चोरी के आरोपी अरुण वाल्मीकि की पीट-पीट कर हत्या और हत्याआरोपी आशीष मिश्रा की होती है थाने में आवभगत

3 अक्टूबर को लखीमपुर खीरी में शांतिपूर्वक गुजरते हुए किसानों को एक तेज रफ्तार कार रौंदते हुए निकल जाती है। एक अन्य गाड़ी हूटर बजाते हुए उसी रफ्तार से उसके पीछे जाते हुए दिखती है। अब सड़क पर निगाह जाती है तो दिखता है कि कई किसान लहूलुहान पड़े हैं। इनमें 4 किसानों की मौत हो गई। एक पत्रकार रमन कश्यप भी मारा गया। इस घटना के ढेरों वीडियो पूरे हिंदुस्तान ने देखे। लेकिन चूंकि गाड़ी का मालिक हिंदू हृदय सम्राट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा का बेटा आशीष मिश्रा है, इसलिए मुख्यमंत्री योगी से लेकर एडीजी कानून व्यवस्था ने बिना जांच-पड़ताल के ही आशीष मिश्रा को बेगुनाह घोषित कर दिया।

हालांकि बाद में, सुप्रीम कोर्ट के दबाव में यूपी पुलिस ने माननीय मंत्री महोदय( जो स्वयं एक कत्ल के जुर्म में साबित अपराधी हैं। उच्च न्यायालय में उनकी सजा का मामला सुरक्षित है।) के बेटे को थाने आने का आमंत्रण (कानून की भाषा में नोटिस) भेजा। दूसरे दिन फिर से उनके आलीशान महलनुमा घर पर नोटिस चस्पा किया गया। इसमें थाने में कृपा पूर्वक पधारने का आग्रह किया गया था! दूसरे दिन मंत्री महोदय के साहबजादे पूरे शानो शौकत के साथ थाने में उपस्थित हुए। एसी कमरे में आरामदायक कुर्सी पर बैठे आशीष मिश्रा से पूछताछ के दौरान उनके नाश्ता पानी का शानदार इंतजाम किया गया। अभी तक उनके खिलाफ चार्जशीट दाखिल नहीं हुई है। इसीलिए पुनः सुप्रीम कोर्ट में योगी सरकार को फटकार लगाई गई।

एक दूसरा मामला चर्चे में है। इसी प्रदेश के ऐतिहासिक शहर आगरा के एक थाने से सीसीटीवी कैमरा और मजबूत पुलिस के पहरे में मोटे तालों में जड़े मालखाने से 25 लाख रुपए की चोरी होती है। पुलिस ने बिना किसी सबूत के थाने में सफाई करने वाले अरुण वाल्मीकि और उसके पूरे खानदान को चोरी के इल्जाम में पकड़कर पीटा। जब अरुण वाल्मीकि ने चोरी का इल्जाम कबूल नहीं किया तो उसे थाने ले जाकर इतना प्रताड़ित किया गया कि उसकी मौत हो गई। घर वालों के पूछने पर थानेदार ने जवाब दिया कि तबियत खराब होने के कारण उसकी मौत हो गई है। उसका शव मोर्चरी में पड़ा हुआ है।

अरुण की मां का कहना है कि दरअसल चोरी पुलिस वालों ने ही की है। अरुण ने उन पुलिस वालों का नाम लिया था। इसलिए उसे मार दिया गया। यूपी में इसी को रामराज कहते हैं! यही मनुवादी न्याय व्यवस्था है! एक तरफ गृह राज्य मंत्री का बेटा सर्वश्रेष्ठ जाति का आशीष मिश्रा है! सारे सबूत उसके खिलाफ हैं। जबकि दूसरी तरफ समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े वंचित तबके का एक निरपराध सफाई कर्मी है जिसकी पुलिस हिरासत में पीट-पीटकर हत्या कर दी जाती है।

गौरतलब है कि अरुण वाल्मीकि की हत्या वाल्मीकि जयंती के दिन होती है। प्रधानमंत्री से लेकर विपक्ष के तमाम नेता जब महर्षि वाल्मीकि की जयंती की शुभकामनाएं दे रहे थे, उसी वक्त वाल्मीकि समाज के अरुण को योगी की ठोकने वाली पुलिस बेरहमी से कत्ल कर देती है। जाहिर है इस मुद्दे पर राजनीति होगी। योगी सरकार की बर्बर पुलिस पर आरोप लगाते हुए तमाम विपक्षी नेताओं ने कार्यवाही की मांग की है। गौरतलब है कि जिस वक्त अरुण वाल्मीकि की हत्या की खबर आ रही थी, उसी वक्त दलितों के पैर धोने का प्रहसन करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण की धरती कुशीनगर में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का उद्घाटन कर रहे थे। लेकिन अभी तक उनकी कोई टिप्पणी नहीं आई है। केवल उजले पक्षों पर सुर्खियां बनाने वाले नरेंद्र मोदी, आमतौर पर ऐसे मुद्दों पर खामोश रहते हैं। यही खामोशी आज भी उन्होंने ओढ़ रखी है।

एक बड़ा सवाल यह है कि कौन है यह अरुण वाल्मीकि? क्या है इसकी पहचान? पुष्यमित्र शुंग की मनुवादी व्यवस्था में अछूत माना जाने वाला यह समुदाय वैदिक भारत से बहिष्कृत कर दिया गया था। कीड़े मकोड़ों से ज्यादा इसकी जिंदगी का मतलब नहीं था। कुत्ते बिल्ली से भी बदतर हालत थी, इसकी। 33 करोड़ देवताओं को बसाने वाली गाय के आगे तो यह मिट्टी का ढेला भी नहीं था। लेकिन स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसकी वोट की हैसियत जरूर हो गई। वाल्मीकि समुदाय एक वोट बैंक है। जाहिर है, इस पर विभिन्न राजनीतिक दलों की निगाहें लगी हैं। आज वह महज मतदाता है। हालांकि बाबा साहब डॉ अंबेडकर ने सबको समान मतदान के साथ-साथ समता, न्याय और बंधुत्व को संवैधानिक मूल्य बनाया था। लेकिन संविधान विरोधी विचारधारा के वारिस आज सत्ता में हैं। इसलिए उन्हें ना बाबा साहब की वैचारिकी से कोई लेना-देना है और ना संविधान से उनका कोई सरोकार है। दलितों का वोट उगाहने के लिए वे बाबा साहब की मूर्ति का इस्तेमाल करते हैं।

बहरहाल, समता, न्याय और बंधुत्व के साथ उन्नति की बाट जोहते अछूत या दलित समाज के इतिहास को बाबा साहब ने अपनी चर्चित किताब ‘द अनटचेबल्स’ में दर्ज किया है। उनका कहना है कि बौद्ध धर्मावलंबियों को ब्राह्मणवादियों ने पराजित करके समाज से बहिष्कृत कर दिया। भविष्य में यह समाज कभी सिर ना उठा सके, इसलिए उसे जन्मजात अछूत बनाकर हाशिए पर धकेल दिया गया। गौरतलब है कि बाबा साहब ने 1956 में अपने 4 लाख समर्थकों के साथ हिंदू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म स्वीकार किया था। एक तरह से यह उनकी ‘घर वापसी’ थी। बाबा साहब मानते थे कि उत्पीड़क जातिगत व्यवस्था से छुटकारा पाने का एक मात्र विकल्प हिन्दू धर्म से मुक्ति है। दलितों को अपने मूल धर्म की ओर लौटना होगा। लेकिन बाबा साहब के धर्मांतरण का प्रभाव महाराष्ट्र से बाहर नहीं हो सका। हालांकि कांशीराम के बहुजन आंदोलन के प्रभाव में जरूर कुछ दलित जातियों ने धर्मांतरण किया। लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि सामाजिक न्याय की राजनीति और बहुजन आंदोलन के कारण महात्मा बुद्ध से लेकर ज्योतिबा फुले, पेरियार, शाहूजी महाराज और डॉक्टर आंबेडकर की वैचारिकी का व्यापक प्रभाव हिंदी पट्टी में हुआ।

इसी के समानांतर उत्तर भारत में हिंदुत्व की राजनीति का प्रभाव बढ़ रहा था। सामाजिक समरसता के विभेदपरक और षड़यंत्रकारी सिद्धांत से दलितों को हिंदुत्व की राजनीति के साथ जोड़ने की कवायद चल रही थी। इसके नतीजे में हिंदुत्व के दुष्प्रचार का शिकार वाल्मीकि समाज हुआ। आरएसएस और भाजपा ने वाल्मीकि का हिंदुत्वीकरण किया। सबसे पहले महर्षि वाल्मीकि के साथ सफाई कर्मी जाति को जोड़कर उसकी विरासत को रामकथा के साथ मिथकीकरण कर दिया गया। इसके बाद एक नए इतिहास का पाठ पढ़ाया गया। हिंदुत्व के पाठ के साथ सांप्रदायिकता मुफ्त! वाल्मीकि जाति के इतिहास को मुगल बादशाह अकबर के प्रतिद्वंद्वी महाराणा प्रताप से जोड़ा गया। संघ का दक्षिणपंथी इतिहास कहता है कि जिन क्षत्रियों ने मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की, उन्हें अछूत बना दिया गया।

उन्हें मैला ढोने के लिए मजबूर किया गया। इस तरह बड़ी बारीकी के साथ वाल्मीकि समाज को मुसलमानों का दुश्मन बना दिया गया। एक प्रकार से वाल्मीकि जाति का क्षत्रियकरण किया गया। लेकिन सवाल यह है कि अगर वाल्मीकि क्षत्रिय हैं तो संघ का कोई क्षत्रिय ‘सजातीय’ वाल्मीकि के साथ रोटी- बेटी का संबंध क्यों नहीं बनाता? इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि संघ दलित-पिछड़ी जातियों का क्षत्रियकरण तो करता है, लेकिन कभी उन्हें ब्राह्मण घोषित नहीं करता। दरअसल, यह एक गहरी साजिश है। दलितों को लड़ाका बनाना और उन्हें मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करना; संघ की प्रयोगशाला का हिस्सा है। इस तरह दंगों में लड़ने -मरने के लिए इन वंचित जातियों का इस्तेमाल किया जाता है। संघ इन जातियों के साथ कभी समता और बंधुत्व का भाव नहीं रखता।

2002 के गुजरात दंगों के पोस्टर बॉय अशोक मोची हों या लेखक-पत्रकार भंवर मेघवंशी; इनकी दास्तान कहती है कि संघ दलितों से प्रेम नहीं बल्कि बेहद घृणा करता है। उसके लिए दलित सिर्फ सत्ता पाने का साधन है। यह समाज महज एक वोट बैंक है। मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ लड़ने के लिए दलित एक हथियार है। गुजरात से लेकर कर्नाटक और मध्य प्रदेश तक भाजपा संघ दलितों का इस्तेमाल केवल सत्ता हथियाने के लिए कर रहे हैं। उनकी सत्ता में ऊना से लेकर हैदराबाद तक और हाथरस से लेकर आगरा तक दलितों के साथ सिर्फ अन्याय और दमन होता है। इनके लिए न्याय और बंधुत्व सिर्फ संविधान में दर्ज दो हर्फ हैं! संविधान पर भी इस सत्ता की निगाहें खतरनाक तरीके से लगी हुई हैं। आज दलित वंचित तबके पर जितना खतरा है, उतना ही खतरा उनके अधिकारों को संरक्षित करने वाले संविधान को भी है।

(रविकान्त लखनऊ विश्वविद्यालय में अध्यापक हैं।)

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