जो बाइडेन और भारत-अमेरिकी संबंधों का भविष्य

दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक और सामरिक महाशक्ति अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम आ चुके हैं। जो बाइडेन राष्ट्रपति तथा कमला हैरिस उप राष्ट्रपति चुनी गई हैं। अमेरिका के अगले राष्ट्रपति के रूप में चुने गए जो बाइडेन बराक ओबामा के राष्ट्रपतित्व के दौरान उप राष्ट्रपति थे और उन्होंने हमेशा मजबूत भारत-अमेरिका संबंधों की वकालत की है। वर्तमान विजेता उप राष्ट्रपति कमला हैरिस तो भारतीय मूल की हैं। फिर भी भारत में वर्तमान मोदी सरकार और अमेरिका में आगामी 20 जनवरी को शपथ लेने जा रही नई अमेरिकी सरकार के बीच किन-किन मुद्दों पर सहमतियां और सहकार विकसित होंगे और किन मुद्दों पर टकराव के हालात बन सकते हैं, इन पर तमाम विशेषज्ञों के अनुमान आने लगे हैं।

निश्चित रूप से अमेरिका जैसा महाशक्तिशाली देश, जो मूलतः महाकाय वैश्विक कॉरपोरेट पूंजी के हितों के लिहाज से संचालित होता है, वहां की सत्ताधारी पार्टी में बदलाव या राष्ट्रपति-उप राष्ट्रपति पद पर व्यक्ति के बदलाव से उस देश की नीतियों में किसी बड़े गुणात्मक बदलाव की उम्मीद बेमानी है। सत्ता में रिपब्लिकन पार्टी रहे या डेमोक्रेटिक पार्टी, अमेरिका की विदेश नीति में एक निरंतरता का तत्व हमेशा बना रहता है। फिर भी पार्टी या व्यक्ति के बदलने से तमाम उन नीतियों और रुझानों में बदलाव होते रहते हैं जो कॉरपोरेट हितों को नुकसान पहुंचाने वाले न हों, और कई बार ऐसे बदलाव भी भारत जैसे विकासशील देश के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण हो सकते हैं। कई छोटे-छोटे अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर तो इस बात का भी असर पड़ जाता है कि पद पर विराजमान व्यक्ति का व्यक्तित्व संयत है या उच्छश्रृंखल

जो बाइडेन 2009 से 2017 तक राष्ट्रपति बराक ओबामा के दोनों कार्यकालों के दौरान अमेरिका के उपराष्ट्रपति रहे हैं, लेकिन 2006 में ही उन्होंने कहा था कि मेरा सपना है कि 2020 तक भारत और अमेरिका दुनिया के दो सबसे गहरे मित्र देश बन जाएं। 2001 में, जब वे सीनेटर थे, ‘सीनेट की विदेश-संबंधी मामलों की समिति’ के अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश को पत्र लिख कर आग्रह किया था कि भारत पर से प्रतिबंध हटा लिए जाएं। 2008 में भारत-अमेरिका नाभिकीय समझौते को मूर्त रूप देने के लिए रिपब्लिकन और डेमोक्रेट, दोनों दलों के सांसदों को राजी कराने में जो बाइडेन का योगदान काफी महत्वपूर्ण था।

संयुक्त राष्ट्र संघ की विस्तारित सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता की दावेदारी को अमेरिकी समर्थन जो बाइडेन के उपराष्ट्रपति रहते हुए और उनके प्रयासों से ही संभव हो सका। उसी दौरान भारत को ‘मेजर डिफेंस पार्टनर’ का दर्जा भी दिया गया जो अमेरिकी कांग्रेस से पास भी कराया गया। अमेरिका के परंपरागत गठबंधन देशों के बाहर किसी देश से ऐसा समझौता पहली बार हुआ था। इस समझौते के आधार पर अमेरिका सामरिक महत्व की टेक्नोलॉजी भी भारत को हस्तांतरित कर सकता था। 2016 में दोनों देशों के बीच ज्यादा सघन सैन्य सहयोग की आधारशिला बनने वाली संधि ‘लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट्स’ पर हस्ताक्षर किए गए थे। इसके अगले दोनों चरणों की संधियों पर हस्ताक्षर ट्रंप प्रशासन के दौरान हुए।

नए प्रशासन से एक बार फिर उम्मीद की जा सकती है कि रक्षा और आतंकवाद विरोधी गतिविधियों के मामले में दोनों देशों के बीच सहयोग का रुख आगे भी बना रहेगा। आप्रवास, एच1 बी वीजा और ग्रीन कार्ड के मुद्दों पर तनाव कम हो सकता है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अमेरिकी अड़ियल रुख में बदलाव की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन भारत के घरेलू सामाजिक मुद्दे तनाव के कारण बनते रहेंगे।

विदेश नीति के मामले में ट्रंप और बाइडेन के दृष्टिकोणों में काफी अंतर हैं। फिर भी भारत-प्रशांत क्षेत्र में दोनों देशों के बीच आपसी सहयोग जारी रहेगा, क्योंकि यह क्षेत्र दोनों के लिए ही सामरिक महत्व का रहा है। बराक ओबामा के राष्ट्रपति रहते हुए इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभुत्व को नियंत्रित करने के उद्देश्य से जो बाइडेन ने ही उपराष्ट्रपति के रूप में अमेरिका की दक्षिण एशियाई रणनीति तैयार करने में बहुत अहम भूमिका निभाई थी। इसके लिए उन्होंने ‘एशिया पैसिफिक’ नाम से एक विजन डॉक्यूमेंट तैयार किया था। इसी की अगली कड़ी के रूप में 2015 में दक्षिण चीन सागर पर खास करके केंद्रित एक नए डॉक्यूमेंट, ‘यूएस-इंडिया ज्वाइंट स्ट्रेटेजिक विजन फॉर द एशिया-पैसिफिक एंड इंडियन ओशन रीजन’ पर भी हस्ताक्षर हुए थे।

आज जो बाइडेन की जीत पर खास तौर पर रूस और चीन की खामोशी के पीछे कई आशय तलाशे जा रहे हैं। 2016 के अमेरिकी चुनावों में ट्रंप को गुप्त रूप से रूस द्वारा साइबर मदद पहुंचाने के आरोप लगते रहे हैं। यह उम्मीद की जा रही है कि नई सरकार रूस पर पहले से कड़ा रुख अख्तियार करेगी। जाहिर है कि ऐसी स्थिति भारत को पशोपेश में डाल सकती है। इसी तरह से हो सकता है कि बाइडेन प्रशासन चीन पर उतना कड़ा रुख न अपनाए जितना ट्रंप अपना रहे थे। ट्रंप का रवैया तो अक्सर तर्क और शालीनता की सीमा का भी अतिक्रमण कर जाता था।

हो सकता है कि अमेरिका चीन के साथ कुछ सहयोग बढ़ाने की रणनीति अपनाए, तो ऐसे में भारत और चीन के बीच जारी वर्तमान सीमा विवाद की परिस्थिति में भारत असहज अनुभव कर सकता है, लेकिन ईरान के मोर्चे पर जिस तरह से ट्रंप की ज्यादा आक्रामक रणनीति के कारण दोनों देशों के बीच नाभिकीय समझौता 2018 में अधूरा छोड़ दिया गया था, और अमेरिकी प्रतिबंधों की धमकी के दबाव में भारत-ईरान संबंध तथा चाबहार परियोजना खटाई में पड़ गए थे, उसके कारण भारतीय राजनय की काफी किरकिरी हुई थी।

ईरान के प्रति ट्रंप के आक्रामक और शत्रुतापूर्ण रुख के बरअक्स बाइडेन का रुख बातचीत और मेल-मिलाप वाला रहा है। बाइडेन ने ही 2015 में अमेरिकी विदेश नीति की प्राथमिकताओं के तहत ‘ज्वाइंट कंप्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन’ तैयार किया था। वे अगर उस पर फिर से अमल करने की शुरुआत करते हैं तो अमेरिकी दबाव की इस स्थिति में परिवर्तन आ सकता है और भारत-ईरान मित्रता फिर से बहाल हो सकती है तथा पाकिस्तान को छुए बिना ही अफगानिस्तान होते हुए ईरान तक की भारत के लिए बेहद सामरिक महत्व की चाबहार परियोजना अपने अंजाम तक पहुंच सकती है।

भारत और अमेरिका के बीच जो व्यापार समझौते अपना अंतिम रूप नहीं नहीं ले सके थे, उन पर पुनर्विचार हो सकता है और थोड़ा विलंब भी हो सकता है। हलांकि भारत को इसका फायदा भी मिल सकता है। पहले भारत अमेरिका के तरजीह प्राप्त देशों की सूची में था जिससे चमड़ा, आभूषण और इंजीनियरिंग जैसे श्रम-केंद्रित सेक्टरों की 2167 वस्तुओं पर आयात शुल्क कम या बिल्कुल नहीं लगाया जाता था, लेकिन ट्रंप प्रशासन ने यह कह कर इस प्रणाली को खत्म कर दिया कि इसके बदले में इन देशों के बाजारों में अमेरिका को तरजीह नहीं मिल रही थी। अगर बाइडेन प्रशासन इस प्रणाली को पुनर्जीवित करता है तो अमेरिकी बाजार में भारत की इन वस्तुओं के 5.6 अरब डॉलर सालाना तक के शुल्क रहित निर्यात का अवसर मिल सकेगा।

कोरोना महामारी के बाद विश्व व्यापार व्यवस्था में ग्लोबल सप्लाई चेन के प्रति आशंका भाव भी बढ़ सकता है, क्योंकि इन महाकाय और लगभग स्वयं-संचालित तथा अनियंत्रित सप्लाई चेनों के कारण ही जंगल की आग की तरह यह महामारी पूरी दुनिया में फैल गई थी। ऐसे में भारत-अमेरिका द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ावा मिल सकता है, जिससे भारत लाभान्वित होगा। ट्रंप के कार्यकाल में दोनों देशों के बीच कोई व्यापार समझौता नहीं हो सका, उम्मीद की जा सकती है कि बाइडेन के कार्यकाल में ऐसा कोई समझौता अस्तित्व में आ जाए।

जलवायु संकट वर्तमान विश्व के सबसे बड़े संकटों में से एक है। इस संबंध में ‘पेरिस जलवायु समझौता’ एक अहम मुकाम साबित हो सकता है, लेकिन अमेरिका इसी 5 नवंबर को औपचारिक तौर पर इस समझौते से पीछे से हट गया है। इस फोरम से हटने की घोषणा तो ट्रंप तीन साल पहले ही कर चुके थे। आज दुनिया के ज्यादातर देश ‘जलवायु न्याय’ की मांग कर रहे हैं। अगर अमेरिका सहयोग करता तो विकासशील देश भी अपने विकास के साथ समझौता किए बिना भी जलवायु संकट को हल करने में अपनी भूमिका निभा सकते थे। अतः जो बाइडेन की यह घोषणा कि उनके पद संभालने के 77 दिनों के भीतर ही अमेरिका फिर से इस समझौते में शामिल हो जाएगा, एक उम्मीद की किरण के रूप में सामने आई है।

ट्रंप का रुख आप्रवासियों के खिलाफ रहा है। एच1 बी वीजा और ग्रीन कार्ड नियमों को कड़ा करके ट्रंप प्रशासन ने अमेरिका में काम करने के इच्छुक बड़ी संख्या में भारतीय विद्यार्थियों के सपनों को मटियामेट कर दिया। भारत चाहता है कि अमेरिका में काम करने की उत्सुक भारतीय प्रतिभाओं पर भरोसा किया जाए और उन्हें परेशान न किया जाए। इन भारतीय प्रतिभाओं से दोनों देशों को फायदा है। इसी साल जून में ट्रंप ने एच1 बी और एच4 वीजा जैसे अस्थायी वर्क परमिट को सस्पेंड कर दिया था। इस फ़ैसले ने हज़ारों लोगों को अमेरिका में नौकरी हासिल करने और वर्क-स्टडी प्रोग्राम्स से जुड़ने से रोक दिया। इस मामले में निश्चित रूप से बाइडेन का रुख ज्यादा लचीला रहा है, और उन्होंने ट्रंप सरकार द्वारा थोपे गए प्रतिबंधों को हटाने का वादा भी किया है। इसलिए उम्मीद है कि नई सरकार इस दिशा में जल्दी ही आवश्यक कदम उठाएगी।

ज्यादातर विश्लेषकों का मानना है कि भारत की वर्तमान सरकार और नई अमेरिकी सरकार के बीच टकराव का सबसे बड़ा क्षेत्र मानवाधिकारों का होने वाला है। अमेरिकी कांग्रेस की भारतीय मूल की पांच महिला सदस्यों ने मिल कर एक समूह बनाया हुआ है, जिसे उन्होंने ‘समोसा कॉकस’ का नाम दिया हुआ है। नई उप राष्ट्रपति कमला हैरिस भी इस समूह की सदस्य हैं। यह समूह भारत द्वारा अनुच्छेद 370 को हटाए जाने, कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त करने, वहां संचार के साधनों और इंटरनेट को प्रतिबंधित करने तथा राजनीतिज्ञों को नजरबंद कर देने के निर्णय का कटु आलोचक रहा है। इस समूह की सदस्य प्रमिला जयपाल ने तो भारत के इस निर्णय की इतनी आलोचना की कि भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने पिछले साल अपनी वाशिंगटन यात्रा के दौरान प्रमिला जयपाल से मिलने से ही मना कर दिया।

जो बाइडेन के चुनाव प्रचार अभियान के एजेंडे में भी इस बात का उल्लेख है कि भारत सरकार को सभी कश्मीरियों के अधिकारों को बहाल करने के सभी जरूरी कदम उठाने चाहिए।… शांतिपूर्ण प्रदर्शनों जैसे असंतोष की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध तथा इंटरनेट की स्पीड कम करना या बिल्कुल बंद कर देना दरअसल लोकतंत्र को ही कमजोर कर देना है। कमला हैरिस ने तो अक्टूबर 2019 में अपनी प्रत्याशिता की दावेदारी के दौरान कहा था कि कश्मीरियों को मालूम होना चाहिए कि दुनिया में वे अकेले नहीं हैं,… जरूरत पड़ने पर हस्तक्षेप भी किया जाना चाहिए।

जिस तरह से मोदी सरकार ने गैर सरकारी संगठनों को विदेशों से मिलने वाले चंदों पर रोक लगा दी है, यह भी दोनों देशों के बीच भविष्य में टकराव का कारण बन सकता है। कानूनी दबाव डाल कर ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ की भारतीय शाखा को जिस तरह से बंद कराया गया है, उसे भी मानवाधिकार समूहों ने ‘भय का वातावरण बनाने तथा हर असंतोष को कुचलने और आलोचना की आवाजों का गला घोंटने की सरकार की सचेत कोशिश’ के रूप में देखा है। जो बाइडेन और कमला हैरिस दोनों ही मोदी सरकार में मानवाधिकारों के उल्लंघन के सवाल उठाते रहे हैं। बाइडेन ने नागरिकता संशोधन कानून तथा प्रस्तावित जनसंख्या रजिस्टर की आलोचना करते हुए इन कदमों को ‘भारत की धर्मनिरपेक्षता की लंबी परंपरा और भारत के बहुनृजातीय तथा बहुधार्मिक लोकतंत्र के असंगत’ बताया था।

अमेरिकी मीडिया में भी इन कदमों को मोदी सरकार की अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों की कड़ी के रूप में ही चिह्नित किया गया। आलोचकों ने अमेरिकी मीडिया में मोदी और ट्रंप की जोड़ी को दक्षिणपंथी जोड़ी के रूप में चिह्नित किया और ट्रंप के चुनाव में भारतीय मूल के मतदाताओं को लुभाने के लिए जिस तरह से ‘नमस्ते ट्रंप’ और मोदी का इस्तेमाल किया गया तथा मोदी के चुनाव से पहले भारत में उनकी छवि को बड़ी और अंतरराष्ट्रीय रूप से स्वीकृत दिखाने के लिए ‘हाउडी मोदी’ का आयोजन किया गया उसकी बहुत आलोचना की है।

इस तरह से हम उम्मीद कर सकते हैं कि नई सरकार के दौरान भारत-अमेरिका संबंध सरपट नहीं दौड़ेंगे। इस यात्रा में जहां आर्थिक, सामरिक और जलवायु जैसे मुद्दे एक्सेलेरेटर का काम करेंगे, वहीं भारत में मानवाधिकारों के हनन के मुद्दे, बढ़ती सांप्रदायिकता और उग्र बहुसंख्यकवादी रुझान और कश्मीर जैसे मुद्दे ब्रेक का काम करते रहेंगे, और इस तरह द्विपक्षीय संबंधों की गाड़ी हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ती रहेगी।

  • शैलेश

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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