भागवत जी, ज्यादातर भारत विरोधी तो हिंदू ही हैं!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेताओं का एक बहु प्रचलित डॉयलॉग है- आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और कोई हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता। पिछले आम चुनाव के दौरान यह डॉयलॉग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी दोहराया था, फिल्म अभिनेता कमल हासन ने तमिलनाडु की एक चुनावी सभा में कहा था कि देश का पहला आतंकवादी नाथूराम गोडसे हिंदू था, जिसने महात्मा गांधी की हत्या की थी। अभिनय की दुनिया से राजनीति में आए कमल हासन के इस बयान पर आरएसएस और भाजपा सहित तमाम हिंदुत्ववादी संगठनों ने तीखी प्रतिक्रिया जताई थी।

उसी सिलसिले में प्रधानमंत्री मोदी ने भी कुछ टीवी चैनलों को दिए इंटरव्यू में कहा था कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। लेकिन इसी के साथ अगली ही सांस में वे यह कहना भी नहीं भूले थे कि हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता और जो आतंकवादी होता है, वह कभी हिंदू नहीं हो सकता। अब इसी तर्ज पर आरएसएस के मुखिया मोहन राव भागवत ने कहा है कि अगर कोई हिंदू है तो वह देश भक्त ही होगा, क्योंकि देश भक्ति उसके बुनियादी चरित्र और संस्कार का अभिन्न हिस्सा है। यह बात उन्होंने महात्मा गांधी को हिंदू राष्ट्रवादी बताने वाली एक किताब ‘मेकिंग ऑफ ए हिंदू पैट्रियट: बैक ग्राउंड ऑफ गांधीजी हिंद स्वराज’ का विमोचन करते हुए कही।

किताब के नाम और मोहन भागवत के हाथों उसके विमोचन किए जाने से ही स्पष्ट है कि यह महात्मा गांधी को अपने हिसाब से परिभाषित करने की शरारतपूर्ण कोशिश है। बहरहाल, सवाल है कि अगर हिंदू भारत विरोधी नहीं हो सकता है तो फिर कौन भारत विरोधी हो सकता है? प्रधानमंत्री मोदी समेत भाजपा और आरएसएस के तमाम नेता और सोशल मीडिया पर उनके अपढ़-कुपढ़ समर्थकों की फौज सरकार का विरोध करने वाले जिन लोगों को टुकड़े-टुकड़े गैंग का बताते हैं, पाकिस्तान और चीन का एजेंट बताते हैं, देश द्रोही और गद्दार बताते हैं, उन्हें पाकिस्तान चले जाने की सलाह देते हैं, वे कौन लोग हैं?

सवाल यह भी है मोहन भागवत खुद कई मौकों पर कह चुके हैं और कहते रहते हैं कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है। उनका यह भी कहना है कि कुछ लोगों की पूजा पद्धति अलग हो सकती है, लेकिन वे अगर भारत में जन्मे हैं और भारत में ही रहते हैं तो वे हिंदू हैं। इस बात को भागवत के ताजा बयान के साथ देखा जाए तो भारत के सभी 135 करोड़ लोग हिंदू हैं और इसलिए वे भारत विरोधी नहीं हो सकते। ऐसे में भाजपा और आरएसएस के तमाम छोटे-बड़े नेता ‘हम और वे’ या ‘देश भक्त और देश विरोधी’ का नैरेटिव बना रहे हैं और प्रचार कर रहे हैं, उसका क्या मतलब है? क्या यह माना जाए कि संघ प्रमुख के इस बयान के बाद देश भक्त और देश द्रोही वाला नैरेटिव बंद हो जाएगा?

दरअसल मुश्किल यह है कि अगर यह नैरेटिव बंद हो गया तो भाजपा चुनाव किस मुद्दे पर लड़ेगी और संघ अपनी संस्कार शाला में स्वयंसेवकों को क्या सिखाएगा? इसलिए यह माना जाना चाहिए कि भागवत का यह बयान उनके सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के एजेंडे के सिलसिले को ही आगे बढ़ाने वाला है। इसके सिवाय इसका कोई और मतलब नहीं है। उनके इस कथन से साफ है कि वे सिर्फ देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त अपने संगठन के लोगों को क्लीन चिट ही नहीं दे रहे हैं, बल्कि परोक्ष रूप से हिंदुओं के अलावा देश के अन्य सभी गैर हिंदू समुदायों की देश भक्ति पर सवाल उठा कर उन्हें अपमानित और लांछित कर रहे हैं। उनके इस कथन का स्पष्ट निहितार्थ है कि कोई हिंदू तो भारत विरोधी नहीं हो सकता, लेकिन कोई गैर हिंदू जरूर भारत विरोधी हो सकता है।

जब मोहन भागवत यह कहते हैं कि कोई हिंदू आतंकवादी नहीं हो सकता तो यह सवाल पूछना लाजिमी हो जाता है कि जब कोई हिंदू किसी स्त्री के साथ बलात्कार कर सकता है, किसी निर्दोष की हत्या कर सकता है, लोगों को जिंदा जला सकता है, उनके घरों को आग के हवाले कर सकता है, डाका डाल सकता है, लूटपाट कर सकता है, देश के वित्तीय संस्थानों के साथ धोखाधड़ी कर देश से भाग सकता है और इसके अलावा भी ऐसे तमाम तरह के संगीन आपराधिक कृत्यों में लिप्त हो सकता है, जो समाज विरोधी माने जाते हैं, तो फिर वह देश विरोधी क्यों नहीं हो सकता?

फिर सवाल यह भी है कि आखिर मोहन भागवत और उनका संगठन किन कामों को देश विरोधी मानता है? दरअसल धरती के किसी टुकड़े का नाम ही देश नहीं होता है। देश बनता है उस भू भाग पर रहने वाले लोगों से, उनकी उदात्त जीवनशैली, संस्कारों और परंपराओं से। इसलिए देश विरोधी काम सिर्फ किसी दुश्मन देश से मिल कर अपने देश के सामरिक हितों को नुकसान पहुंचाना ही नहीं होता, बल्कि देश को आर्थिक और सामाजिक तौर पर नुकसान पहुंचाना, देश के संसाधनों का आपराधिक दुरुपयोग करना, किसी के उपासना स्थल को नष्ट कर देना, किसी नाजायज मकसद के लिए किसी व्यक्ति या समुदाय को आर्थिक, शारीरिक या मानसिक तौर पर नुकसान पहुंचाना और समाज में भय तथा तनाव का वातारण बनाना भी देश विरोधी कामों की श्रेणी में आता है।

महात्मा गांधी की निर्मम हत्या आजाद भारत की सबसे बड़ी देश विरोधी और मानवता विरोधी वारदात थी, जिसे अंजाम देने वाला व्यक्ति कोई पाकिस्तान या चीन से नहीं आया था। वह भारत में रहने वाला कोई मुस्लिम, ईसाई, सिख, यहूदी या पारसी भी नहीं था और न ही कोई दलित, आदिवासी, पिछड़ा या जैन था। जो था, वह हिंदू नाथूराम गोडसे ही था। वह हिंदू में भी उस वर्ण का था, जिसे देश की सबसे बड़ी हिंदू राष्ट्रवादी संस्था के संगठनात्मक ढांचे में हमेशा से सर्वोच्च स्थान हासिल रहता आया है, जैसा कि अभी मोहन भागवत को प्राप्त है।

यही नहीं, महात्मा गांधी की हत्या की साजिश में शामिल रहे विनायक दामोदर सावरकर, गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, मदनलाल पाहवा, विष्णु करकरे, दिगंबर बडगे आदि नाथूराम के सभी सहयोगी भी हिंदू ही थे। नाथूराम गोडसे तो ऐसा हिंदू था कि गांधी जी पर गोलियां दागने के पहले हुई धक्का-मुक्की में उनकी पोती मनु के हाथ से जमीन पर गिरी पूजा वाली माला और आश्रम की भजनावाली को भी वह अपने पैरों तले रौंदता हुआ आगे बढ़ गया था। 20वीं सदी का जघन्यतम अपराध करने- एक निहत्थे बूढ़े, परम सनातनी हिंदू, राम के अनन्य-आजीवन आराधक और राष्ट्रपिता का सीना गोलियों से छलनी करने।

यह और बात है कि नाथूराम ने गांधी जी की हत्या के तुरंत बाद पकड़े जाने पर खुद को मुसलमान बताने की कोशिश की थी। उसने पुलिस को अपना जो नाम बताया था वह मुस्लिम नाम था। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसा करने के पीछे उसका कितना कुत्सित और घृणित इरादा रहा होगा? वह तो उसके हाथ पर उसका वास्तविक नाम गुदा हुआ था, इसलिए उसकी मक्कारी और झूठ ने तत्काल ही दम तोड़ दिया और गांधी जी की हत्या के बाद का उसका अगला इरादा पूरा नहीं हो सका।

हिंदू राष्ट्रवादियों का नुमाइंदा नाथूराम गोडसे गांधी जी की हत्या के जरिए आतंक पैदा कर देश के बाकी नेताओं को यही तो संदेश देना चाहता था कि हिंदू-मुस्लिम मेल-मिलाप की बात करने वालों का वही हश्र होगा, जो गांधी का हुआ है। क्या मोहन भागवत और उनकी राष्ट्रवादी जमात के अन्य लोग इस हकीकत को नकार सकते हैं कि 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश भर में हुई सिख विरोधी हिंसा, देश के बंटवारे के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी थी। उस त्रासदी के दौरान भी असंख्य सिखों को जिंदा जलाने वालों और सिख महिलाओं के साथ बलात्कार करने वालों में ज्यादातर आरोपी हिंदू ही तो थे। वह पूरा घटनाक्रम क्या देश विरोधी नहीं था?

सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि कोई दो दशक पूर्व ओडिशा में ग्राहम स्टेंस नामक निर्दोष बूढ़े पादरी और उसके मासूम बच्चों को जिंदा जलाने का कृत्य किस तरह की देश भक्ति या मानवता से प्रेरित थी? उस कृत्य को अंजाम देने वाला बजरंग दल का पदाधिकारी दारा सिंह क्या भारत से बाहर किसी दूसरे देश का गैर हिंदू नागरिक था? ओडिशा में ही करीब एक दशक पहले विश्व हिंदू परिषद के एक नेता लक्ष्मणानंद के नक्सलियों के हाथों मारे जाने की घटना का ठीकरा ईसाई मिशनरियों के माथे फोड़कर लगभग एक माह तक विश्व हिंदू परिषद के लोगों ने कंधमाल में हिंसा का जो तांडव मचाया था, वह क्या था? वहां रहने वाले सभी ईसाइयों के घरों और चर्चों को आग के हवाले कर डेढ़ सौ से भी ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतार दिए जाने का समूचा घटनाक्रम किस तरह के राष्ट्रवाद या देश प्रेम के दायरे में आता है?

इसी सिलसिले में गुजरात को लेकर भी सवाल बनता है कि इसी सदी के शुरुआती दौर में वहां ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ के नाम पर मुसलमानों का संगठित कत्लेआम क्या आतंकवादी और देश-विरोधी कार्रवाई नहीं थी? उसी कत्लेआम के दौरान मुस्लिम समुदाय की कई गर्भवती स्त्रियों के गर्भ पर लातें मार-मार कर उनकी और उनके गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर देना किस तरह के मानव धर्म या राष्ट्र भक्ति से प्रेरित कृत्य था? उसी हिंसा में एक सौ से अधिक लोगों की हत्या के लिए जिम्मेदार बाबू बजंरगी को क्या मोहन भागवत देश भक्त मानेंगे, जो गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का करीबी सहयोगी हुआ करता था और जिसे अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुना रखी है। क्या यह अफसोस और ताज्जुब की बात नहीं है कि इस तरह की सारी शर्मनाक घटनाओं की आज तक संघ, भाजपा और विश्व हिंदू परिषद के किसी शीर्ष नेता ने औपचारिक रूप से निंदा नहीं की है।

अपने संगठन को देश भक्ति और भारतीय संस्कृति का एकमात्र झंडाबरदार समझने वाले मोहन भागवत को यहां यह याद दिलाना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि तमिलनाडु में सत्यमंगलम के जंगलों में लंबे समय तक आतंक का पर्याय रहा चंदन तस्कर वीरप्पन भी मुस्लिम या ईसाई नहीं बल्कि हिंदू ही था। कोई चार दशक पूर्व तक चंबल घाटी में आतंक फैला कर हजारों लोगों को लूटने और मौत के घाट उतारने वाले दस्युओं में भी सब के सब हिंदू ही थे।

यही नहीं, हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका में ढाई दशक से भी ज्यादा समय तक लगातार खून-खराबा करते हुए भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी सहित लाखों लोगों को असमय ही मौत की नींद सुला देने वाला तमिल विद्रोहियों का संगठन लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम कोई मुसलमानों या ईसाइयों का नहीं, बल्कि तमिल हिंदुओं का ही संगठन था और उसका सरगना प्रभाकरण भी एक हिंदू ही था। पृथक गोरखालैंड तथा बोडोलैंड के लिए दशकों से हिंसक गतिविधियों में संलग्न लड़ाकों को भी क्या भागवत हिंदू नहीं मानेंगे?

सीमा पार के आतंकवाद के साथ ही हमारा देश आज जिस एक और बड़ी चुनौती से जूझ रहा है, वह है माओवादी आतंकवाद। देश के विभिन्न इलाकों में सक्रिय विभिन्न माओवादी संगठनों में अपवाद स्वरूप ही कोई एकाध मुस्लिम युवक होगा, अन्यथा सारे के सारे लड़ाके संघ की परिभाषा के तहत हिंदू ही हैं। इसके अलावा मालेगांव, अजमेर और समझौता एक्सप्रेस में बम धमाके करने के आरोपी असीमानंद, प्रज्ञा ठाकुर, कर्नल पुरोहित आदि तो संघ द्वारा प्रमाणित हिंदू ही हैं।

इनमें से प्रज्ञा ठाकुर तो अब भाजपा की ओर से लोकसभा में भी पहुंच गई हैं। यही नहीं, 2019 में लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश राजस्थान, हरियाणा आदि राज्यों में जिस तरह सड़कों पर, बसों और ट्रेनों में लोगों का नाम पूछ-पूछ कर और उनके संप्रदाय और जाति की शिनाख्त करके उन्हें शारीरिक रूप से प्रताड़ित किए जाने का जो सिलसिला कई महीनों तक चला था, उसे मोहन भागवत किस श्रेणी में रखेंगे? गौरतलब है कि इस तरह की घटनाओं में कई लोग मारे भी गए थे।

यहां जेल में बंद आसाराम और गुरमीत राम रहीम जैसे लोगों का जिक्र करना भी जरूरी है, जो कथित धार्मिक गतिविधियों की आड़ में वर्षों तक बलात्कार और अन्य जघन्य कृत्यों में लिप्त रहे हैं। यही नहीं, इनके जेल जाने से पहले तक खुद मोहन भागवत, नरेंद्र मोदी, लालकृष्ण आडवाणी आदि संघ और भाजपा के तमाम नेता भी सार्वजनिक रूप से इन लंपटों की चरण वंदना करते रहे हैं। सवाल है कि भागवत क्या इन्हें हिंदू नहीं मानते हैं?

सवाल यह भी बनता है कि शराब कारोबारी विजय माल्या और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी मित्र रहे मेहुल और नीरव मोदी के बारे में मोहन भागवत क्या कहेंगे, जो हाल के वर्षों में भारतीय बैंकों के अरबों रुपये हड़प कर विदेशों में जा बसे हैं। क्या वे हिंदू नहीं हैं या उनका कृत्य देश-विरोधी अपराध के दायरे में नहीं आते हैं?

उपरोक्त सारे उदाहरणों का आशय समूचे हिंदू समाज को लांछित या अपमानित करना कतई नहीं है। मकसद सिर्फ यह बताना है कि चाहे वह गोडसे हो या दारा सिंह, चाहे सिख विरोधी हिंसा के अपराधी हों या गुजरात के कातिल, चाहे वह चर्चों और ईसाइयों के घरों में आग लगाने वाले हों या माओवादी लड़ाके, सब के सब चाहे वे जिस जाति या प्रदेश के हों या चाहे जो भाषा बोलते हों, वे सब संघ की परिभाषा के तहत हिंदू ही हैं। इसलिए यह दंभोक्ति निहायत ही अतार्किक और बेमतलब है कि कोई हिंदू कभी भारत विरोधी या आतंकवादी नहीं हो सकता।

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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