भाजपा में थके-हारे नेताओं का संसदीय बोर्ड

भारतीय जनता पार्टी में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का युग शुरू होने के बाद से वैसे तो कई चीजें बदली हैं लेकिन इस बार पार्टी के सर्वोच्च निकाय यानी संसदीय बोर्ड का जिस तरह पुनर्गठन किया गया है, उससे तो उसका पूरा ढांचा ही बदल गया है। उसमें शामिल किए गए चेहरे तो चौंकाने वाले हैं ही लेकिन उससे भी ज्यादा हैरान करने वाला है संसदीय बोर्ड के संरचनात्मक ढांचे में किया गया आमूल-चूल बदलाव। 

इस बदलाव के चलते कई नियम टूट गए हैं। हालांकि ये नियम पार्टी के संविधान का हिस्सा नहीं है लेकिन कई चीजें परंपरा से चली आ रही थी, उन स्थापित परंपराओं को दरकिनार कर इस बार संसदीय बोर्ड में पुराने सदस्यों को बाहर कर नए चेहरों को शामिल किया गया है। 

भाजपा की स्थापना के समय से ही यह व्यवस्था बनी थी कि पार्टी का अध्यक्ष ही संसदीय बोर्ड का भी अध्यक्ष होगा और सारे पूर्व अध्यक्ष बोर्ड के सदस्य होंगे। इसके अलावा संसद के दोनों सदनों में पार्टी के नेता और अगर पार्टी सत्ता में है तो प्रधानमंत्री भी इसके सदस्य होंगे। पार्टी का संगठन महामंत्री इस बोर्ड का पदेन सदस्य होगा। और संगठन महामंत्री से अलग एक महासचिव होगा, जो संसदीय बोर्ड का सदस्य सचिव होगा। इस बार इनमें से कई परंपराएं टूट गई हैं। 

इससे पहले जो बोर्ड था उसमें राज्य सभा में सदन के तत्कालीन नेता थावरचंद गहलोत सदस्य थे। गहलोत को राज्यपाल बना दिए जाने पर उनकी जगह पीयूष गोयल को राज्य सभा मे नेता बना दिया गया। उम्मीद की जा रही थी कि उच्च सदन के नेता के नाते उनको संसदीय बोर्ड मे जगह मिलेगी लेकिन उनको नहीं रखा गया। लोकसभा में पार्टी के नेता खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। प्रधानमंत्री और नेता सदन के नाते वे संसदीय बोर्ड में हैं लेकिन राज्यसभा का नेता संसदीय बोर्ड में नहीं है।

इसी तरह पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्षों के बोर्ड का सदस्य होने की परंपरा भी इस बार टूट गई। इसी परंपरा की वजह से उप राष्ट्रपति बनने से पहले वेंकैया नायडू बोर्ड के सदस्य थे। इसी परंपरा के तहत पार्टी के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी भी संसदीय बोर्ड के सदस्य थे लेकिन इस बार उन्हें बाहर कर दिया गया। दो पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह और अमित शाह बोर्ड में हैं लेकिन गडकरी नहीं। एक परंपरा संगठन महामंत्री से अलग एक महामंत्री को रखने की थी, जो बोर्ड का सदस्य सचिव होता था। अनंत कुमार ने यह भूमिका काफी समय तक निभाई थी लेकिन इस बार अलग से सदस्य सचिव नहीं रखा गया है। माना जा रहा है कि पदेन सदस्य के तौर पर बोर्ड में शामिल संगठन महामंत्री ही यह भूमिका निभाएंगे। 

आठ साल पहले पार्टी ने जब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के युग से बाहर निकल कर मोदी और शाह के युग में प्रवेश किया था तब पार्टी में मार्गदर्शक मंडल के नाम से एक नया निकाय बनाया गया था। इस मार्गदर्शक मंडल में वाजपेयी, आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी शांता कुमार और यशवंत सिन्हा जैसे वरिष्ठ और बुजुर्ग नेताओं को जगह दी गई थी, जिन्हें संसदीय बोर्ड से हटा दिया गया था। 

हालांकि नरेंद्र मोदी और राजनाथ सिंह भी इस मार्गदर्शक मंडल के सदस्य थे लेकिन माना यह गया था कि रिटायर होने वाले बड़े नेताओं को मार्गदर्शक मंडल में जगह मिलेगी और सक्रिय नेता संसदीय बोर्ड में बने रहेंगे। इसी के साथ पार्टी ने 75 साल की उम्र पार करने वालों को सक्रिय राजनीति से बाहर करना भी शुरू किया और इस नियम के तहत कुछ नेताओं को राज्यपाल बना कर राजभवनों में तो कुछ नेताओं को घर बैठा दिया गया। लेकिन अब लगता है कि ये दोनों नियम पार्टी ने अपनी सुविधा के हिसाब से शिथिल या स्थगित कर दिए हैं। मार्गदर्शक मंडल का तो अब पार्टी में कोई नाम तक नहीं लेता। पिछले आठ साल के दौरान भी कभी सुनने में नहीं आया कि मार्गदर्शक मंडल की कोई बैठक हुई हो या उसने किसी मुद्दे पर पार्टी या सरकार को कोई मार्गदर्शन दिया हो।

बहरहाल अब भाजपा का कोई रिटायर नेता मार्गदर्शक मंडल में नहीं जा रहा है बल्कि पार्टी के सर्वोच्च निकाय यानी संसदीय बोर्ड को थके-हारे यानी रिटायर नेताओं से भर दिया गया है। बिल्कुल वास्तविक और शाब्दिक अर्थों में जो नेता अपनी उम्र या किसी अन्य वजह से रिटायर हो चुके हैं उनको अब झाड़-पोछ कर संसदीय बोर्ड में शामिल कर लिया गया है। 

कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने पिछले दिनों सक्रिय राजनीति से अवकाश लेने का ऐलान किया था। 79 साल के येदियुरप्पा ने कहा था कि वे अपनी पारंपरिक शिकारीपुर सीट से चुनाव नहीं लडेंगे। येदियुरप्पा ने क्षेत्र के लोगों से अपने बेटे बी वाई विजयेंद्र का समर्थन करने की अपील की थी। 

एक साल पहले पार्टी नेतृत्व ने येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाया भी इसलिए था कि वे 75 वर्ष की उम्र पार कर चुके थे। हालांकि तीन साल पहले जुलाई 2019 में जब वे चौथी मर्तबा मुख्यमंत्री बने थे तब भी उनकी उम्र 76 साल की थी लेकिन पार्टी नेतृत्व को मजबूरी में उन्हें मुख्यमंत्री बनाना पड़ा था। अब भी उन्हें संसदीय बोर्ड और चुनाव समिति का सदस्य मजबूरी में बनाया गया है, क्योंकि पार्टी में कर्नाटक सहित दक्षिण भारत में वे ही एकमात्र जनाधार वाले नेता हैं, इसलिए राज्य में अगले साल विधानसभा और 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी को उनकी जरूरत है। 

इसी तरह मध्य प्रदेश के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री 76 वर्षीय सत्यनारायण जटिया भी रिटायर हो गए थे। उनका राज्य सभा का कार्यकाल 2020 में पूरा हुआ था और उसके बाद पार्टी ने उन्हें न दोबारा राज्य सभा में भेजा था और न ही संगठन में कोई जिम्मेदारी दी थी। खुद जटिया ने भी मध्य प्रदेश में पार्टी की गतिविधियों में हिस्सा लेना लगभग बंद कर दिया था। चूंकि मध्य प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव है और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को संसदीय बोर्ड से हटाना था इसलिए दलित चेहरे के तौर पर जटिया को संसदीय बोर्ड में शामिल किया गया है।

येदियुरप्पा और जटिया की तरह ही संसदीय बोर्ड में शामिल किए गए इकबाल सिंह लालपुरा भी रिटायर नेता हैं। वे भारतीय पुलिस सेवा से रिटायर होने के बाद 2012 में भाजपा में शामिल हुए थे। उन्हें 2021 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष बनाया गया था। चूंकि पंजाब में भाजपा का शिरोमणि अकाली दल से गठबंधन टूट चुका है और उसे वहां अपने पैर जमाने के लिए एक सिक्ख चेहरे की जरूरत है। 

पिछले साल हुए किसान आंदोलन और इस साल हुए विधानसभा चुनाव के बाद यह जरूरत ज्यादा महसूस की जा रही थी। इसलिए लालपुरा को संसदीय बोर्ड में शामिल किया गया है। अब यह अलग बात है कि लालपुरा पंजाब में पार्टी के कितने उपयोगी साबित हो पाएंगे, क्योंकि पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव में उन्हें रूपनगर सीट से उम्मीदवार बनाया था लेकिन वे चुनाव हार गए थे।

संसदीय बोर्ड में शामिल की गईं हरियाणा की सुधा यादव की स्थिति भी रिटायर नेता जैसी ही है। उन्होंने पहली आखिरी बार 1999 का लोकसभा चुनाव जीता था। उसके बाद 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में हार गईं। बाद में पार्टी ने उन्हें किसी चुनाव में उम्मीदवार बनाने लायक नहीं समझा। उन्हें न तो 2014 और 2019 में लोकसभा या हरियाणा विधानसभा के चुनाव में टिकट दिया गया और न ही राज्यसभा में भेजा गया लेकिन अब ओबीसी चेहरे के तौर पर सीधे संसदीय बोर्ड में शामिल कर लिया गया है।

संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति के पुनर्गठन के सिलसिले में एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि पार्टी के इन दोनों ही महत्वपूर्ण निकायों में बिहार जैसे बड़े सूबे का कोई प्रतिनिधि नहीं है, जहां से पार्टी के 17 लोकसभा सदस्य हैं और जहां पार्टी अभी कुछ दिनों पहले तक सत्ता में साझेदार थी। कहने की आवश्यकता नहीं कि संसदीय बोर्ड की हैसियत भी अब मार्गदर्शक मंडल जैसी हो गई है, क्योंकि सारे फैसले दो ही नेताओं के स्तर पर लिए जाते हैं जिन पर संसदीय बोर्ड, चुनाव समिति और कार्यकारिणी आदि निकाय औपचारिक तौर पर अपनी मंजूरी की मुहर लगा देते हैं। 

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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