कोरोना की आपदा बनी अवसर : मजदूरों के अधिकारों पर सरकारों की नजर (भाग- दो)

लेख- डॉ. राजू पाण्डेय

यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि सरकारें महामारी जैसी आपात स्थितियों का लाभ उठाकर अपने कॉर्पोरेट समर्थक एजेंडे को बड़ी तेजी से आगे बढ़ाती हैं क्योंकि इस काल में जनता भयभीत होती है, प्राण रक्षा उसकी पहली प्राथमिकता होती है और सरकार के पास ऐसी कानूनी शक्तियां होती हैं जिनके द्वारा वह किसी भी जन उभार का आसानी से दमन कर सकती है।

सरकार ने इस वर्ष के बजट में अपने इरादे साफ कर दिए। बीमा कंपनियों में एफ़डीआई को 49% से बढ़ाकर 74% करने का प्रावधान किया गया। वर्ष 2021-22 में जीवन बीमा निगम का आईपीओ लाने और इसके लिए इसी सत्र में आवश्यक संशोधन करने की बात भी कही गई। बजट में राज्य सरकारों के उपक्रमों के विनिवेश की अनुमति देने की बात भी है ताकि पीएसयू में विनिवेश का रास्ता खुल जाए।
 

सरकार बीपीसीएल (भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड), एयर इंडिया, आईडीबीआई, एससीआई (शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया), सीसीआई (कॉटन कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया), बीईएमएल और पवन हंस आदि के निजीकरण की ओर अग्रसर है। कमजोर पड़ गए ट्रेड यूनियन आंदोलन ने इस कोरोना काल की पाबंदियों के बीच सरकार के इन श्रमिक विरोधी कदमों का महज प्रतीकात्मक विरोध किया है और कोई आश्चर्य नहीं कि सरकार अपने इरादों में कामयाब हो जाए।

जब तक करोड़ों मजदूर और किसान अपने अधिकारों हेतु संगठित होकर संघर्ष करते रहेंगे तब तक सरकार की चुनिंदा कॉर्पोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने की इच्छा पूर्ण नहीं हो सकती। इसलिए कोरोनो काल की अफरातफरी का फायदा उठाकर सरकार नई श्रम संहिताएं लेकर आई। इन नए श्रम सुधारों का मूल उद्देश्य श्रमिक संगठनों को कमजोर करना है। नई श्रम संहिताओं में श्रमिकों के लिए कुछ भी नहीं है बल्कि इनका ज्यादातर हिस्सा श्रमिक विरोधी है और इनका उद्देश्य श्रमिकों के मूलभूत अधिकारों को महत्वहीन एवं गौण बनाना है। इन कानूनों के कारण जब ट्रेड यूनियनें कमजोर पड़ जाएगी, हड़ताल करना असंभव हो जाएगा, श्रमिकों पर हमेशा काम से हटाए जाने की तलवार लटकती रहेगी, तब उनसे मनमानी शर्तों पर काम लेना संभव हो सकेगा। सरकार की अर्थनीतियाँ शुरू से ही बेरोजगारी को बढ़ावा देने वाली रही हैं और अब जब अर्थव्यवस्था की स्थिति घोर चिंताजनक है और बेरोजगारी चरम पर है तब इन श्रम सुधारों को नए रोजगार पैदा करने में सहायक बताकर लागू किया जा रहा है। सभी श्रम कानूनों के निर्माण और उनमें समय-समय पर होने वाले सुधारों के पीछे मजदूरों के लोमहर्षक संघर्ष और लंबे श्रमिक आंदोलनों का इतिहास रहा है। श्रमिकों द्वारा अनथक संघर्ष कर अर्जित अधिकारों को खारिज कर ईज ऑफ डूइंग बिज़नेस इंडेक्स में भारत की रैंकिंग में सुधार एवं फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट को बढ़ावा देने के नाम पर इन श्रम सुधारों को जबरन करोड़ों मजदूरों पर थोपा जा रहा है। श्रम कानूनों के निर्माण से पहले त्रिपक्षीय चर्चा और विमर्श की परिपाटी रही है। किंतु इन श्रम संहिताओं का ड्राफ्ट बनाते वक्त ट्रेड यूनियनों से किसी तरह की रायशुमारी नहीं की गई। श्रम संबंधी मामले समवर्ती सूची में आते हैं किंतु इन लेबर कोड्स का मसविदा तैयार करते समय राज्यों से भी परामर्श नहीं लिया गया। केंद्र सरकार का चर्चा और विमर्श पर कितना विश्वास है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले पांच वर्षों से इंडियन लेबर कांफ्रेंस आयोजित नहीं हुई है।

नए श्रम कानूनों के विषय में यह प्रचारित किया जा रहा है कि इनमें पहली बार असंगठित मजदूरों की समस्याओं को हल करने का प्रयास किया गया है। दरअसल स्थिति इससे विपरीत है। सरकार के नए लेबर कोड्स में असंगठित मजदूरों के लिए कोई भी आशाजनक प्रावधान नहीं है।

कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी 2020 में सामाजिक सुरक्षा को संविधान सम्मत अधिकार नहीं माना गया है। सामाजिक सुरक्षा विषयक कोड के प्रावधान कब से लागू होंगे इसका कोई उल्लेख नहीं किया गया है। श्रम संगठनों की मांग रही है कि सामाजिक सुरक्षा प्रत्येक श्रमिक को बिना भेदभाव के उपलब्ध होनी चाहिए। किंतु सामाजिक सुरक्षा को यूनिवर्सलाइज करने के स्थान पर इस कोड में सामाजिक सुरक्षा के पात्र श्रमिकों की श्रेणियों का निर्धारण मनमाने ढंग से किया गया है। श्रमिक संगठनों की आपत्तियाँ अनेक हैं। सेक्शन 2(6) में पहले की भांति ही भवन तथा अन्य निर्माण कार्यों के लिए 10 या इससे अधिक श्रमिकों की संख्या को सामाजिक सुरक्षा का लाभ पाने हेतु आवश्यक बनाए रखा गया है। जबकि श्रमिक संगठन इस सीमा को समाप्त करने की मांग कर रहे थे। अभी भी निजी आवासीय निर्माण के क्षेत्र में कार्य करने वाले श्रमिक सामाजिक सुरक्षा के पात्र नहीं होंगे जबकि इनकी संख्या लाखों में है। स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिश थी कि वेज वर्कर को परिभाषित करने के लिए वेज लिमिट को आधार न बनाया जाए किंतु सेक्शन 2(82) में इस प्रावधान को बरकरार रखा गया है। आशंका है कि मनमाने ढंग से मजदूरी तय करके मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा के लाभों से वंचित किया जा सकता है। प्रोविडेंट फंड की पात्रता उन्हीं संस्थानों को होगी जिनमें 20 या इससे अधिक मजदूर कार्य करते हैं। इस प्रकार लघु और सूक्ष्म उद्यमों में कार्य करने वाले लाखों श्रमिक इस लाभ से वंचित रह जाएंगे। श्रमिक संगठनों को यह भी आशंका है कि इस प्रावधान का उपयोग करते हुए नियोक्ता वर्तमान में कार्यरत मजदूरों को भी प्रोविडेंट फण्ड की सुरक्षा से वंचित कर सकते हैं। श्रम कानूनों के जानकारों की एक मुख्य आपत्ति यह है कि सामाजिक सुरक्षा विषयक कोड में इस बात को परिभाषित करने की कोई स्पष्ट कोशिश नहीं की गई है कि किस आधार पर किसी श्रमिक को संगठित या असंगठित क्षेत्र का माना जा सकता है? गिग/प्लेटफार्म वर्कर्स को असंगठित मजदूरों की श्रेणी में नहीं रखा गया है जबकि इनकी संख्या लाखों में है। इसी प्रकार उद्यम की परिभाषा को इस प्रकार संशोधित कर व्यापक बनाया जाना था जिससे छोटे से छोटे उद्यम का भी पंजीकरण हो सके और कोई भी मजदूर सामाजिक सुरक्षा के दायरे से बाहर न रह जाए। इस विषय में स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिशों को भी अनदेखा किया गया। सरकार यह स्पष्ट करने में नाकाम रही है कि सामाजिक सुरक्षा अंशदान उन श्रमिकों के लिए किस प्रकार होगा जिनके संदर्भ में नियोक्ता-कामगार संबंध का निर्धारण नहीं हो सकता- यथा होम बेस्ड वर्क, पीस रेट वर्क या स्वरोजगार।

यद्यपि इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स का दायरा सरकार द्वारा बढ़ाया गया है और अब इनमें ठेकेदारों के माध्यम से ले जाए जाने वाले श्रमिकों के अतिरिक्त उन श्रमिकों को भी सम्मिलित किया गया है जो स्वतंत्र रूप से रोजगार के लिए दूसरे प्रदेशों में जाते हैं। इनके लिए एक पोर्टल बनाने का प्रावधान भी किया गया है जिसमें इनका पंजीकरण होगा किंतु रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया किस प्रकार संपन्न होगी एवं इनके गृह प्रदेश, जिस प्रदेश में ये रोजगार हेतु जाते हैं तथा केंद्र सरकार के क्या उत्तरदायित्व होंगे, इसका कोई जिक्र सरकार ने नहीं किया है। प्रवासी मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान अपर्याप्त हैं किंतु जो थोड़े बहुत प्रावधान किए गए हैं उनका लाभ भी केवल ऐसे उद्यमों में कार्यरत इंटरस्टेट माइग्रेंट वर्कर्स को मिल सकता है जहाँ इनकी संख्या 10 या इससे अधिक है। इस प्रकार की संख्या विषयक सीमा के कारण लाखों मजदूर सोशल सिक्योरिटी नेट की सुरक्षा से वंचित कर दिए गए हैं। रजिस्ट्रेशन, पीडीएस पोर्टेबिलिटी जैसे प्रवासी मजदूर हितैषी प्रावधान 10 या इससे अधिक मजदूरों वाले उद्यमों में कार्यरत प्रवासी मजदूरों को ही दिए जाने की शर्त के कारण व्यवहारतः एकदम अनुपयोगी बन गए हैं। जबकि 1979 के इंटरस्टेट माइग्रेंट वर्कमेन एक्ट के अनुसार यह संख्या 5 प्रवासी मजदूर या इससे ज्यादा है। स्वयं भारत सरकार के 2013-14 के छठवें इकोनॉमिक सेन्सस के आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में कुल कार्यरत लोगों की केवल 30 प्रतिशत संख्या ऐसे उद्यमों में कार्यरत है जिनमें 6 या इससे अधिक लोग काम करते हैं, फिर भी संख्या विषयक बंधन को क्यों बरकरार रखा गया है यह समझना कठिन है। सरकार ने एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास करते रहने वाले मजदूरों हेतु सामाजिक सुरक्षा की पोर्टेबिलिटी के संबंध में भी कोई प्रावधान नहीं किया है जो दुर्भाग्यपूर्ण है। सरकार एक ही राज्य के भीतर एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रवास करने वाले श्रमिकों के संबंध में मौन है जबकि इनकी समस्याएं भी बिल्कुल वैसी हैं जैसी इंटर स्टेट माइग्रेशन करने वाले मजदूरों की। 2011 की जनगणना के अनुसार 39.6 करोड़ लोग अपने राज्य के भीतर ही एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते हैं। इस प्रकार इंट्रा स्टेट माइग्रेशन करने वाले 21 प्रतिशत पुरुष और 2 प्रतिशत महिलाएं श्रमिक होते हैं। वर्किंग ग्रुप ऑफ माइग्रेशन की जनवरी 2017 की रिपोर्ट बताती है कि इंट्रा स्टेट माइग्रेशन के बारे में जनगणना के आंकड़ों में दर्शाई गई श्रमिकों की संख्या वास्तविक संख्या से बहुत कम है।

प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों के लिए कार्य करने वाले एक्टिविस्ट्स को यह आशा थी कि सरकार इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स को एक अलग श्रेणी में रखते हुए इनके लिए एक कल्याण कोष का निर्माण करेगी जिसमें इनके मूल राज्य, प्रवास वाले राज्य और इनके नियोक्ता अंशदान देकर पर्याप्त राशि का प्रबंध करेंगे। किंतु सरकार की तरफ से ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है।

असंगठित मजदूरों के लिए काम करने वाले वर्किंग पीपुल्स चार्टर जैसे संगठनों की यह भी मांग थी कि असंगठित मजदूरों और उनके परिवारों के स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा और पेंशन आदि के विषय में कोई व्यापक नीति बनाई जाती और असंगठित मजदूरों के रोजगार को बरकरार रखने के लिए सरकार कोई कार्यक्रम लेकर आती किंतु सरकार द्वारा किए गए प्रावधान नितांत अपर्याप्त और असंतोषजनक हैं। असंगठित मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा फण्ड बनाया तो गया है किंतु इसके लिए धन राशि विभिन्न सुरक्षा और स्वास्थ्य विषयक प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले नियोक्ताओं से वसूले गए नाम मात्र के जुर्माने के माध्यम से एकत्रित की जाएगी जो जाहिर है कि निहायत ही कम और नाकाफी होगी।

सरकार ने वंचित समुदायों के श्रमिकों की उपेक्षा की वर्षों पुरानी परिपाटी को जारी रखा है। कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी के सेक्शन 4(1) में कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज में अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग और महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने हेतु कोई प्रावधान नहीं किया गया है। यूनियनों के विरोध के बावजूद कर्मचारी राज्य जीवन बीमा निगम के बोर्ड की पहले की संरचना को बदल दिया गया है जिसमें कर्मचारी, नियोक्ता और राज्य तीनों के प्रतिनिधि हुआ करते थे। 

ऑक्यूपेशनल सेफ्टी हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन कोड 2020 के विषय में वर्किंग पीपुल्स चार्टर जैसे असंगठित मजदूरों के लिए कार्य करने वाले संगठनों की गंभीर आपत्तियां हैं। आर्थिक गतिविधियों का सर्वप्रमुख क्षेत्र कृषि- जो देश की वर्किंग पापुलेशन के 50 प्रतिशत को रोजगार प्रदान करता है- इसमें सम्मिलित नहीं है। असंगठित क्षेत्र की अनेक आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने वाले श्रमिक इस कोड से लाभान्वित नहीं होंगे। इनमें से कुछ आर्थिक गतिविधियां एवं क्षेत्र हैं- होटल एवं खाने के स्थान, मशीनों की मरम्मत, छोटी खदानें, ब्रिक किलन्स, पावर लूम, पटाखा उद्योग, निर्माण, कारपेट मैन्युफैक्चरिंग आदि। घरेलू कर्मचारी, होम बेस्ड वर्कर्स आदि भी इस एक्ट की परिधि में नहीं आते।  संगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले अनौपचारिक श्रमिक भी इस कोड की परिधि में नहीं आते हैं।  आईटी और आईटी की सहायता से चलने वाली सेवाओं, डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और ई कॉमर्स आदि में कार्य करने वाले अनौपचारिक श्रमिक इस कोड से लाभान्वित नहीं होंगे।

ऑक्यूपेशनल सेफ्टी हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन कोड 2020 में इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स के विषय में जो भी प्रावधान किए गए हैं उनके अनुपालन का उत्तरदायित्व ठेकेदार पर होगा। यह ठेकेदार बड़े उद्योगपतियों के अधीन कार्य करते हैं और इनकी सहायता से बड़े उद्योगपति असुरक्षित और अस्वास्थ्यप्रद दशाओं में कार्यरत मजदूरों की दुर्घटनाओं एवं बीमारियों के विषय में अपनी जिम्मेदारी से बड़ी आसानी से बच निकलते हैं। प्रायः ठेके पर काम करने वाले श्रमिक और स्थायी श्रमिक एक ही प्रकार के कार्य में संलग्न रहते हैं अतः इन्हें मिलने वाली सुविधाएं भी समान होनी चाहिए किंतु कोड में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। इस कोड में भी इंट्रा स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स हेतु कोई प्रावधान नहीं है। इस कोड में मजदूरों के स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के स्तर के निर्धारण के किन्हीं मानकों का उल्लेख ही नहीं है। इसमें मजदूरों के स्वास्थ्य और सुरक्षा का उत्तरदायित्व भी नियोक्ताओं पर नहीं डाला गया है। सुरक्षा उपायों और स्वास्थ्य सुविधाओं को लागू करने की जिम्मेदारी प्रत्यक्षतः नियोक्ताओं की नहीं होगी बल्कि इसके लिए सेवा प्रदाताओं का उपयोग किया जाएगा। कोड में यह उल्लेख है कि यदि किसी स्थान पर 250 या इससे अधिक श्रमिक कार्यरत हैं तब ही सेफ्टी कमेटी का गठन किया जाएगा। इससे यह जाहिर होता है कि यह कोड देश के 90 प्रतिशत कार्य बल का निर्माण करने वाले असंगठित मजदूरों की सुरक्षा के विषय में गंभीर नहीं है। कार्यस्थल पर होने वाली दुर्घटनाओं के बाद लगाई जाने वाली पेनल्टी बहुत कम है और मुआवजे की राशि अपर्याप्त।

पिछले कुछ वर्षों में अनेक नई प्रकृति के रोजगार अस्तित्व में आए हैं। नियोक्ता-कामगार संबंध भी अब पूर्ववत नहीं रहा। इन बदलावों के परिप्रेक्ष्य में सरकार को वर्कर की परिभाषा में बदलाव लाना चाहिए था किंतु इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड 2020 में सरकार ने वर्कर की संकुचित परिभाषा को बरकरार रखा है। इस प्रकार इन नए रोजगारों की असंख्य श्रेणियों से जुड़े लाखों कामगार इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड की परिधि से ही बाहर कर दिए गए हैं। इनमें गिग/प्लेटफार्म वर्कर्स, आईटी कामगार, स्टार्टअप्स तथा सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्यमों के कामगार, सेल्फ एम्प्लॉयड तथा होम बेस्ड वर्कर्स, असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र के कामगार, प्लांटेशन वर्कर्स, मनरेगा कामगार, ट्रेनी तथा अपरेंटिस वर्कर्स आदि सम्मिलित हैं। श्रम संगठनों का यह मानना है नियोक्ता, कर्मचारी और कामगार की परिभाषाएं भ्रमपूर्ण और अस्वीकार्य हैं। एम्प्लायर की परिभाषा में कांट्रेक्टर को सम्मिलित किया गया है किंतु इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड में इसे परिभाषित नहीं किया गया है। श्रम संगठनों के अनुसार यदि सोशल सिक्योरिटी कोड में प्रदत्त कांट्रेक्टर की परिभाषा को आधार बनाया जाए तो चिंता और बढ़ जाती है क्योंकि इसमें ऐसे परिवर्तन कर दिए गए हैं कि कानून की भाषा में जिसे शाम एंड बोगस कांट्रेक्टर कहा जाता है वह भी स्वीकार्य बन गया है। एम्प्लायर की परिभाषा इतनी अस्पष्ट है कि कामगार यह तय ही नहीं कर पाएगा कि उसका नियोक्ता कौन है वह जिसने प्रत्यक्षतः उसे काम पर रखा है या वह जिसका सारी प्रक्रिया पर सर्वोच्च नियंत्रण है। फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट को अब टेन्योर ऑफ एम्प्लॉयमेंट के समान माना जाएगा। अर्थात फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट पर कार्यरत कामगारों को बिना किसी उचित कारण के सेवा से हटाया जा सकेगा। इस एक्ट में हड़ताल और विरोध प्रदर्शनों को असंभव होने की सीमा तक कठिन बना दिया गया है।

श्रम संहिताओं के नियमों को लेकर राज्यों ने नियमों को अंतिम रूप नहीं दिया है, इस कारण केंद्र सरकार ने अभी वेज कोड लाने का फैसला टाल दिया है। कुछ विशेषज्ञ सरकार के इस निर्णय के पीछे कुछ राज्यों में हो रहे विधान सभा चुनावों को जिम्मेदार ठहराते हैं तो कुछ ट्रेड यूनियनों के दबाव को। जबकि कुछ जानकारों का मानना है कि सरकार कंपनियों को अपने एचआर स्ट्रक्चर में बदलाव हेतु समय देना चाहती है। पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार 1 अप्रैल 2021 से नए लेबर और वेज कोड को लागू किया जाना था।

जब तक यह श्रम संहिताएं लागू नहीं हुई हैं तब तक संगठित मजदूरों के बीच पैठ रखने वाली ट्रेड यूनियनें अपनी तमाम सीमाओं और मतभेदों के बाद भी एक हद तक धरना, प्रदर्शन और हड़ताल के अपने हक के लिए लड़ेंगी और इन श्रम संहिताओं के श्रमिक विरोधी प्रावधानों के विरुद्ध संघर्ष भी करेंगी। शायद वे सरकार को कुछ श्रमिक हितैषी परिवर्तन करने के लिए बाध्य भी कर लें। किंतु देश के कुल कार्यबल का 90 प्रतिशत तो असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है जहाँ ट्रेड यूनियनों का कोई विशेष आधार नहीं है। सरकार के यह लेबर कोड्स इन असंगठित मजदूरों के लिए और अधिक विनाशकारी सिद्ध होंगे।

(डॉ. राजू पाण्डेय, रायगढ़, छत्तीसगढ़ से हैं)

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