दूसरे दलों से आए अवसरवादी नेताओं की शरणस्थली बन गई है भाजपा

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की स्थापना को 42 साल पूरे हो चुके हैं। 6 अप्रैल 1980 को तत्कालीन जनता पार्टी से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी के नाम से अस्तित्व में आई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की यह राजनीतिक शाखा 1977 में जनता पार्टी में विलीन होने से पहले भारतीय जनसंघ के नाम से जानी जाती थी, जिसका जन्म 21 अक्टूबर 1951 को हुआ था। 

एक दशक पहले तक भाजपा न सिर्फ विचारधारा के स्तर पर बल्कि कुछ अन्य मामलों में बाकी पार्टियों से अलग मानी जाती थी। इसमें दूसरी पार्टियों से आए लोगों को प्रवेश तो मिल जाता था लेकिन उन्हें कोई बड़ा पद या जिम्मेदारी नहीं दी जाती थी। पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी या पद उसे ही मिल पाता था जिसकी वैचारिक शिक्षा-दीक्षा आरएसएस में हुई होती थी और जो संघ के प्रति निष्ठावान होता था। 

लेकिन पिछले एक दशक के दौरान यह अघोषित बंधन खत्म हो गया है। भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के युग की समाप्ति तथा नरेंद्र मोदी और अमित शाह का युग शुरू होने के बाद तो पार्टी ने दूसरे दलों के नेताओं को भाजपा में लाने का एक अभियान सा छेड़ दिया है, चाहे उनकी छवि कैसी भी हो। 

अब दूसरे दलों के चाहे जैसे भी नेता भाजपा में आते हैं, पार्टी उन्हें सिर-आंखों पर बैठाती है। उन्हें न सिर्फ लोकसभा और विधानसभा चुनाव में टिकट दिए जाते हैं और पार्टी की ओर से राज्यसभा में भेजा जाता है, बल्कि मुख्यमंत्री और मंत्री भी बनाया जाता है। पार्टी की ओर से खुल कर संदेश दे दिया गया है कि जो भी नेता अपनी पार्टी छोड़ कर भाजपा में आएगा, उसे अहम जिम्मेदारी और पद दिया जाएगा। 

पूर्वोत्तर में तो यह संदेश भाजपा ने काफी पहले दे दिया था, जिसका नतीजा यह हुआ है कि कांग्रेस छोड़ कर कई बड़े नेता भाजपा में शामिल हो गए और अब वे वहां भाजपा की सरकारों के मुख्यमंत्री और मंत्री हैं। पहले कांग्रेस में रहे हिमंता बिस्वा सरमा, पेमा खांडू और एन. बीरेन सिंह अब भाजपा हैं और तीनों क्रमश: असम, अरुणाचल प्रदेश तथा मणिपुर के मुख्यमंत्री है। इनके अलावा भी इन प्रदेशों के कई नेता कांग्रेस से भाजपा में शामिल होकर विधायक और मंत्री बने हैं। 

त्रिपुरा में भी भाजपा ने कांग्रेस सहित दूसरे दलों से आए नेताओं के बूते ही चुनाव लड़ा, जीता और सरकार बनाई। इसके अलावा मेघालय और नगालैंड में भी आज भाजपा के जो विधायक हैं, वे दूसरे दलों से ही आए हुए हैं। यही नहीं, पूर्वोत्तर के इन राज्यों में भाजपा ने उन स्थानीय गुटों और दलों के साथ चुनावी गठबंधन से भी परहेज नहीं किया जो घोषित रूप से अलगाववादी हैं और हिंसक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं। जम्मू-कश्मीर में भी भाजपा ने मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ मिल कर सरकार बनाने में संकोच नहीं किया, जिसे वह शुरू से पाकिस्तान परस्त और आतंकवादियों की हमदर्द मानती थी।

कर्नाटक में भी भाजपा ने कांग्रेस और जनता दल (सेक्यूलर) के विधायकों को तोड़ कर पहले अपनी सरकार बनाई और उन विधायकों को मंत्री पद से नवाजा। बाद में जनता दल (यू) से भाजपा में आए बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया जो कि अविभाजित जनता दल के अध्यक्ष तथा राज्य के मुख्यमंत्री रहे एसआर बोम्मई के बेटे हैं। 

पश्चिम बंगाल में भी भाजपा ने दूसरे दलों से आए कई नेताओं को लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ाया और पार्टी में महत्वपूर्ण पद दिए। वहां पर विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा विधायक दल के नेता बनाए गए सुवेंदु अधिकारी भी पहले तृणमूल कांग्रेस में थे।

इससे पहले मध्य प्रदेश में कांग्रेस छोड़ कर आए ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा ने पहले राज्यसभा में भेजा और फिर केंद्र में मंत्री भी बनाया। सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़ कर आए सभी विधायकों को भी राज्य सरकार में मंत्री बनाया गया और उन्हें भाजपा के टिकट पर विधानसभा का उपचुनाव लड़ाया। उनमें से जो चुनाव जीत गए उन्हें मंत्री बनाए रखा जो हार गए उन्हें मंत्री के ही समकक्ष दूसरे सरकारी पद दिए गए। 

दूसरे दलों के नेताओं को अब यह संदेश भाजपा पूरे देश में दे रही है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में जिस तरह से उसने कांग्रेस और दूसरी पार्टियों से आए नेताओं को टिकट दिए और जितने पद देकर नवाजा है, वह हैरान करने वाला है। 

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा में शामिल हुए जितिन प्रसाद को पथ निर्माण जैसा भारी-भरकम विभाग दिया गया है, जो पिछली सरकार में उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के पास था। राज्य के कैबिनेट मंत्रियों में आधे से ज्यादा मंत्री बाहरी हैं या सहयोगी पार्टी के हैं। सिर्फ सात ही कैबिनेट मंत्री ऐसे हैं, जो मूल रूप से भाजपा के हैं। 

दो साल पहले राज्यसभा चुनाव के वक्त भी भाजपा ने अपने ज्यादा से ज्याद उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित करने के लिए समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के कई विधायकों का विधानसभा से इस्तीफा करा कर उन्हें अपनी पार्टी में शामिल किया था औेर बाद में उन्हें भाजपा के टिकट पर उपचुनाव लड़ाया था। 

उत्तराखंड में भी भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से भाजपा में आए कई नेताओं को टिकट दिया था और बाद में उन्हें मंत्री भी बनाया। इस बार भी उत्तराखंड की भाजपा सरकार में एक तिहाई मंत्री ऐसे हैं जो पहले कांग्रेस में थे। 

इसी तरह गोवा में इस बार मुख्यमंत्री के साथ आठ मंत्रियों की जो टीम बनी है उसमें सिर्फ दो ही मंत्री मूल रूप से भाजपा हैं। बाकी छह में से चार कांग्रेस छोड़ कर आए नेता हैं और दो अन्य सहयोगी हैं। गोवा में पिछली बार भी भाजपा की सरकार में आधे से ज्यादा मंत्री बाहर से आए नेताओं को बनाए गए थे।

भाजपा की नजरें अब महाराष्ट्र, राजस्थान, झारखंड, बिहार आदि राज्यों पर हैं। इन राज्यों में कांग्रेस और अन्य दलों के नेताओं के लिए बड़ा ऑफर पेश कर दिया गया है। बिहार में पिछले दिनों भाजपा ने अपनी सहयोगी एक स्थानीय पार्टी के तीन विधायकों को अपने में शामिल किया है, जिससे अब वह विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी हो गई है। लेकिन अभी सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद वह जनता दल (यू) के जूनियर पार्टनर के रूप में सरकार में शामिल हैं। वहां उसका लक्ष्य अब अपना मुख्यमंत्री बनाने का है, जिसके लिए उसने कांग्रेस और अन्य दलों के विधायकों पर डोरे डालना शुरू कर दिए हैं। इसी मकसद से महाराष्ट्र और झारखंड में भी उसके नेता कांग्रेस सहित दूसरी पार्टियों के विधायकों के संपर्क में हैं। 

हालांकि दूसरी पार्टियों से आए नेताओं को चुनाव में टिकट और महत्वपूर्ण पद दिए जाने से भाजपा के पारंपरिक नेता और कार्यकर्ता अपने को असहज और अपमानित महसूस करते हैं। लेकिन सांप्रदायिक नफरत में डूबी संघ की विचारधारा की घुट्टी उन्हें भाजपा से बाहर जाने से रोक देती है और उन्हें अभिशप्त होकर बाहर से आए नेताओं की पालकी का कहार बनना पड़ता है। 

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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