पहाड़ी समाज का वर्ग विभाजन और आपदाओं का दुःख

हिमालयी क्षेत्र के लोग हर घड़ी मौत के साए में जीवन जिए जा रहे हैं। जो कोई नहीं देखना चाहता वो न देखे, लेकिन जो पहाड़ को करीब से जानता और समझता है, उसे पता है कि उच्च हिमालयी क्षेत्र किस दर्जे तक संवेदनशील हैं। उनकी प्राकृतिक संरचना में हद से ज्यादा हस्तक्षेप समूचे हिमालयी इकोसिस्टम को असंतुलित कर रहा है।

बीते वक्त चमोली जिले के तपोवन रेनी में जो हादसा हुआ, उसकी तस्वीरें दिल दहलाने वाली हैं, दुखी करने वाली हैं। हमें पता है यह हादसा भी बीते समय की बात हो चुकी है और वाजिब कारणों पर बहस नहीं होगी। मुझे दुःख के साथ गुस्सा है, बहुत ज्यादा गुस्सा भी है।


दरअसल पिछले कुछ वक्त में हुआ क्या है कि पर्वतीय संसाधनों के अंधाधुंध दोहन ने यहाँ के समाज में वर्ग पैदा कर दिए हैं। एक जो उद्योगपति हैं जिनका पैसा लगा है पहाड़ में और रहते हैं दिल्ली गुड़गाँव जैसे शहरों में। इस वर्ग को लाभ कमाने से मतलब है, चाहे उसका रास्ता कुछ भी हो। यह सरकारों के निर्णयों में व्यापक दखल रखता है और नीतियों के अपने लाभ के अनुसार ढालने की सामर्थ्य रखता है।


दूसरा स्थानीय लेकिन तुलनात्मक रूप से धनाढ्य वर्ग जो शहरों में केंद्रित है (नौकरीपेशा या स्थापित व्यवसाय वाला)। यह वर्ग स्वयं संतुष्ट वर्ग है जो खुद में जीता है और राजनैतिक पार्टियों का खिलौना है। इस वर्ग में ज्यादातर वही लोग हैं जो झूठी शान का लबादा ओढ़े इस देश की मूर्खतापूर्ण राजनीति में कठपुतली बने हुए हैं।


तीसरा वर्ग जो सबसे महत्वपूर्ण हैं किंतु सबसे बुरी स्थिति में है, वह है स्थानीय ग्रामीण। जो लाख दिक्कतों और समस्याओं के बावजूद अपने जल, जंगल, जमीन को छोड़ना नहीं चाहता। अब देखने वाली बात यह है कि सरकारी योजनाएँ हों या निजी क्षेत्र के उपक्रम, सब कुछ इन दो ऊपरी वर्ग के हितों पर केंद्रित है। लेकिन इन संसाधनों के दोहन का दुष्परिणाम जो सबसे ज्यादा भोगता है, वह यही तीसरा वर्ग यानि कि स्थानीय ग्रामीण है। लाभ की तुलना में इनकी हानि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक आपदा में इनके गाँव के गाँव काल के गाल में समा जाते हैं। छिटपुट आपदाओं की तो बात ही छोड़िए, वह तो स्थानीय अखबारों की छोटे से कॉलम में निपट जाती हैं बिना किसी चर्चा के।


क्या सरकार नहीं जानती कि इन क्षेत्रों में अत्यधिक जल राशियों का ठहराव एक बहुत भयानक त्रासदी को निमंत्रण देना है। जल विद्युत परियोजनाओं के रूप में पहाड़ की नदियों से जो खिलवाड़ किया गया है, उसका लाभ स्थानीय ग्रामीणों को कब हुआ है? और शर्म से डूब मरने वाली बात है उन सभी युवाओं के लिए, उस पूरे के पूरे समाज के लिए जिसने विरोध करते ग्रामीणों की आवाज में आवाज मिलाने की जरूरत महसूस नहीं की। चाहे टिहरी हो या पंचेश्वर, ये सभी के सभी एक प्रकार के “वाटर बम” हैं जो हमेशा एक अनजाने खौफ के साथ चल रहे हैं।

पंचेश्वर बाँध के लिए विरोध करते ग्रामीणों को उत्तराखंड के चाहे सामाजिक संगठन हों या राजनैतिक संगठन, सब ने अकेला छोड़ दिया। उनका डर बेवजह नहीं है, इतनी बड़ी जल राशियों का जमाव स्थानीय पर्यावरण के लिए एकदम अनुकूल नहीं है, वह असंतुलन पैदा करता है और छोटा सा असंतुलन क्या तबाही पैदा कर सकता है, इसका सबक अगर केदार आपदा से नहीं सीखा तो कम से कम अब तो सीख लो। सरकारों को लगाम डालो। पूरे देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए स्थानीय पहाड़ी जनता की लाशों पर नहीं बिछाया जा सकता।

और हे जागरूक युवाओं (सभी राजनैतिक पार्टियों के), अब पंचेश्वर को बचा लो। पंचेश्वर जैसी भयानक परियोजनाएँ आप सोच भी नहीं सकते क्या तबाही मचाएँगी।

तबाही के लिए केदार, बद्री की शरण में जाने वालों, क्या तुम्हे नहीं पता कि यह तुम्हारी ही उदासीनता की उपज है जो तुमने सरकारों के तलवे चाटते हुए पहाड़ को लुटने दिया। पहाड़ी नदियाँ यहाँ के इकोसिस्टम की रीढ़ हैं, अगर उनमें असंतुलन पैदा किया जाएगा, तो पूरा का पूरा पारिस्थितिक तंत्र असंतुलित होगा।

डूब मरना चाहिए किसे और डूब कर मर रहा है कौन?

(सत्यपाल सिंह: स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

सत्यपाल सिंह
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