पुस्तकों को सेल्फ़ में क़ैद न करो, उन्हें बांटो!

अंग्रेजी के एक बहुत बड़े लेखक थे स्टीवेंसन।  वे एक बार बस में सफर कर रहे थे और कोई पुस्तक पढ़ने में तल्लीन थे। जब उनका स्टाप आया तो वे फट से उतर गए मगर अपनी पुस्तक वहीं छोड़ आए। उनके स्थान पर जो यात्री बैठा उसने एकदम नई पुस्तक देखी और उसे यह पता था कि जो व्यक्ति अभी बस से उतर कर गया है वह और कोई नहीं विख्यात लेखक स्टीवेंसन हैं। वह व्यक्ति बस से उतरा और टैक्सी कर श्री स्टीवेंसन के घर गया। जाकर बोला कि श्रीमान आप अपनी यह बहुमूल्य पुस्तक बस में भूल आए हैं उसे ही मैं देने आया हूं। स्टीवेंसन ने उसकी आवभगत की और उससे कहा श्रीमान यह पुस्तक मैं भूलवश नहीं बल्कि जानबूझ कर छोड़ आया हूं। 

और ऐसा मैं अक्सर करता रहता हूं। जिस भी किताब को जहां पूरा कर लेता हूं उसे वहीं छोड़ देता हूं। चाहे वह बस हो या ट्रेन अथवा कोई पार्क। पुस्तक लेकर आया वह व्यक्ति हैरान रह गया। उसने कहा कि श्रीमान यह पुस्तक बहुत कीमती है और इसे यूं ही छोड़ देना उचित नहीं। स्टीवेंसन बोले- महोदय, यूं भी आदमी के जीवन में बहुत सारे बोझ होते हैं और होना यह चाहिए कि जब काम हो जाए तो वह बोझ उतार फेके। दूसरा कोई इस पुस्तक को पढ़ लेगा मगर मेरे पास रहेगी तो यह बोझ ही रहेगी। आखिर कब तक मैं इस बोझ को ला दूं।

ऐसा ही एक उदाहरण राहुल सांकृत्यायन का है। कहते हैं कि वे अपनी पढ़ी गई पुस्तक यूं ही कहीं छोड़ देते थे। कई बार लोगों ने कहा कि राहुल जी आप इतनी बेशकीमती पुस्तकें यूं ही लावारिस छोड़ देते हैं। जबकि आप कोई बहुत धनवान नहीं हैं फिर पुस्तकें खरीदने में धन ही क्यों जाया करते हैं। राहुल जी का कहना था कि पुस्तकें मैं अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए खरीदता हूं। जब मेरा काम हो गया तो वह पुस्तक फिर मेरे पास एक अनावश्यक बोझ की तरह पड़ी रहेगी। मैं शायद ही उसको दोबारा पढ़ने की जहमत लूंगा। इससे बेहतर है कि मैं उसे यूं ही कहीं छोड़ दूं तो दूसरे जरूरतमंद के काम आएगी। 

राहुल जी कहा करते थे कि पुस्तकों को और ज्ञान को कभी गधे की तरह अपने ऊपर मत लादो। जब आपने उससे ज्ञानार्जन कर लिया तो आपके पास तो वह ज्ञान आ ही गया। अब उसे दूसरों के पास जाने दो। यही कारण था राहुल जी जो पुस्तकें जीवन जोखिम में डालकर तिब्बत से चोरी-छिपे लाए थे वे पुस्तकें उन्होंने पटना की लायब्रेरी को यूं ही दान में दे दी थीं। अगर पुस्तकें आप किसी को नहीं देते इसका मतलब आपने उसे पढ़कर उसका सार तत्त्व नहीं ग्रहण किया बल्कि आपको लगता रहेगा कि अभी उसे और पढ़ना है और फिर कभी आप उसे नहीं पढ़ेंगे।

दिल्ली, कोलकाता, लखनऊ, जयपुर और तमाम अन्य शहरों में बड़े-बड़े पुस्तक मेले आयोजित होते हैं पर क्या कभी आपने देखा कि वहां पर लोग पुस्तकें खरीदते हैं उन्हें पढ़ने के बाद वे किसी को देते हैं। पुस्तकें पढ़ने के बाद उसे अपने पास सुरक्षित रख लेना आपके निजी पुस्तक प्रेम को तो बताता है पर पुस्तकें पढ़ने के बाद किसी को देते जाना उस प्रेम को और बढ़ाने को प्रेरित करता है यह बड़ी बात है। पुस्तक प्रेम अच्छा है पर पुस्तकें पढ़ना उससे अच्छी बात तथा पढ़ने के बाद उस पुस्तक की जरूरत शायद आपको नहीं पड़ेगी तब उसे किसी अन्य जरूरतमंद को दे देना आपको अनावश्यक बोझ से मुक्त होने का अहसास दिलाता है। 

कितने बोझ मनुष्य अपने ऊपर लादता है और यह बोझ उसके लिए अनावश्यक होता पर उसी बोझ को यदि वह बाट दे तो उसे मानसिक शांति तो मिलेगी किसी अन्य को भी उस ज्ञान का लाभ होगा। पर ऐसा लोग सोचते नहीं हैं। वे सब कुछ अपने पास रखना चाहते हैं और उनकी यह चाहत ही उन्हें उनके अंदर के लालच को बढ़ाती है जिसे उपभोक्तावाद कहा जाता है। बेहतर यही है कि जिस भी चीज का उपयोग हो जाए उसे किसी अन्य जरूरतमंद को दे दिया जाना चाहिए। जो जरूरतमंद होगा वही उसकी कद्र जानेगा वर्ना आपके पास पड़ी-पड़ी तो वह सड़ जाएगी।

कोरोना काल के पहले की बात है। दिल्ली के प्रगति मैदान में लगे पुस्तक मेले में एक दिन गया तो एक परिचित सज्जन मिल गए और चाव से अपनी खरीदी पुस्तकें दिखाने लगे। एक किताब को देखकर बोले कि अरे यही किताब तो मैं पिछले साल भी ले गया था और अभी तक तो वह पुस्तक खोली भी नहीं और फिर देखो फिर खरीद लाया। मैंने कहा कि आपको पढ़ने का चाव नहीं पुस्तकें क्रय कर दिखाने का चाव है। अगर पुस्तकें पढ़ने  का चाव होता तो पुस्तकें पढ़ने के बाद आप उन्हें किसी और को दे देते। वे बेचारे अपना-सा मुंह लेकर रह गए। 

उसी दिन पंजाबी पुस्तकें बेचने वाले एक स्टाल पर मैं गया और गुरुमुखी लिपि में लिखी एक पुस्तक को मैं गौर से देखने लगा तथा उसको पढ़ने की कोशिश करने लगा। काफी देर तक ऐसा करता देख उस स्टाल के मालिक ने मुझसे पूछा कि आपको पंजाबी आती है? मैंने कहा कि बचपन में जब मैं कानपुर में पढ़ता था तब मेरे खालसा इंटर कालेज में पंजाबी सिखाई गई थी पर फिर उसको पढ़ने का सौभाग्य नहीं मिला। अब धीरे उसका अक्षर ज्ञान भी भूलने लगा हूं। वह व्यक्ति बहुत खुश हुआ और उसने मुझे एक पंजाबी अक्षर ज्ञान की किताब भेंट की और कहा सर जब आप इसे पढ़ लेंगे तो यकीनन अगले वर्ष हमारे यहां से पंजाबी साहित्य की पुस्तकें खरीदेंगे। मुझे उस व्यक्ति की यह आशावादिता अच्छी लगी। उसने एक पुस्तक भेंट कर मुझे भविष्य अपनी भाषा की किताबें खरीदने का एक ग्राहक तैयार कर लिया। मगर वह मुझे वह पुस्तक नहीं भेंट करता तो शायद मैं कुछ देर वहीं रुकने के बाद लौट आता। उसके बाद फिर कभी संभवत: पंजाबी सीखने या पढ़ने का प्रयास नहीं करता।

दूसरों को पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करने के लिए पुस्तकें बांटना सीखिए। ये पुस्तकें आप उन्हें बाटें जिन्हें उनकी जरूरत है। पुस्तकें स्वयं अपने घर में संग्रहीत कर और अपने यहां हर आने-जाने वाले को अपनी लायब्रेरी दिखाकर आप एक अच्छे शोमैन तो हो सकते हैं पर किसी को ज्ञान बांटने में आपका कोई योगदान नहीं होगा। मगर जब आप किसी जरूरतमंद को पुस्तक बाटेंगे तो आप वाकई विद्वान होंगे और सच्चे अर्थों में पुस्तक प्रेमी भी।

(शंभूनाथ शुक्ल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

शंभूनाथ शुक्ल
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शंभूनाथ शुक्ल