कोरोना, पीली मशीन और पीले पड़ते क़ब्र खोदने वाले शमीम

(38 साल के शमीम। उनके नाम का अर्थ है इत्र मगर उनके हिस्से में आया है उनका पुश्तैनी काम- क़ब्रें खोदना। पिता के साथ उन्होंने इस काम की शुरुआत की थी। एक निस्पृह से भाव और दु:खी लोगों की मदद जैसे अहसास के साथ वे यह काम कर रहे थे पर कोरोना ने सब कुछ बदल दिया है। रायटर्स में छपी अलसदैर पाल की मार्मिक रिपोर्ट को जनचौक के लिए हिन्दी में कुमार मुकेश ने तैयार किया है।)

मुहम्मद शमीम कब्रिस्तान में क़ब्र खोदने का काम करते हैं। इसके अलावा उनके पास और कोई काम-धंधा नहीं है। तीन पीढ़ियों से शमीम के परिवार का यही काम है। 

जब से कोरोना वायरस का संकट फैला है शमीम का काम बेहद खतरनाक हो गया है। अब दिल्ली स्थित जिस कब्रिस्तान में वे काम करते हैं तो किसी शव को छूने, उठाने और दफनाने का काम रिश्तेदार ही करते हैं। कई बार जब शव को उठाने और दफनाने के लिए शवगृह के कर्मचारी अथवा अन्य लोग उपलब्ध न हों तो शमीम उनकी मदद कर देते हैं।  

चार बच्चों के बाप 38 वर्षीय शमीम ने “रायटर्स” को बताया कि वे आजकल अक्सर तनाव में रहते हैं। हमेशा यह डर सताता रहता है कि पता नहीं कब कोई शव दफ़न होने के लिए कब्रिस्तान में आ जाए और कहीं उन्हें उसे छूना और दफनाना न पड़े। 

काफी विशेषज्ञों को यह चिंता है कि देश के अस्पतालों और शव गृहों पर पहले से ही काफी बोझ है और संक्रमण से मरने वाले लोगों की संख्या बढ़ने लगी तो स्थिति अत्यंत गंभीर हो सकती है। 

शमीम को वह भयानक दिन याद है जब उन्होंने एक विमान दुर्घटना में मारे गए कई लोगों को दिल्ली के जदीद कब्रिस्तान में दफनाया था।  

लेकिन कोरोना महामारी की वजह से आज जैसा डर फैला है, वैसा उन्होंने पिछले बीस सालों में जब से अपने पिता के साथ कब्र खोदने का काम शुरू किया था, आज तक कभी महसूस नहीं किया। 

शमीम कब्रिस्तान से सटी एक साफ़ मगर बंजर सी जगह पर बैठकर शवों की प्रतीक्षा करते हैं। इस कब्रिस्तान में पिछले एक महीने में कोरोना वायरस के संदिग्ध अथवा पुष्टि किए गए सत्तर से अधिक मृतकों को दफनाया गया है।

अधिकतर कब्रों पर स्लेट के टुकड़ों अथवा पेड़ों की टहनियों से कुछ निशानियाँ अंकित की गई हैं। कुछ कब्रों को सिर्फ मिट्टी से ही ऊपर तक ढक दिया गया है।

जब मौतों की संख्या बढ़ जाती है तो स्थानीय अस्पताल के डॉक्टर कब्रिस्तान के संचालकों से सम्पर्क करते हैं और संचालक डॉक्टरों को शमीम का टेलीफोन नम्बर दे देते हैं। 

शमीम ने अपने बच्चों को पड़ोस में ही रहने वाले उनके दादा-दादी के पास भेज दिया है। हालाँकि, शमीम और उसके परिवार वालों को थोड़ा-बहुत औपचारिक प्रशिक्षण दिया गया है कि कोरोना के दौर में उन्हें किस प्रकार की सावधानियां बरतनी चाहिए।   

दस्ताने पहने हाथों से अपने चेहरे पर हाथ फेरते हुए शमीम कहते हैं कि पहले हमें इस बात का बिल्कुल आभास नहीं था कि हम यह किस तरह का काम कर रहें हैं। 

शमीम और उनके साथियों को कब्र खोदने के लिए मेहनताना तो मिलता है पर यह पूछने पर कि कितना तो वे कहते हैं, “आपको सुनकर हंसी आयेगी। एक कब्र के लिए मुझे सौ रुपये मिलते हैं। अब दोगुनी गहराई की कब्रें खोदी जा रही हैं, जिसके लिए खुदाई वाली पीली मशीन का इस्तेमाल किया जाता है। इस मशीन के साथ अकेला ड्राइवर ही आने को तैयार होता है, कोई हेल्पर वगैरह नहीं आता।   

इस बुधवार को एक एम्बुलेंस में दो शव आये। उस एम्बुलेंस के पीछे स्कूटरों पर सवार कुछ पुरुष रिश्तेदार थे। रिश्तेदारों ने शवों को उठाकर कब्र में रखा। अपने साथ वे “प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट” भी लाये थे जिन्हें उन्होंने हिचकिचाते हुए पहना। जब वे दुआ पढ़ रहे थे तो उनमें से एक आदमी की सुरक्षा के लिए पहनी पोशाक बार-बार खुल रही थी। 

संक्रमण का शिकार, 33 साल का मुहम्मद फैजान मंगलवार को गुज़र गया। उसके भाई फ़राज़ ने रोते हुए बताया था कि अगर यह नामुराद कोरोना न होता तो फैजान को विदा करने सभी लोग आते। आखिरी क्षणों में, फैजान का एक अन्य भाई, अपने मृतक भाई का चेहरा आख़िरी बार देखने के लिए कब्र में कूद गया। उसने सुरक्षा के लिए कोई अतिरिक्त पोशाक भी नहीं पहनी थी।   

शमीम ने कुछ और लोगों की आवाज़ दी और साथ आये लोगों की सुरक्षा पोशाकों को कब्र में फेंकने के लिए कहा।

उसने पीली मशीन के ड्राइवर को कब्र को समतल करने का इशारा किया और मुड़कर चला गया। 

कुमार मुकेश
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कुमार मुकेश