियों पर कब्जा करने का काम होने लगा। कुछ जगहों पर लोगों ने प्रति-सरकार यानि समानांतर सरकार बना ली। उत्तर प्रदेश के बलिया जिले ने तो अपनी आज़ादी की घोषणा ही कर दी। अपनी सरकार बनाने का कदम महाराष्ट्र के सतारा, बंगाल के तामलुक और बिहार में मुंगेर जिले के तारापुर के लोगों ने भी किया। सतारा को छोड़ कर बाकी जगह की सरकारें एक-दो सप्ताह तक ही चलीं।

सतारा की सरकार 1943 से 1946 तक चली और राष्ट्रीय स्तर पर बनी अंतरिम सरकार के आने के बाद ही खत्म हुई। नाना पाटिल के नेतृत्व में बनी यह सरकार महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के सिद्धांतों पर आधारित और समाजवादी विचारों से प्रेरित थी। यह ब्रिटिश हुकूमत के समानांतर चलती रही क्योंकि इसे व्यापक जन-समर्थन हासिल था।  

बलिया का विद्रोह तो आज़ादी के संग्राम में एक स्वर्णिम अध्याय है। वहां 19 अगस्त, 1942 को जनता की एक भीड़ ने आंदोलन के नेता चित्तू पांडेय और उनके साथ के दर्जनों लोगों को जेल से आजाद करा लिया और सरकारी तंत्र पर कब्जा कर लिया।  उन्होंने स्वतंत्र बलिया प्रजातंत्र की घोषणा कर दी। इस विद्रोह की खूबसूरती यह थी कि आंदोलनकारियों ने एक भी आदमी की हत्या नहीं की। सरकारी मुलाजिमों और सिपाहियों को सिर्फ शहर की चौहद्दी से बाहर कर दिया गया। लेकिन यह आज़ादी एक सप्ताह भी नहीं चल पायी। एक अंग्रेज अफसर के नेतृत्व में आई फौज तथा पुलिस ने शहर पर कब्जा कर लिया और बेइंतहा जुल्म ढाए। कई लोगोें को फांसी पर चढ़ा दिया गया। उनके कहर से औरतें भी नहीं बच सकीं। कुछ को पीट-पीट कर मारा गया और कई की जानें जेल के अत्याचार ने ले ली। 

भारत छोड़ो के प्रस्ताव में आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की तस्वीर भी पेश की गई। केंद्र के चुनिंदा अधिकारों को छोड़ कर सारी शक्तियां राज्यों को सौंपने की बात कही गई थी। इसमें हिंदू-मुस्लिम एकता की अपील की गई थी। गांधी जी ने अंग्रेजों से कहा, ‘‘ भगवान के भरोसे या वक्त पड़ा तो अराजकता के हाथों देश को सौंप कर ब्रिटिशों को यहां से चला जाना चाहिए।’’ 

‘भारत छोड़ो’ का ऐलान करते समय गांधी जी के दृढ़निश्चय के बारे में मधु लिमये ने अपनी आत्मकथा में लिखा है,‘‘ उनके तेज से, उनके प्रखर निश्चय से हम रोमांचित हो गए। गांधी जी को लेकर मेरे मन में जो पूर्वाग्रह या आपत्तियां थीं, वे सभी काफूर हो गईं।’’

लेकिन देश की हिंदुत्ववादी पार्टी हिंदू महासभा और मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का दावा कर रही मुस्लिम लीग सरकार के साथ खड़ी थीं। हिंदू महासभा के अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर सरकार के साथ पूर्ण सहयोग के पक्ष में थे। युद्ध छिड़ने पर वह सरकार की वाइसराय की कौंसिल में हिंदू महासभा को प्रतिनिधित्व दिलाने की कोशिश में भिड़ गए। मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में हिंदू महासभा ने कांग्रेस और आजादी के आंदोलन के साथ जो रिश्ता जोड़ा था उसे सावरकर ने पूरी तरह खत्म कर दिया क्योंकि वह सीधे-सीधे सरकार के साथ रहना चाहते थे। उन्हें बड़े व्यापारियों और जमींदारों का समर्थन मिला हुआ था। ऐसे लोगों का फायदा सरकार के साथ रहने में ही था। सावरकर ने युद्ध में बढ़-चढ़ कर सहयोग दिया।

सैनिकों की भर्ती में भरपूर मदद दी। यही नहीं नगरपालिकाओं से लेकर सेंट्रल असेंबली और प्रांतीय सरकारों में शामिल अपने लोगों से पद पर बने रहने के लिए कहा। हिंदू महासभा ने बंगाल, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत और सिंध जैसे मुस्लिम बहुल प्रांतों में लीग के साथ सरकार बनाई जिससे आगे चल कर मुस्लिम लीग को पाकिस्तान बनाने में मदद मिली। सिंध असेंबली ने मार्च 1943 में पाकिस्तान की मांग के समर्थन में प्रस्ताव पारित किया, फिर भी महासभा ने सरकार नहीं छोड़ी। यहां तक कि आगा खान पैलेस में बंद गांधी जी के उपवास से चिंतित अरुणा आसफ़ अली ने वायसराय की एग्जीक्यूटिव कौंसिल के सदस्य और महासभा नेता सर ज्वाला प्रसाद श्रीवास्तव पर उनकी बेटी सरला के जरिए इस्तीफा दिलाने की कोशिश की तो उसने मना कर दिया। अरुणा आसफ़ अली उस समय भूमिगत थीं। यह घटना खुफिया रिपोर्टों में दर्ज है। 

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो अगस्त प्रस्ताव के ठीक पहले 26 जुलाई, 1942 को बंगाल की फजलुल हक सरकार के मंत्री के रूप मे बंगाल के गवर्नर को लिखा कि ‘‘कांग्रेस की ओर से शुरू किए जा रहे व्यापक आंदोलन’’  का ‘‘सरकार की ओर से प्रतिरोध होना चाहिए’’। उनका तर्क था कि इससे युद्ध के समय जन भावना भड़केगी और आंतरिक उपद्रव या असुरक्षा पैदा होगी।    

आरएसएस ने इसमें हिस्सा नहीं लिया और सरकार के निर्देशोें का पालन किया और ड्रिल करना और शस्त्र-संचालन बंद कर दिया। खुफिया रिपोर्ट में इस पर संतोष जाहिर किया गया।  

‘करो या मरो’ की घोषणा के आते ही दो महत्वपूर्ण बयान आ गए। एक सावरकर और दूसरा मोहम्मद अली जिन्ना का। सावरकर ने हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं को आंदोलन से दूर रहने के लिए कहा और जिन्ना ने आंदोलन को मुसलमानों की सुरक्षा के लिए खतरा बताया। उन्होंने आंदोलनकारियों को मुसलमानों से दूर रहने को कहा। 

कम्युनिस्टों ने किसानों तथा मजदूरोें का संघर्ष चला रखा था, लेकिन वे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का कहना मानते थे जिसकी नीति सोवियत रूस के नेता स्टालिन के इशारों पर बनती थी। जर्मनी ने रूस के साथ समझौता किया तो कम्युनिस्ट अंग्रेजों के विरोध में आ गए और जब जर्मनी ने सोवियत यूनियन पर हमला कर दिया तो उनकी नीति बदल गई, उन्होंने जर्मनी, जापान तथा इटली के खिलाफ युद्ध को ‘जन-युद्ध’ घोषित कर दिया और अंग्रेजोें के साथ हो गए। 

उधर, सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज बना कर जर्मनी तथा जापान के सहयोग से भारत को मुक्त कराने का युद्ध छेड़ दिया था। 

कम्युनिस्टों और हिदुत्ववादियों में यही फर्क था कि कम्युनिस्ट अंग्रेज सरकार की कौंसिलों आदि में शामिल नहीं हुए और उन्होंने किसानों तथा मजदूरों का संघर्ष चलाना जारी रखा। उनके कार्यकर्ताओं ने भी पार्टी की नीति नहीं मानी और आंदोलन में शामिल हुए। 

अच्युत पटवर्धन और अरुणा आसफ़ अली सन् बयालीस के दो ऐसे नेता थे जिन्हें पुलिस कभी पकड़ नहीं पाई। डॉ. लोहिया नेपाल चले गए। हजारीबाग सेंट्रल जेल से भागने के बाद जेपी ने देश भर का दौरा किया और वह भी नेपाल चले आए। दोनों ने आजाद दस्ते बनाने का काम शुरू किया। डॉ. लोहिया ने आंदोलन के प्रचार के लिए रेडियो केंद्र भी स्थापित किया। एक बार नेपाल की पुलिस ने दोनों को पकड़ कर अंग्रेजों के हवाले करना चाहा, लेकिन आजाद दस्ते ने उन्हें छुड़ा लिया और वे घायल अवस्था में भाग निकले। 

अंत में, वे पकड़े गए और उन्हें लाहौर के किले में बंद कर दिया गया। वहां उन्हें और उनके साथियों राम नंदन मिश्र आदि को कठोर यातनाएं दी गईं। सन् 1944 में ज्यादातर लोगों को छोड़ दिया गया। लेकिन लाहौर किले के इन कैदियों को तब तक नहीं छोड़ा गया जब तक आजादी की हलचल शुरू नहीं हो गई। कैबिनेट मिशन के भारत आने के बाद उन्हें 11 अप्रैल सन छियालीस को डॉ. लोहिया तथा जेपी को आगरा जेल से रिहा किया गया तो अपार भीड़ उनके स्वागत के लिए खड़ी थी। दोनों जहां-जहां गए उनके स्वागत में बड़ी भीड़ खड़ी होती थी। गांधी जी ने उनके त्याग के लिए शाबाशी दी।

भारत छोड़ो आंदोलन ने सांप्रदायिक एकता की मिसाल कायम की। भारत छोड़ो का प्रस्ताव पास करने वाली बैठक की अध्यक्षता मौलाना अबुल कलाम आजाद कर रहे थे और ‘भारत छोड़ो’ का नारा समाजवादी नेता और बंबई के मेयर यूसुफ मेहरअली ने दिया था। इसमें किसी तरह के धार्मिक प्रतीक का इस्तेमाल नहीं किया गया था। यह एक सच्चा लोकतांत्रिक और अहिंसक आंदोलन था।

(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

अनिल सिन्हा
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