वेबसाइट न्यूजक्लिक पर हुई ताजा कार्रवाई कई मायनों में अभूतपूर्व है। अगर चर्चा को मीडिया तक सीमित रखें, तो कहा जा सकता है कि इसमें अभियोजन (prosecution) का एक अनदेखा रूप देखने को मिला है। इसमें अभूतपूर्व और अनदेखा क्या है, इसकी चर्चा हम इस लेख में आगे करेंगे।
लेकिन उससे पहले हमें यह तथ्य अवश्य याद कर लेना चाहिए कि मंगलवार (3 अक्टूबर) को न्यूजक्लिक के साथ जो हुआ, वह कानून के राज (rule of law) और न्याय की उचित प्रक्रिया (due process of justice) को ध्वस्त करने की लगातार चल रही सुनियोजित परियोजना का ही एक अगला अध्याय है। हाल के वर्षों में इस परियोजना के विभिन्न उदाहरण देश के विभिन्न हिस्सों में- विभिन्न रूपों में देखने को मिलते रहे हैं। ताजा घटना को इस पूरी परिघटना के हिस्से के तौर पर ही देखने की जरूरत है।
लेकिन पहले न्यूजक्लिक पर हुई कार्रवाई में अभूतपूर्व और अनदेखा क्या है, इस पर नजर डालते हैं।
न्यूजक्लिक पर मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप में एक मुकदमा पहले से चल रहा था। उस मामले में वेबसाइट के संस्थापक-संपादक प्रवीर पुरकायस्थ को कोर्ट से जमानत मिली हुई है। मंगलवार को हुई कार्रवाई एक नए मामले में है। यह मामला अगस्त में अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के आधार पर दर्ज किया गया था, जिसमें आरोप लगाया गया है कि न्यूजक्लिक उन मीडिया संस्थानों में शामिल है, जिन्हें श्रीलंकाई मूल के अमेरिकी उद्योगपति नेविल रॉय सिंघम की संस्था से चंदा मिला। उस रिपोर्ट में सिंघम पर आरोप लगाया गया था कि उनके कारोबारी एवं विचारधारात्मक ताल्लुकात चीन से हैं और वे चीन के प्रचारतंत्र का हिस्सा हैं।
दिल्ली पुलिस ने इस मामले में दर्ज केस में गैर-कानूनी गतिविधि निवारक अधिनियम (यूएपीए) की धाराएं भी लगा दी हैं। इस तरह इसका संबंध आतंकवाद से जोड़ दिया गया है। प्रवीर पुरकायस्थ और न्यूजक्लिक के ह्यूमन रिसोर्स विभाग के हेड अमित चक्रवर्ती को इन धाराओं के तहत गिरफ्तार कर लिया गया है। यह सर्वविदित है कि इन धाराओं के लगने के बाद जमानत मिलना अत्यंत कठिन हो जाता है।
बहरहाल, बात सिर्फ न्यूजक्लिक के प्रबंधन से जुड़े व्यक्तियों तक सीमित नहीं रही।
तो यह साफ है कि इस कार्रवाई में न्यूजक्लिक संस्था के प्रबंधन से जुड़े व्यक्तियों के साथ-साथ उसके कर्मचारियों, उसमें बाहर से योगदान करने वाले पत्रकारों, और महज उसकी वीडियो चर्चा में भागीदारी करने वाले व्यक्तियों को भी शामिल किया गया है। तो सवाल हैः
अब हम प्रबंधकों पर हुई कार्रवाई की तार्किकता पर भी कुछ विचार कर लेते हैं।
मान लें कि न्यूजक्लिक के पास सचमुच चीन का चंदा आया। लेकिन इससे यह आतंकवाद का मामला कैसे बन जाता है? अगर यह चंदा लेने में किसी भारतीय कानून का उल्लंघन हुआ, तो संबंधित कानून की धाराओं के तहत न्यूजक्लिक पर जरूर कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन जब भारतीय मीडिया संस्थानों में विदेशी निवेश गैर-कानूनी नहीं है, तो चीनी चंदा किस अधिनियम के तहत अपराध है, यह पुलिस को स्पष्ट करना चाहिए। जितनी जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है, उसके मुताबिकः
बहरहाल, उपरोक्त बातें हमने लगे इस आरोप को सच मान कर यहां रखी हैं कि न्यूजक्लिक के पास चीनी पैसा आया। कानूनी स्थिति यह है कि इस आरोप को अभी अभियोजन पक्ष को अदालती प्रक्रिया में साबित करना होगा। भारतीय अदालतें अनेक बार यह व्यवस्था दे चुकी हैं कि मीडिया की खबरें न्यायिक साक्ष्य नहीं होती हैं। ऐसे में न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी रिपोर्ट को कैसे अकाट्य साक्ष्य मान लिया जा सकता है?
न्यूयॉर्क टाइम्स ने वह रिपोर्ट असल में इस समय अमेरिका और चीन के बीच चल रहे टकराव के सिलसिले में जारी प्रचार मुहिम का हिस्सा थी। उसमें अमेरिका से संचालित कई मीडिया संस्थाओं पर भी चीनी प्रचार तंत्र का हिस्सा होने का आरोप लगाया गया था। लेकिन उसके बारे में अमेरिका सरकार की क्या राय है, इस पर गौर करना उचित होगा।
न्यूजक्लिक पर ताजा कार्रवाई के बाद अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रमुख उप प्रवक्ता वेदांत पटेल ने मीडियाकर्मियों से कहाः ‘इन संस्थाओं के पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के साथ संबंध के बारे में हुई रिपोर्टिंग हमने देखी है और उससे संबंधित चिंताओं से हम परिचित हैं, लेकिन हम उन दावों की सच्चाई के बारे में कुछ कह नहीं सकते।’
तो खुद अमेरिका सरकार न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट में किए गए दावों पर भरोसा कर नहीं चल रही है। वैसे भी अमेरिकी सत्तातंत्र के प्रोपेगैंडा मीडिया के रूप में न्यूयॉर्क टाइम्स की पहचान पुरानी है। जब उसने बीते अगस्त में न्यूजक्लिक से संबंधित रिपोर्ट छापी थी, तब इस स्तंभकार ने न्यूयॉर्क टाइम्स के संदिग्ध रिकॉर्ड की कहानी यहां बताई थी।
इसके बावजूद अगर भारत सरकार को शक है कि न्यूजक्लिक ने कोई गैर-कानूनी काम किया है, तो उसे कार्रवाई करने का पूरा अधिकार है। परंतु पुलिस कानून के राज और न्याय की उचित प्रक्रिया के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हुए कोई कार्रवाई नहीं कर सकती। ऐसा सिर्फ एक निरंकुश व्यवस्था में हो सकता है, जहां संविधान का कोई मतलब नहीं रह गया हो।
बहरहाल, ये बातें अगर बुल्डोजर जस्टिस का शिकार बना कोई व्यक्ति पढ़े, तो बरबस उसकी यही प्रतिक्रिया होगी कि जब अपने समुदाय पर बात आई है, तो इन पंक्तियों का लेखक पत्रकार व्यथित और बेचैन हो गया है। वरना, जहां तक कानून के राज और न्याय की उचित प्रक्रिया के उल्लंघन का सवाल है, तो यह अब देश के विभिन्न हिस्सों में व्यवस्थागत (systematic) रूप ले चुका है। और उस व्यक्ति की बात से असहमत होना किसी विवेकशील और संवेदनशील व्यक्ति के लिए संभव नहीं होगा।
कानून के राज को कैसे धता बताया गया है, उसके अनेक रूप और अनगिनत मिसालें मौजूद हैं। मसलन,
यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि इन अर्थों में कभी भी भारत में rule of law अमल में नहीं था। कानून पर अमल के क्रम में गरीब हमेशा ही भेदभाव के शिकार रहे। बहरहाल, इस बात को स्वीकार करते हुए भी यह अवश्य कहा जाएगा कि स्वतंत्रता के बाद और वर्तमान माहौल बनने से पहले की अवधि में कभी rule of law का उल्लंघन सरकारों की घोषित नीति का हिस्सा नहीं रहा। जब कभी ऐसे उल्लंघन होते थे, तो उन्हें विसंगति माना जाता था और दोषी लोगों की पहचान कर उन्हें दंडित करने की कम-से-कम घोषणा जरूर की जाती थी। जबकि अब एनकाउंटर जैसे कार्यों के लिए अधिकारियों को पुरस्कृत किया जाता है।
तब अदालतें न्याय की उचित प्रक्रिया पर अमल कराने के लिए सक्रियता दिखाती थीं- अब अक्सर वे आंख मूंद लेती हैं या कई मामलों पर वे इसमें सहयोगी बनी नजर आती हैं। अगर ऐसा नहीं होता, तो उपासना स्थल अधिनियम के अस्तित्व में रहते हुए भी वे किसी पूजास्थल के सर्वे का आदेश क्यों देतीं, जिसका परिणाम इस कानून के उल्लंघन के रूप में सामने आने की काफी संभावना है।
तो अब मुद्दा है कि बिना अदालत से आदेश प्राप्त किए किसी के घर पर बुल्डोजर चला देने और ठीक उसी तरह बिना अदालती आदेश के न्यूजक्लिक के दफ्तर को सील कर देने में क्या कोई अंतर है? अंतर सिर्फ संभवतः यह है कि न्यूजक्लिक के मामले में पुलिस ने अधिक “रहम” या सतर्कता दिखाई है। वरना, उस पर बुल्डोजर भी चलाया जा सकता था।
कहने का तात्पर्य यह है कि अगर किसी देश या समाज में कानून का राज नहीं होगा और वहां न्याय की उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना अपराधी और दंड तय किए जाने लगेंगे, तो फिर वहां कोई सुरक्षित नहीं रहेगा। मीडिया घराने और उनसे जुड़े कर्मी विशेषाधिकार प्राप्त तबका रहे हैं। मगर पिछले कई वर्षों से यह विशेषाधिकार सरकार के प्रति उनके नजरिए या रुझान से तय हो रहे हैं।
इसी अवधि में व्यापक समाज में rule of law के खुलेआम उल्लंघन की घटनाएं बढ़ती चली गई हैं। बुल्डोजर जस्टिस इस परिघटना के प्रतीक के रूप में प्रचलित हुआ है। मंगलवार को यही अहसास हुआ कि इंसाफ का यह तरीका अब मीडिया के उस हिस्से तक पहुंच गया है, जो वर्तमान सरकार से सहमत नहीं है।
मगर अब बात उस हद तक पहुंच चुकी है, जहां इसे सिर्फ मीडिया स्वतंत्रता के मुद्दे के रूप में देखना सीमित और एक हद तक निरर्थक नजरिया होगा। मुद्दा कानून के राज और न्याय की उचित प्रक्रिया के सिद्धांतों की पुनर्स्थापना का है। संदेश यह है कि समस्या को इस बड़े फ़लक पर रखकर नहीं देखा गया, तो मीडिया की स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों या संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा की बातों का कोई मतलब नहीं होगा। ये लड़ाई अब बड़ी हो चुकी है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)