हताश बीजेपी सांप्रदायिकता के नये-नये पैंतरों की तलाश में

भाजपा के मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने आज एक नीतिगत बयान जारी किया है। जिसमें उन्होंने कहा कि उर्दू और फारसी के वे शब्द जो हिंदी भाषा में आ गए हैं उन्हें पाठ्यक्रमों से बाहर निकाल दिया जाएगा। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मंत्री जी की घोषणा पर हंसू या रोऊं। लेकिन यह एक सच है कि देश के सत्ता के शीर्ष पर ऐसे बीमार और छुद्र दृष्टि वाले लोग बैठे हैं। जो भारत के 135 करोड़ नागरिकों के भविष्य का निर्धारण कर रहे हैं। स्वाभाविक है कि ये महानुभाव जिस बीमार दृष्टि से भारतीय समाज को संवारने सजाने का अभियान चला रहे हैं उससे निश्चय ही खंडित और प्रदूषित जहरीले नागरिकों के निर्माण का खतरा लोकतंत्र के समक्ष गंभीरता पूर्वक खड़ा हो गया है ।हमारी चिंता यह नहीं है कि यह लोग किस तरह से सोचते हैं और किस दिवास्वप्नलोक में विचरित करते हैं ।

हमारी चिंता यह है कि भविष्य के भारतीय लोकतंत्र की दृष्टि और दिशा क्या होगी । संघी जमात के लोग भाषा और शब्दों को भी अब सुरक्षित नहीं रहने देना चाहते हैं । संपूर्ण भारत के आर्थिक विध्वंस के बाद अब हिन्दी भाषा को भी दरिद्र बनाने की तैयारी शुरू हो गई है।जिसे हिंसक और जहरीला पहले ही बना चुके हैं। साथ ही भाषा को भी एक हथियार के तौर पर हमारे लोकतांत्रिक विवेक और दृष्टि पर प्रयोग करने का प्रयास कर रहे हैं ।हालांकि भारत में भाषा को लेकर पहले से ही बहुत सारे विवाद टकराव होते रहे हैं । उर्दू का तो खासतौर पर भारत में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए अस्त्र के रूप में प्रयोग किया गया है। इसे एक खास मजहब के लोगों की भाषा बनाने और उनकी पहचान से जोड़ने का प्रयास लंबे समय से चलता रहा है ।

भारत में भाषाओं के विकास के ऊपर शोध करने वाले अभी तक सभी भाषा विद इस बात पर सहमत रहे हैं कि उर्दू का विकास भारतीय जमीन और यहां के जीवन स्थितियों में ही हुआ। इसके पीछे अरब व्यापारियों का भारत आना और भारतीय जन गण के साथ अंत क्रियाओं का विस्तार ‌मुख्य कारक था।जिस कारण से भारत के अच्छे खासे इलाके में इसने अपना गहरा प्रभाव डाला। खड़ी बोली से निकली हुई उर्दू और हिंदी दोनों के प्रारंभिक जीवन में एक दूसरे से अलग करना बहुत मुश्किल था ।

भारत के बड़े साहित्यकारों में से एक प्रेमचंद की पूरी भाषा ही ऐसी है जिसे हिंदू और मुस्लिम या उर्दू और हिंदी के साहित्यिक जगत के लोग अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं। मैं नहीं जानता कि नरोत्तम मिश्रा जैसे भाषाविद दरवाजा, खिड़की, तवा कड़ा बाल ,मेज ,कुर्सी, किताब और खुद हिन्दी, जैसे शब्दों की जगह पर कौन सा शब्द गढ़ेंगे। लेकिन एक मरते और ढहते हुए सांप्रदायिक कारपोरेट गठजोड़ के साम्राज्य के लिए शायद इसमें डूबते हुए तिनके का सहारा देने की कोशिश हो रही हो। नाक, कान, बाल, कंघी, कड़ा जैसे शब्द हैं जो हमारे लिए कभी पराये लगे ही नहीं। लेकिन कोई विचारधारा जब किसी अमानवीय विभाजनकारी दृष्टि के इर्द-गिर्द घिर जाती है तो उसे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं मिलता है। वह अपने ही द्वारा खोदी गई अंधी सुरंग में जाकर फंस जाती है। मंत्री को यह ज्ञान उसी विचारधारा के केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ाया गया है। जहां के वह मेधावी छात्र दिखते हैं । इसी ज्ञान के लिए ही तो उन्हें मंत्री पद से विभूषित होने का मौका मिला है। उनके गुरुकुल में इस्लामिक पहचान से जुड़ी हुई हर चीज लोकतांत्रिक समाज के खिलाफ विध्वंसक हथियार के प्रयोग के उद्देश्य से गढ़ी जाती है।

संघी विचार धारा कहां से संकट ग्रस्त हुई?

किसान आंदोलन ने संघ और भाजपा की सरकार के सांप्रदायिक अभियान के खेल में उनकी गेंदबाजी के लय को बुरी तरह से गड़बड़ा दिया है। इसलिए उनके छुटभैय्ए खिलाड़ी इधर उधर गेंदबाजी करके सामाजिक राजनीतिक विमर्श को बदलने की हताश कोशिश कर रहे हैं। आइए इनकी इस दयनीय दशा पर दृष्टि डालते हैं।
पिछले 1 वर्ष से चल रहा किसान आंदोलन संघ और भाजपा के रणनीतिकारों के लिए एक दु:स्वप्न साबित हुआ है । इसलिए इन्होंने इस आंदोलन से निपटने के लिए कई हताशा जनक कार्रवाई करने की कोशिश की जिसका एक मजबूत प्रयोग 26 जनवरी 2021 के दिन लाल किले की घटना के द्वारा किया गया था। लेकिन उसके असफल होने के बाद लंबे समय तक इनके रणनीतिकार कई छिपे खुले प्रयोग करते देखे गए। जिसका चरमोत्कर्ष लखीमपुर में किसानों के नरसंहार के बतौर दिखाई दिया। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री टेनी के पुत्र मोनू द्वारा किसानों के ऊपर पीछे से गाड़ियां दौड़ाकर 4 किसान और एक पत्रकार की हत्या कर दी गई। इस घटना ने भाजपा सरकार द्वारा बनाए गए सारे समीकरण को उलट पलट दिया ।

पहले इन्होंने सोचा लखीमपुर नरसंहार के द्वारा किसानों को बदनाम कर उन्हें आतंकवादी हत्यारा अपराधी घोषित कर किसान आंदोलन को रक्षात्मक स्थिति में पहुंचा देंगे। अपने जर खरीद प्रचार तंत्र द्वारा इस घटना के बाद किसानों को बदनाम करने का अभियान जोर शोर से शुरू भी कर दिया था। लेकिन 45 सेकंड के वीडियो ने षड्यंत्र कारी परियोजना को धराशायी कर दिया। जिससे राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत सरकार की छवि को धक्का लगा और वह गंभीर संकट में घिर गई ।उनके पास इस आपराधिक कृत्य का कोई तार्किक जवाब देने का रास्ता नहीं बचा। जिससे हताशा में इनकी ओर से तराई में सांप्रदायिक अभियान की शुरुआत की थी। लेकिन प्रगतिशील सामाजिक राजनीतिक ताकतों ने पहल कदमी लेकर उनके इस अभियान को ध्वस्त कर दिया। हालांकि इस दौर में कुछ किसान संगठनों को अंदर से मैनेज करने की कोशिश भी की गयी।। लेकिन वह कामयाब नहीं हो पाए। इस घटना के द्वारा किसान आंदोलन कारियों में वे जिस तरह के आतंक का सृजन करना चाहते थे वह काफूर हो गया। इसलिए भाजपा सरकार को अपने चिर परिचित मुस्लिम विरोधी एजेंडे पर लौट आना पड़ा।

हम सभी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस कार्य में दक्ष माने जाते हैं । इसलिए इस अभियान की कमान उन्होंने खुद अपने हाथ में संभाल ली ।अब्बा जान, जिन्ना से शुरू कर कैराना मुजफ्फरनगर हापुड़ और न जाने कहां-कहां उन्होंने जाकर मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक उन्माद फैलाने और हिंदुत्व की ताकतों के गिरे हुए मनोबल को नया उत्साह देने की कोशिश कर रहे हैं। इस दौरान प्रशासनिक तंत्र ने भी कई क्रूरता पूर्व घटनाओं को अंजाम दिया। हिरासत में हत्या को सर्वोच्य न्ययालय को संज्ञान में लेना पड़ा। उत्तर प्रदेश में हो रहे दलितों महिलाओं अल्पसंख्यकों पर हमलों के चलते उत्पन्न आक्रोश और छात्रों के रोजगार के सशक्त अभियान ने योगी आदित्यनाथ के विध्वंसक कार्रवाई को कामयाब होने से रोक दिया। यह भाजपा सरकार के लिए बड़ा धक्का था।

इस बीच लखीमपुर की आग अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर फैल गई और राष्ट्र संघ के मानवाधिकार संगठन से लेकर दुनियाभर के अनेक लोकतांत्रिक संगठन और सरकारें इसके विरोध में खड़ी हो गईं। अन्त में भाजपा को जान बचाने के लिए हरियाणा की तरफ अपने पुराने सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए लौट जाना पड़ा।
गुड़गांव के कई स्थलों में लंबे समय से मुस्लिम समाज शुक्रवार की जुमे की नमाज अदा करते रहे हैं। इस को आधार बनाकर तथाकथित हिंदुत्व के स्वयंभू रक्षक लंपट तत्वों नें मुस्लिम विरोधी हिंसा अभियान की शुरुआत कर दी। पार्कों में उनके नमाज अदा करने की जगह पर उसी समय समानांतर धार्मिक आयोजन करने की घोषणा की । हालांकि ये जगहें राज्य सरकार द्वारा मुस्लिम समाज के लिए शुक्रवार की नमाज अदा करने के उद्देश्य से चिन्हित करके उन्हें दी गई थी ।फिर भी कुछ तथाकथित हिंदुत्व की ताकतों ने आतंक और सांप्रदायिक उन्माद खड़ा करने की कोशिश की । प्रशासनिक सक्रियता और सिख समाज के द्वारा मुस्लिम धर्म के अनुयायियों के लिए अपने गुरुद्वारे नमाज के लिए खोल देने और एक यादव व्यवसाई द्वारा अपना घर और हाता नमाज स्थल के रूप में प्रयोग करने के के लिए आमंत्रित करने की घोषणा के साथ सरकार बैकफुट पर चली गई।

पहले से ही खट्टर सरकार किसान आंदोलन के चलते गहरे संकट में फंसी हुई थी । उसके इस षड्यंत्र को जिसे केंद्र सरकार के सर्वोच्च संयंत्र से समर्थन प्राप्त था, बेनकाब होने के बाद केंद्र सरकार को हताशा में तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी।
हम जानते हैं संघ और भाजपा की पूरी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि मुस्लिम विरोधी प्रचार अभियान दंगा और विवाद खड़ा करके उन्माद पैदा करने पर टिकी हुई थी। हिंदू समाज के परंपरागत विचारों व्यवहारों को सांप्रदायिक उन्माद तक उन्नत कर देने से ही इन्हें राष्ट्रीय स्तर पर फैलने का मौका मिला था। लेकिन किसान आंदोलन ने उनके सबसे सशक्त दुर्ग सांप्रदायिकता पर चोट करके इन्हें धराशाई कर किया ।

उसके चलते भाजपा सरकार को अंततोगत्वा अपने कारपोरेट मित्रों के साथ सलाह मशविरा करके और उनके द्वारा हरी झंडी दे देने के बाद कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी ।हालांकि अभी भी निर्लज्जता पूर्वक प्रधानमंत्री सफाई में अपनी तपस्या और किसानों की भलाई की दुहाई दे रहे हैं ।लेकिन किसान आंदोलन के कारण वे भारत के संपूर्ण जन गण के समक्ष पाखंडी कमजोर व्यक्तित्व के रूप में उभर कर सामने आए और उनकी गढी हुई कागजी विराट मूर्ति खंडित होकर धाराशाई हो चुकी है।

इस बीच कुछ छुट भैया नेताओं द्वारा सांप्रदायिक उन्माद की कमान भी संभाल ली गई है। जिसमें मध्यर प्रदेश सरकार के मंत्री नरोत्तम शर्मा और उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य मुख्य है। श्रीमान जी ने अयोध्या काशी के बाद मथुरा के मस्जिद को लेकर बिघटन कारी अभियान छेड़ दिया है और वह जालीदार टोपी जैसे पहचान मूलक पहनावा पर निशाना साधने लगे हैं । दर्जनों आपराधिक मामलों के अभियुक्त रहे श्री श्री केशव प्रसाद जी को जालीदार सफेद टोपी थोड़ा असहज लग रही है जबकि काली टोपी उन्हें बहुत पसंद है ।

इस तरह से अब चारों तरफ से घिरने के बाद उत्तर प्रदेश की सरकार भावी चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए मथुरा को नए युद्ध क्षेत्र में बदलना चाहती है ।यह एक नया विघटनकारी और अशुभ संकेत उत्तर प्रदेश से आ रहा है। अभी खबर आ रही है कि बड़े पैमाने पर अर्ध सैनिक बल और पुलिस मथुरा में तैनात किए जा रहे हैं। यह सब हताशा और हारे हुए लड़ाई के स्पष्ट संकेत के रूप में दिख रहा है। जो किसान आंदोलन के समक्ष घुटने टेकने के बाद भारतीय समाज और राजनीति में भाजपा विरोधी माहौल बनने के कारण ही होरहा है।

मिशन यूपी 2022। ऐतिहासिक जीत के मोड़ पर पहुंचकर किसान आंदोलन में शामिल समस्त सामाजिक राजनीतिक ताकतों को सचेत रहने की जरूरत है । उन्हें हर स्तर पर इनके छोटे से छोटे सांप्रदायिक अभियान को बहुत धैर्य पूर्वक समझने और उसका जनतांत्रिक समाधान जनता के समक्ष प्रस्तुत करने की एक पूरी परियोजना पर काम करना चाहिए। इसके साथ ही किसान आंदोलनकारियों को समस्त लोकतांत्रिक जन गण के साथ जो अपनी मांगों को लेकर संघर्षरत हैं। आपसी विचार विमर्श करते हुए भाजपा और संघ की सांप्रदायिक रणनीति के खिलाफ एक मुकम्मल वैचारिक राजनीतिक एजेंडा तैयार करना होगा।

अगर कहीं से भी किसी तरह का विभाजनकारी प्रयास सांप्रदायिक ताकतों द्वारा किया जाता है तो तत्काल सतर्कता बरतते हुए उसका नागरिक समाज के साथ मिलकर प्रतिवाद करते हुए पीछे धकेलना होगा। यह अवसर बेहतरीन है लोहा गरम है इसलिए और तगड़ी चोट करनी होगी। भाजपा के सांप्रदायिक कारपोरेट गठजोड़ को संकट में डालने के हर संभव प्रयास करते हुए भारत में संविधान लोकतंत्र को बचाने की तरफ आगे बढ़ना होगा।

संघ भाजपा के सांप्रदायिक कारपोरेट परस्त एजेंडा बेनकाब हो चुका है।इनकी राष्ट्रभक्ति स्पष्ट रूप से वैश्विक कारपोरेट पूंजी की बेशर्म भक्ति के रूप में बेनकाब चुकी है। इस दौर के संघर्ष की यही सबसे बड़ी उपलब्धि है। इस उपलब्धि को आने वाले समय में उत्तर प्रदेश के विस्तृत मैदानी इलाकों में होने वाले चुनाव, जो निश्चय ही तीक्ष्ण राजनीतिक जन संघर्ष होगा, के दौरान एक मजबूत जन एजेंडा को लेकर हमें आगे बढ़ना होगा। आन्दोलन रत किसान मजदूर और छात्र नवजवान सहित सभी समुदायों को आज के आर्थिक सामाजिक राजनीतिक और धार्मिक सवालों पर वैकल्पिक नीतियों को पेश की करने की कोशिश होनी चाहिए।

ताकि कृषि संकट और उससे उपजे हुए सवाल बेरोजगारी महंगाई और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हुए हमले और उत्तर प्रदेश में दलितों पिछड़ों महिलाओं अल्पसंख्यकों के ऊपर हुए हमलों को आने वाले समय का मुख्य चुनावी एजेंडा बनाया जा सके ।अगर जनता की बुनियादी जरूरतों के साथ हम कृषि सवाल को चुनाव का एजेंडा बनाने में कामयाब हो गए तो भविष्य में सांप्रदायिक फासीवाद को गहरी चोट दी जा सकती है। इसी संघर्ष के मध्य सेही लोकतांत्रिक भारत के बेहतर भविष्य की संभावना निकलकर आयेगी।

(जयप्रकाश नारायण सीपीआई एमएल की कोर कमेटी के सदस्य हैं।)

जयप्रकाश नारायण
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जयप्रकाश नारायण