सीएए और एनआरसी के खिलाफ़ धरने पर कला

मौजूदा सरकार द्वारा सीएए, एनआरसी और एनपीआर के द्वारा देश की अवाम के खिलाफ़ छेड़े गए युद्ध के प्रतिरोध में व्यापक जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ है। मुल्क, संविधान और इंसान बचाने के इस जन आंदोलन में कलाकारों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। जामिया से लेकर शाहीन बाग़ तक की सड़कें प्रतिरोधी कलाओं से सजी हैं।

प्रतिरोधी नारे, गीत, संगीत, कविताएं जन आंदोलन में गूंज रही हैं। ‘हम कागज नहीं दिखाएंगे’, बेलाचाओ का हिंदुस्तानी वर्जन ‘ऐ जालिम जाओ, जाओ जाओ’, फैज की नज्म ‘हम देखेंगे’ हर ओर सुनाई दे रही है। इस गूंज से निजाम डरा हुआ है।

पांच जनवरी को दिल्ली के कनाट प्लेस के इनर सर्किल में आर्टिस्ट यूनाइट की कॉल पर एक सामूहिक प्रदर्शनी के लिए कलाकार इकट्ठा हुए और चॉक और खड़िया से सेकुलर इंडिया और धर्मनिरपेक्ष भारत लिखकर एनआरसी और सीएए के खिलाफ़ विरोध दर्ज किया। तभी वहां कला-विरोधी, संविधान-विरोधी भाजपा और आरएसएस के लोग आए और उन्होंने सारी कलाकारी को पैरों से मिटाने के बाद उन पर पानी डालकर वाइपर से साफ किया। कला में कितनी ताकत है और कला से कितने डरते हैं ये लोग उपरोक्त वाकिया इस बात की पुख्ता पुष्टि करती है। 

शाहीन बाग़ में इंस्टाल किया गया भारत का विशालकाय नक्शा और उस पर लिखा “हम भारत के लिए सीएए, एनआरसी और एनपीआर को नहीं मानते” प्रतिरोध का सिंबल बने शाहीन बाग़ की पहचान से जुड़ गया है। शाहीन बाग़ आने वाला हर शख्स इसके सामने खड़े होकर सेल्फी लेने की चाहत रखता है।

भारत के स्कल्पचर को इंस्टाल करने वाले कलाकार वीर कहते हैं, “शाहीन बाग़ में जो आंदोलन हो रहा है उसमें लोग जगह-जगह से आ रहे हैं। और यहां से आंदोलन चारो तरफ फैल रहा है। शाहीन बाग़ का दो कारणों से सबसे ज़्यादा नाम है। पहला ये कि शाहीन बाग़ से शुरू होकर पूरे देश भर में महिलाएं पहली बार आंदोलन में बैठी हैं। जितने भी प्रगतिशील, एक्टिविस्ट और समाजेसवी लोग हैं वो एक बार शाहीन बाग़ आकर यहां से आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करते थे।”

उन्होंने कहा कि हम कलाकार लोग भी शाहीन बाग़ की औरतों का हौसला बढ़ाने के लिए शाहीन बाग़ आए। हम लोगों ने सोचा कि क्या करें, क्योंकि यहां तो पूरे देश भर से लोग आ रहे थे। यहां सिर्फ़ शाहीन बाग़ के लोग नहीं थे पूरे देश भर से लोग आ रहे थे। तो हम लोगों ने गौर किया कि ये सिर्फ़ शाहीन बाग़ की नहीं पूरे देश की आवाज़ है।

संचार के तमाम माध्यमों से हमें पता चल ही रहा है कि पूरे देश भर में आंदोलन चल रहा है। और देखते ही देखते पूरे देश भर में आंदोलन शुरू हो गया। हम लोगों ने सोचा कि हम कैसे इस आवाज को बुलंद कर सकते हैं और पूरी दुनिया भर में कैसे हम बड़ा संदेश दे सकते हैं। सरकार को भी पता चलना चाहिए कि बहुसंख्यक लोग भी उनके इस जनविरोधी कानून के खिलाफ़ हैं। कलाकार इस आंदोलन में शोषित पीड़ित वर्ग के साथ हैं।

वीर आगे कहते हैं, “कलाकारों की ओर से भी कोई बहुत मजबूत आवाज़ निकल कर नहीं आ रही थी। ये जो आंदोलन है ये बड़ी लड़ाई है। इसमें हम कलाकार सिर्फ़ मोटिवेट करके बहुत कुछ नहीं कर सकते। हमें लगा कि हम कलाकारों की तरफ़ से भी एक बड़ा संदेश सरकार की ओर जाना चाहिए कि कलाकार उनके पक्ष में नहीं हैं। अगर वो ये सोच रहे हैं कि कलाकार सिर्फ़ उनका घर और गार्डेन सजाने के लिए हैं। तो हम ये बताना चाहते हैं कि कलाकार उनका घर-गार्डेन सजाने के लिए नहीं हैं।”

उन्होंने कहा कि कलाकार इस आंदोलन के साथ हैं और सीएए, एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रहा है। इसलिए हमने शाहीन बाग़ में भारत का नक्शा इंस्टाल करने का फैसला किया। पवन और राकेश मेरे इस फैसले के साथ आए। बाद में और साथी भी जुड़ते गए तब जाकर शाहीन बाग़ का ये कला का प्रतिरोध (भारत का स्कल्पचर) रूपाकार ले पाया।

हर घर से लोहा लेकर बनाया गया भारत का नक्शा
वीर कहते हैं, “भारत का नक्शा बनाने में हमने शाहीन बाग़ के लोगों से लोहा मांगा। जिसके पास जो जितना लोहा था उन्होंने लाकर दिया। पुराना वेस्ट, लोहा और बेल्डर हमने उनसे लिया। उन्होंने जितना लाकर दिया उस सारे को हमने वेल्ड करके उतना बड़ा भारत का नक्शा बना दिया। आंदोलन के इतिहास में इतना बड़ा स्कल्पचर नहीं बनाया गया था। आंदोलन के दौरान का ये अब तक का सबसे बड़ा इंस्टालेशन है।” 

वीर ने बताया कि हम ये संदेश देना चाहते हैं कि हम सभी तरह के कलाकार नाटककार, रंगकर्मी, फिल्मकार, साहित्यकार जो आर्ट फॉर पीपल के अंतर्गत काम कर रहे हैं जो उस प्लेटफॉर्म या उस प्लेटफॉर्म से इतर बोल रहे हैं जहां तक हम नहीं पहुंच पाए उनकी तरफ से एक मात्र यही संदेश है। जिस जनता ने अपने नागरिकता प्रमाण के आधार पर आपको चुनकर सरकार चलाने के लिए भेजा है आज उन्हें ही अपनी नागरिकता के लिए अलग से प्रमाण देना पड़े तो ये गलत है। और जो गलत है नाकाबिल-ए-बर्दाश्त है।

मोदी सरकार की लोहा चोरी की पोल खोलते हुए वीर कहते हैं, “स्टेचू ऑफ यूनिटी के समय वो लोगों से लोहा मांग रहे थे। उन्होंने उस लोहे को चुरा लिया, क्योंकि स्टेचू ऑफ यूनिटी ब्रॉन्ज की बनी है और उसे चाइनीज कंपनी ने बनाया है। इंडिया के एक भी व्यक्ति को उसमें काम नहीं मिला। जबकि शाहीन बाग़ में खड़े भारत के स्कल्पचर को शाहीन बाग़ के लोगों ने ही वेल्ड किया। उन्होंने ही अपने घर के वेस्टेज लोहे को दिया और हमने  उनके सामने ही बैठकर भारत का स्कल्पचर बनाया।

ये कलाकृति (भारत का स्कल्पचर) देश की बहुसंख्यक, बेरोजगार, ग़रीब, पिछड़े अवाम की आवाज़ है। जनता के साथ एनआरसी, एनपीआ और सीएए के विरोध में कला धरने पर है। जब तक सरकार अपना जनविरोधी कानून वापस नहीं लेगी कला धरने पर रहेगी। कला का धरना जारी रहेगा। 

आंदोलनरत समाज के लिए काम करना कला की जिम्मेदारी है
मशहूर रंग-समीक्षक, निर्देशक और अस्मिता थिएटर के संचालक अरविंद गौर कहते हैं, “समाज में जब भी कुछ गलत या असंवैधानिक हो रहा होता है तब कलाओं की ये जिम्मेदारी बनती है कि वो लोगों से इसके बारे में बात करें और लोगों को इसके बार में सचेत करें। उन्हें सचेत करने के अलग-अलग माध्यम हैं। इसमें पेंटिंग है, कविताएं हैं, थियेटर है। समाज में जो कुछ भी हो रहा होता है उसमें इनकी बहुत बड़ी भूमिका होती है।”

उन्होंने कहा कि देश भर में जिस तरह से जन आंदोलन चल रहे हैं उसमें कलाओं की जिम्मेदारी ये है कि लोगों को इसके बार में जागरूक करें। उनमें उत्साह का संचार करें। उनके साथ खड़ी हो। लोग अपने भीतर, समाज के भीतर, देश के भीतर, संविधान के लिए लड़ रहे हैं तो उनकी लड़ाई में सहयोग देने के लिए आगे आना पड़ा। कला समूह आज अलग-अलग जगह यही काम कर रहे हैं। इससे पूरे प्रतिरोध को एक मोटिवेशन मिलता है।

उन्होंने कहा कि इसलिए आज के आंदोलनरत समाज के लिए काम करना कला की जिम्मेदारी है। इसलिए कलाएं एक साथ जुड़ी हुई हैं। अगर कलाएं समाज के साथ नहीं जुड़ेंगी तो वो निर्जीव हो जाएंगी। कोई भी साहित्य, पेंटिंग शिल्प या चित्र है और अगर वो समाज के साथ नहीं जुड़ा हुआ है समाज के सवालों के साथ नहीं खड़ा होगा तो फिर तो निर्जीव है वो। उसके जिंदा होना का सबूत यही है कि वो समाज के साथ, उसके आंदोलन के साथ खड़ा है। समाज के साथ ही कला का विकास होता है। कला को अपनी ऊर्जा वहीं से मिलती है।

वहीं से विषय और शिल्प मिलते हैं। समाज के प्रतिरोध के साथ खड़ा होना ही उसके जिंदा होने का सबूत है। और ये तो बहुत बड़ा आंदोलन है, जिसमें कलाओं की जिम्मेदारी बहुत ज्यादा बड़ी है। और इसमें सभी लोगों को जुड़ना चाहिए। बहुत सारे लोग अभी भी नहीं जुड़ रहे हैं। बहुत सारे कारणों से, क्योंकि उन्हें सरकारी पुरस्कार का लालच, कमेटियों का लालच, निजी सुविधाओं के चलते बहुत से कलाकार अभी सामने नहीं आ रहे हैं जबकि जिम्मेदारी बड़ी है।

उन्होंने कहा कि कलाकार का काम चाटुकारिता नहीं होती। अवार्ड और पद पाना, लाभ लेना नहीं है। बल्कि समाज के साथ खड़े होकर उसके सवालों पर शिद्दत से बात करना है। कलाकार जो अपने निजी लाभ या दूसरे डर के कारणों से चुप रहते हैं, कला की चुप्पी हमेशा ख़तरनाक होती है। जो कलाकार लोग आए हैं इसके समर्थन में, वो बहुत बहादुर लोग हैं। वाकई कलाकार वही हैं जो जनता के साथ खड़े होकर सरकार से सवाल उठाए।

जो जन के साथ नहीं मैं उन्हें कवि नहीं मानता
‘इस तरह ढह जाता है एक देश’ जैसी विशुद्ध राजनीतिक कविता संग्रह के कवि नित्यानंद गायेन कहते हैं, “इस समय देश में जो हालात हैं, उसमें जो भी लोग देश के संविधान में भरोसा करते हैं और उसे बचाना चाहते हैं उन सबको एक साथ आना चाहिए, एकजुट होना चाहिए। और हो भी रहा है ये सब अच्छी बात है। दिक्कत इसमें ये है कि जो दूसरी तरफ की ताकते हैं, लगातार उनके हमले जिस तरह से बढ़ रहे हैं सरकार के जो काम हो रहे हैं, जैसे मोदी ने अपने कल के स्टेटमेंट में अपने मंत्रियों को कहा है कि वो सीएए का एग्रेसिवली बचाव करें।”

उन्होंने कहा कि बजट सत्र के पहले दिन राष्ट्रपति के भाषण में सीएए का जिक्र होना ये कहीं न कहीं ये संकेत देता है कि लोकतंत्र में किस तरह से तमाम जो संवैधानिक बड़े पद हैं उनका किस तरह से दुरुपयोग ये सरकार कर रही है। इसलिए लगातार सजग रहकर ये आंदोलन को बनाए रखने की ज़रूरत है। और ज़्यादा से ज़्यादा आम लोगों तक इस बात को किस तरह बताया जाए इसके कितने मिसयूज हैं कितने ख़तरे हैं, उससे क्या नुकसान होगा और उससे सबसे ज़्यादा प्रभावित कौन लोग होंगे। ये बताना उनको, समझाना ज़रूरी है।

उन्होंने कहा कि सरकार ने जो मिथ फैलाया है उस मिथ को भी तोड़ने की ज़रूरत है। समाज के सभी कलाकारों और आम लोगों को इस जन आंदोलन में साथ आना चाहिए। जो हैं उनका स्वागत है। हम कलाकारों को लगातार जन आंदोलनकारियों के हौसले को बुलंद बनाए रखना होगा। ये आंदोलन जितना शांतिपूर्ण रहेगा दूसरी पार्टी उतना उसको प्रोवोक करने की कोशिश करेगी। हमें प्रोवोक नहीं होना है। जो इस जन आंदोलन में जन के साथ नहीं है मैं उन्हें कवि नहीं मानता। जो खामोश हैं उन्हें मैं कवि नहीं मानता।

कलाकार साथी धरना स्थलों पर जा-जा कर जन आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं। देश भर में सीएए-एनआरसी के खिलाफ़ महिलाओं द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से चलाए जा रहे आंदोलन को कलाकारों के एक वर्ग द्वारा समर्थन दिया जा रहा है और वो हर रोज दो से तीन धरना स्थलों पर जाकर अपना रचनात्मक प्रतिरोध प्रदर्शित करते हैं। 

रंग आलोचक और कवि राजेश चंद्रा कहते हैं, “हमारा देश आज आज़ादी के बाद के सबसे कठिन दौर से गुज़र रहा है। पिछले पांच-छः वर्षों में, जबसे देश में मोदी-शाह के नेतृत्व में एक अंधराष्ट्रवादी, उन्मादी और फासिस्ट सरकार बनी है, देश के लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों की बुनियाद पर लगातार संगठित हमले बढ़े हैं। देश के विभिन्न भागों में राज्य प्रायोजित हिंसा की घटनाएं और आम जन का बर्बर पुलिसिया दमन-उत्पीड़न भी गंभीर चिंता का विषय है। कॉरपोरेट घरानों के हितों के लिए जनसाधारण को उनकी आजीविका से वंचित और प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जा रहा है तथा इसका विरोध करने पर उन्हें हिंसक दमन का शिकार बनाया जा रहा है।”

उन्होंने कहा कि लोकतांत्रिक एवं संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता सीमित करने, उनके ढांचों को कमज़ोर करने, उन्हें सत्ता पर निर्भर बना देने और उनकी स्थापित कार्यप्रणालियों एवं मूल्यों का लगातार उल्लंघन किए जाने से हमारी पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली पर ही प्रश्नचिह्न खड़े हो गए हैं। न्याय-शास्त्र के बुनियादी उसूलों और नागरिक के जन्मसिद्ध अधिकारों का ही अतिक्रमण करने वाले सीएए और एनआरसी जैसे क़ानून पोटा और टाडा क़ानूनों से भी अधिक दमनकारी हैं। ऐसे क़ानूनों से एक बार फिर देश के सामने सांप्रदायिक विभाजन का गंभीर ख़तरा पैदा हो गया है।

नोटबंदी और जीएसटी जैसे आत्मघाती निर्णयों से उपजे महाविनाश और आर्थिक मोर्चे पर संपूर्ण नाकामी से बदहवास मोदी-शाह के सामने इसके अलावा कोई और रास्ता नहीं था कि वे देश का ध्यान भटकाने के लिए अंधराष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता का सहारा लें, लेकिन पुलवामा-बालाकोट, मंदिर-मस्जिद-पाकिस्तान, आनन-फानन में धारा 370 को समाप्त करने से लेकर सीएए और एनआरसी लागू करने तक इस सरकार ने जितने भी दांव चले, वे सभी एक के बाद एक उलटे पड़ गए।

दंगे भड़काने और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सारी तरकीबें नाकाम हो गईं, क्योंकि देश की जनता को यह अच्छी तरह समझ में आ चुका है कि इस सरकार को चलाने वालों को देश के संविधान और लोकतंत्र से कोई मतलब नहीं है, और उनका एकमात्र एजेंडा देश के संसाधनों को जितनी जल्दी हो सके, लुटेरे कॉरपोरेट घरानों के हवाले कर चंपत हो जाना है।

जब मंदिर मसले पर आए सर्वोच्च अदालत के फैसले से बहुसंख्यक हिंदू आबादी में हिंदुत्व-विजय की किसी भावना का देशव्यापी संचार नहीं हो सका और उसकी चुनावी फसल नहीं काटी जा सकी, कश्मीर की सारी कवायद से भी जब राष्ट्रवादी उन्माद नहीं पैदा हुआ और न ही पाकिस्तान-पाकिस्तान चिल्लाने का ही अपेक्षित असर पड़ा, तब विभाजनकारी सीएए और एनआरसी कानून का ज़हर बोया गया, लेकिन उत्तर-पूर्व में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में ही इसका उलटा असर पड़ गया।

हिन्दू-मुसलमान ध्रुवीकरण की जगह पूरे देश में आम लोग एकजुट होकर सड़कों पर निकल आए और यह सिलसिला लगातार जारी है। जामिया, एएमयू और जेएनयू में आधी रात पुलिसिया कहर बरपा करना भी सरकार को बहुत भारी पड़ा। इससे आतंकित होने के बजाय पूरे देश की युवा शक्ति लंबे समय बाद जाग उठी और एकजुट संघर्ष के संकल्पों के साथ आज सड़कों पर उतर पड़ी है। इस बार छात्रों के साथ नागरिकों, बुद्धिजीवियों, शिक्षकों, महिलाओं और मज़दूरों की भी बहुत बड़ी आबादी सड़कों पर है! सिनेमा जगत की कई जानी-मानी हस्तियां भी समर्थन में उतरी हैं।

देश भर में महिलाएं आगे आ रही हैं और उन्होंने मोर्चा संभाल लिया है। उनका संकल्प है, करो या मरो, और सरकारी अमले की कोई भी साज़िश उन्हें टस से मस नहीं कर पा रही है। जन-प्रतिरोध का यह स्वरूप अत्यंत महत्वपूर्ण है। देश की आधी आबादी जिस दृढ़ता के साथ अपने लोकतांत्रिक स्पेस को दखल कर रही है, यह एक ऐतिहासिक परिघटना है और संकेत साफ़ है कि इतिहास करवट बदल रहा है।

महिलाओं का संघर्ष की अगली कतारों में आ जाना हुक़्मरानों के लिए निश्चित तौर पर बहुत बड़ी चुनौती बन रहा है, पर इस शांतिपूर्ण आंदोलन से निपटने के उनके अब तक के तौर-तरीक़े दर्शाते हैं कि उनके पास पीछे लौटने का कोई रास्ता नहीं है और अगर दमन का यह दौर जारी रहा तो जल्दी ही हालात विस्फोटक हो सकते हैं।

फासीवादी साज़िशों से देश के संविधान और लोकतंत्र को बचाने के लिए स्वतः स्फूर्त तरीके से उठ खड़े हुए इस व्यापक जन आंदोलन में लेखकों, कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों एवं सिनेकर्मियों का एक बड़ा हिस्सा भी इस बार मुखर हो चुका है, पर यह पहलकदमी ज़्यादातर व्यक्तिगत अथवा छोटे-छोटे समूहों के स्तर पर ही है। कला, साहित्य और संस्कृतिकर्म की भूमिका तथा जवाबदेही ऐतिहासिक रूप से इससे कहीं अधिक बड़ी है और समय आ गया है कि हम देशव्यापी स्तर पर संगठित होकर इस जन आंदोलन को एक बड़े सांस्कृतिक हस्तक्षेप की शक्ल देने के लिए आगे आएं।

हमें इस नागरिक अवज्ञा आंदोलन को घर-घर तक संदेश पहुंचा कर व्यापक और गहरा बनाने में अपनी पूरी ताक़त लगानी होगी। यह सिद्ध करना होगा कि कलाकार, संस्कृतिकर्मी और साहित्यकार ज़रूरत पड़ने पर सड़क पर भी उतरने का साहस रखते हैं, और शासकीय दमन के बल पर विचारों को दबाया नहीं जा सकता। शाहीन बाग़ आज एक बड़े जन प्रतिरोध का रूपक बन चुका है। 

इसने एक व्यापक सांस्कृतिक एकजुटता और हस्तक्षेप की ज़मीन तैयार कर दी है। हम सभी कलाकार, रंगकर्मी, साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी अपनी अभिव्यक्ति के अपने माध्यमों-औज़ारों के साथ शाहीन बाग, खुरेजी, निजामुद्दीन, हौजरानी, सुंदरनगरी, मुस्तफाबाद, सीलमपुर, जामिया में इकट्ठा हुए। हमने वहां कुछ रचा, कुछ अभिव्यक्ति किया, कुछ संवाद किया। लड़ाई लंबी है, इसलिए इस हस्तक्षेप को निरंतरता देने, उसका स्वरूप और आगे की रणनीति तय करने का भी यह एक अवसर होगा। 

(सुशील मानव लेखक और पत्रकार हैं। इन दिनों दिल्ली में रहते हैं।) 

सुशील मानव
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