हाथों में पेट्रोल रखने वालों से बेमानी है शांति की उम्मीद

मणिपुर जल रहा है। पीएम मोदी अमेरिका यात्रा की अपनी तैयारी में व्यस्त हैं। बाइडेन के साथ डिनर में क्या सूट पहनेंगे और कांग्रेस को संबोधित करते समय उनका परिधान क्या होगा। इन सब की वह तैयारियों में जुटे हैं। मणिपुर की यात्रा की बात तो दूर इस मसले पर उनके मुंह से दो शब्द भी नहीं फूटे हैं। और वैसे भी इस तरह की घटनाओं का उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन्होंने ऐसी बहुत सारी देख रखी हैं और ढेर सारी के तो वह खुद भी सूत्रधार रहे हैं।

लिहाजा उनकी सेहत पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है और जब मामला हिंसा में भी राजनीतिक फायदे का हो तो उसको हल करने की भला क्या जरूरत? 3 मई, 2023 से हिंसा की शुरुआत हुई थी और आज 18 जून है। वह रुकने का नाम ही नहीं ले रही है। समय के साथ बढ़ती जा रही है। इस बीच धारा 355 लगा कर केंद्र ने मणिपुर को अपने हाथ में ले लिया। सीधे सेना उतार दी गयी है। लेकिन 35 लाख की आबादी को नियंत्रण में लेकर शांत करने में वह भी नाकाम रही। 

केंद्रीय गृहमंत्री शाह वहां तीन दिन रुकते हैं और लोगों से मिलते हैं। लेकिन उसका भी कोई नतीजा नहीं निकलता है। ऐसा नहीं है कि मणिपुर कोई अजूबा सूबा है। यह फिर उसके लोग किसी दूसरे ग्रह के हैं। या फिर वो शांति नहीं चाहते हैं या कि जान देना उनकी फितरत में है। उनकी सोच और चाहत से ज्यादा जरूरी प्रश्न सरकार की इच्छा और उसकी मंशा का है। क्या सरकार सचमुच में वहां शांति चाहती है? अगर चाहती तो मणिपुर अब तक शांत हो गया होता। यही कुकी समुदाय के लोग थे जिन्होंने सरकार के साथ समझौते के बाद अपने हथियार सेना कैंपों में जमा कर दिए थे। लेकिन अगर वही लूटने और अपनी रक्षा के लिए उन्हें फिर से उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा है तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है? 

जब लोगों की लाशों पर राजनीति की जाने लगे। मौत और हिंसा के रास्ते वोट की गारंटी होने लगे तो कोई भी सूबा कभी गुजरात बन जाएगा तो कभी मणिपुर। किसी भी जगह हिंसा को खत्म करने की पहली शर्त है कि वहां के लोगों को विश्वास में लिया जाए। क्या डबल इंजन सरकार वहां इस काम को कर सकी? कतई नहीं। सूबे की बीरेन सरकार पहले ही लोगों का विश्वास खो चुकी थी। और फिर केंद्र सरकार भी उससे अलग कुछ करती हुई नहीं दिखी। समस्या को हल करने की जगह मणिपुर की आग में वह भी अपने राजनीतिक स्वार्थों की रोटी सेंकने लगी। लेकिन इसको अब मणिपुर के लोग भी समझ गए हैं। उसी का नतीजा है कि इस समय बीजेपी नेताओं और उसकी सरकार के मंत्रियों पर हमले हो रहे हैं। बहरहाल इस मसले पर बाद में आते हैं। पहले बात करते हैं इस समस्या की पृष्ठभूमि की।

समस्या मणिपुर स्थित हाईकोर्ट के एक सिंगल बेंच की जज के आदेश से शुरू हुई थी। जिसमें उसने मैतेई समुदाय को आदिवासियों का दर्जा देने की बात कही थी। और इस आदेश के साथ ही वहां के 53 फीसदी आबादी वाले इस बहुमत समुदाय को आदिवासी इलाकों में जमीन खरीदने का अधिकार भी हासिल हो जाता। भौगोलिक बसाहट के लिहाज से मैतेई राजधानी इंफाल के इलाके में रहते हैं और यहां जनसंख्या का घनत्व उनका बहुत ज्यादा है। जबकि सूबे में तकरीबन 40 फीसदी की जनसंख्या का निर्माण करने वाले कुकी और जो समेत दूसरे नगा आदिवासी म्यानमार से सटे पहाड़ी और इंटीरियर इलाकों में रहते हैं।

भौगोलिक क्षेत्र के लिहाज से भी उनके पास जमीनें ज्यादा हैं। विधानसभा की भी साठ सीटों में तकरीबन 40 पर मैतेई और बाकी 10 पर कुकी और 10 पर नागा समेत अन्य समुदाय के लोग जीतते हैं। ऐसे में हाईकोर्ट की इस व्यवस्था के लागू हो जाने के बाद मैतेई न केवल नौकरियां कुकी से छीन लेंगे बल्कि उनकी जमीन पर कब्जा करने का अधिकार भी उन्हें मिल जाएगा। और यहां एक बात और स्पष्ट करना ज़रूरी है कि मैतेई हर तरीके से न केवल साधन-संपन्न हैं बल्कि वो वहां के शासक वर्ग का निर्माण करते हैं। लिहाजा सामने आयी इस नई परिस्थिति में कुकी बिल्कुल असुरक्षित महसूस करने लगे। और उन्होंने विरोध-प्रदर्शन शुरू कर दिया। ऐसे में उन्हें भरोसा दिलाने। या फिर उनके साथ कोई अन्याय नहीं होगा इसकी गारंटी करने की जगह सरकार ने बिल्कुल उल्टा रास्ता अख्तियार कर लिया।

वह खुलकर मैतेई लोगों के साथ खड़ी हो गयी। बीरेन सिंह की सरकार मैतेई प्रभुत्व वाली सरकार है। और बीजेपी इस झगड़े को निपटाने की जगह इसको बढ़ा कर उसका राजनीतिक फायदा उठाने में जुट गयी। और स्पष्ट तरीके से कहा जाए तो मणिपुर में मैतेइयों को समर्थन देकर वह यहां अपना स्थाई आधार बनाने की फिराक में है। इसीलिए वह मैतेइयों को वहां का मूलनिवासी और कुकी को बाहरी बताकर उन्हें आतंकी करार देने तक चली गयी है। और इस कड़ी में वह मणिपुर में अपने वैचारिक एजेंडे को साधने का काम कर रही है। मणिपुर में पूरी संघी मशीनरी को सक्रिय कर दिया गया है।

मैतेइयों से हिंदू राष्ट्र के निर्माण और वंदेमातरम से लेकर तमाम ऐसे नारे लगवाए जा रहे हैं जिनका अभी तक उनके जीवन में कहीं दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं रहा है। संकट की इस घड़ी में शांति बहाली का रास्ता निकालने की जगह सूबे में एनआरसी लागू करने की बात की जा रही है। यह अनायास नहीं है कि अभी जब मैतेई बनाम कुकी और दूसरे आदिवासी हो रहा है तो उसी समय ईसाइयों के चर्च भी जलाए जा रहे हैं। 253 से ज्यादा चर्च जलकर खाक हो गए हैं। आखिर ये किसकी कारस्तानी है और किसके इशारे पर यह सब हो रहा है?

इस तरह से सूबे और केंद्र की सरकार पूरी तरह से पक्षपाती भूमिका में है। दोनों ने खुलकर मैतेइयों के पक्ष में पीजीशन ले रखा है। वहां सरकार, उसकी पुलिस, सेना और संघ के कार्यकर्ता सब कुकी के खिलाफ खड़े हैं। अनायास नहीं है कि पुलिस से उनका भरोसा उठ गया है। यह पहली बार देश में हुआ है जब किसी एक समुदाय के सबसे बड़े अफसर को इस आधार पर बदल दिया गया क्योंकि उस समुदाय के होने के नाते उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। यह सरकारी मशीनरी की पूरी नाकामी का प्रतीक है। अविश्वास इस स्तर तक बढ़ गया है कि इलाकों से गुजरने वाली सेना की गाड़ियों को रोक कर लोग चेक कर रहे हैं और इस बात की गारंटी चाहते हैं कि उसके भीतर विरोधी समुदाय का कोई शख्स तो नहीं शामिल है। इस मामले में असम राइफल्स सबसे बदनाम फोर्स के तौर पर सामने आयी है। और सभी पक्ष उसे वहां से निकालने की मांग कर रहे हैं।

और अब हालात बिल्कुल बेकाबू हो गए हैं। सेना के एक पूर्व अफसर ने कहा कि मणिपुर स्टेटलेस हो गया है। यहां कोई शासन-व्यवस्था नहीं है। फैसले सड़क पर हो रहे हैं और हर कोई असुरक्षित है। यही बात केंद्र के मंत्री जी तब बोले हैं जब उनका घर जला दिया गया। शायद उन्हें इस बात का एहसास हुआ है कि दूसरों के घरों में आग लगाने से अपने घर के भी जलने का खतरा रहता है। सूबे और केंद्र की सरकार ने अपनी रही-सही साख भी खो दी है। लेकिन एक कहावत है न दर्द जब हद से गुजर जाता है तो वह दवा बन जाता है।

हालात इतने बदतर हो गए हैं कि अब हर कोई वहां शांति चाहता है। वह मैतेई हो या कि कुकी। नगा हो या कोई दूसरी जनजाति। लेकिन इस शांति के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा खुद सूबे और केंद्र की सरकार है। यह बात लगता है अब स्थानीय लोगों के भी समझ में आ गया है। नहीं तो क्या वजह है कि केंद्र और सूबे के मंत्रियों पर हमले हो रहे हैं और उनके घरों को आग के हवाले कर दिया जा रहा है। यहां तक कि सूबे में बीजेपी अध्यक्ष के घर को भी नहीं बख्शा गया। और यह काम इंफाल में हो रहा है जहां मैतेइयों का वर्चस्व है। और वो हमले भी एक दो लोग नहीं बल्कि इकट्ठा हो कर दो-दो-तीन-तीन सौ की संख्या में लोग एक साथ कर रहे हैं। इन घटनाओं से यह बात समझी जा सकती है कि मैतेई समुदाय के लोग भी भारतीय जनता पार्टी और संघ के घृणित मंसूबों को पहचान गए हैं। यह गुस्सा उनके खिलाफ फूट पड़ा है। और वो चुन-चुन कर उनके नेताओं को निशाना बना रहे हैं। 

इस मामले में सबसे ज्यादा शर्मनाक भूमिका न्यायपालिका की दिखी है। हिंसा की शुरुआत उसी के आदेश के बाद हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश पर तो तत्काल रोक लगा दी थी। लेकिन मामले की सुनवाई को नहीं रोका था। अब ऐसे हालात में उस मामले पर सुनवाई करने या फिर उस पर सरकार से जवाब मांगने का क्या तुक बनता है? लेकिन हाईकोर्ट की डबल बेंच ने ऐसा किया है। ऐसे संकट के समय में किसी भी सरकारी संस्था की पहली जिम्मेदारी बनती है कि वह सबसे पहले हिंसा को रोकने के लिए अपने तईं हर संभव कोशिश करे। और अगर नहीं कर सकती तो कम से कम ऐसा कोई काम न करे जिससे उसको बढ़ावा मिले। और यह जिम्मेदारी किसी और से ज्यादा न्यायपालिका की होती है। लेकिन यहां न्यायपालिका आग में घी डालने का काम कर रही है।

बहरहाल मणिपुर में शांति अभी भी कहीं दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रही है। देश के इस सबसे ज्यादा संवेदनशील इलाके को एक ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया गया है जहां से उसका वापस लौटना बेहद मुश्किल हो रहा है। यह काम सूबे के नाकाम होने के बाद केंद्र का था। लेकिन जिन्होंने हाथों में पेट्रोल लेकर हमेशा आग लगाने का काम किया हो उनसे शांति की उम्मीद करना बेमानी है।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के फाउंडिंग एडिटर हैं।)

महेंद्र मिश्र
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