बिहार में कारपोरेट बनाम जनता का नया दौर

पिछले 23 मार्च को बिहार विधान सभा के भीतर पुलिस की ओर से की गई विधायकों की पिटाई को विपक्ष लगातार उठा रहा है। विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने स्पीकर को पत्र लिख कर दोषी अधिकारियों को बर्खास्त करने की मांग की है। उन्होंने घटना की सीडी भी सौंपी है। तेजस्वी का आरोप है कि यह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इशारे पर हुआ है। मुख्यमंत्री के पास गृह मंत्रालय है यानि बिहार पुलिस का सीधे संचालन करते हैं। नीतीश का कहना है कि पुलिस बुलाने का फैसला स्पीकर का है और उन्हें यह फैसला लेने को मजबूर होना पड़ा। नीतीश न तो घटना के लिए खेद प्रकट करने को तैयार हैं और न ही विपक्ष की बात सुनने को। भले ही नीतीश पुलिस बुलाने की जिम्मेदारी स्पीकर पर डाल कर मुक्त होने की कोशिश कर रहे हैं, घटना के वायरल हुए वीडियो से साफ जाहिर होता है कि पुलिस अधिकारी विधायकों को वहां से हटाने भर के लिए नहीं आए थे। उनका इरादा विधायकों को सबक सिखाने का था। इस हमले में न केवल एक विधायक को आईसीयू में भर्ती होना पड़ा और एक महिला विधायक की शरीर से कपड़े हट गए बल्कि कई विधायकों को काफी चोट आई है। सादे और खाकी वर्दी में आए पुलिस अधिकारी विधायकों को पकड़-पकड़ कर पीट रहे थे और कुछ विधायकों को निशाना बना रहे थे।  
 

विधायकों की पिटाई के जरिए इस बार की नीतीश सरकार ने अपने भावी रवैए का परिचय दे दिया है। लेकिन उसके इरादे की लिखित घोषणा उस विधेयक में की गई है जिसके विरोध के कारण विपक्ष को इस हमले का शिकार होना पड़ा। यह विधेयक ऐसे सशस्त्र पुलिस बल की स्थापना के लिए लाया गया है जो किसी भी व्यक्ति को संदेह पर भी बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है और उसके घर की तलाशी ले सकती है। उसकी कार्रवाई को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है और न ही कार्रवाई के लिए जिम्मेदार अधिकारी को अदालत में जवाबदेह ठहराया जा सकता है। इस कानून के तहत सात साल से उम्र कैद तक की सजा हो सकती है।

नीतीश सरकार इस बार सत्ता संभालने के तुरंत बाद सोशल मीडिया आदि में सरकार के खिलाफ लिखने वालों पर कार्रवाई तथा प्रदर्शन में हिस्सा लेने वालों को सरकारी नौकरी से मरहूम करने का फैसला कर चुकी है। प्रस्तावित विशेष सक्षस्त्र पुलिस बल कानून भी उसी की कड़ी में है। राज्य सरकार के इन कदमों पर गौर करने से यह साफ हो जाता है कि वह एक सोची-समझी रणनीति के तहत आगे बढ़ रही है और विधायकों की पिटाई अचानक नहीं हुई है। जेडीयू के तीसरे नंबर की पार्टी होने के बाद भी मुख्यमंत्री बन गए नीतीश कुमार की रणनीति लगभग शून्य हो गई अपनी राजनीतिक शक्ति की भरपाई विरोधियों पर हमले तथा दमन के जरिए करने की है। वह विपक्ष की मौजूदगी स्वीकार नहीं करना चाहते हैं। उन्हें जानने वाले लोगों को अचरज हो रहा है कि यह उनके व्यक्तित्व का नया रूप है। वरिष्ठ समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी ने कहा भी कि बिहार विशेष सशस़्त्र पुलिस विधेयक के समर्थन में जिन परिस्थितियों का जिक्र किया गया है वे तथ्यों से परे हैं। उनका कहना है कि रणवीर सेना तथा नक्सलवादियों के बीच जनसंहार का दौर चला था और इसके पहले जयप्रकाश जी को उग्रवाद को शांत करने के लिए मुजफ्फरपुर के मुसहरी में डेरा जमाना पड़ा था। लेकिन उन दिनों भी किसी भी पक्ष ने पुलिस को इस तरह के निरंकुश अधिकार देने की बात नहीं की थी।

शिवानंद जी ने अचरज व्यक्त किया है कि गांधी, लोहिया और जयप्रकाश की धारा से निकले नीतीश ऐसा कैसे कर सकते हैं?
लोग विपक्ष की मौजूदगी स्वीकार नहीं करने के पीछे नीतीश कुमार की व्यक्तिगत निराशा देख रहे हैं। उन्हें समझना चाहिए कि लोकतंत्र का गला दबाने के पीछे सिर्फ किसी नेता की हताशा काम नहीं करती है। असल में, बिहार की राजनीतिक परिस्थितियां एकदम बदली हुई हैं। धनबल, चुनाव कानूनों के खुलेआम उल्लंघन और गोद में बैठे मीडिया के सहारे भी एनडीए असरदार बहुमत पाने में नाकामयाब रहा। उसके पास कोई ऐसी नैतिक शक्ति नहीं है जिसके सहारे वह राज कर सके। नीतीश कुमार तथा मोदी, दोनों के चेहरे मिल कर भी एनडीए को ऐसी स्थितियों में नहीं ला पाए कि वह छोटी पार्टियों की मदद के बिना सरकार बना सकें। सरकार मामूली बहुमत से ही बन पाई है। मोदी की मीडिया में बनी महान विजेता की छवि भाजपा को पहले नंबर की पार्टी नहीं बना पाई और नीतीश कुमार के सुशासन बाबू की छवि ने जेडीयू को तीसरे नंबर पर पहुंचा दिया।  

बिहार विधान सभा में इस बार विप़क्ष एक साफ राजनीतिक दिशा में चलने वाले समूह के रूप में उभरा है। वाम दलों, खास कर सीपीआईएमएल की उपस्थिति ने उसे वैचारिक गर्मी दे रखी है। वाम दल के विधायकों ने चुनाव लड़ने का बेहतर तरीका भी सामने लाया है जो पैसे तथा स्थानीय निहित स्वार्थों की मदद पर नहीं टिका है बल्कि उनका मुकाबला करता है। महागठबंधन के बाकी दलों ने भी धन की कमी तथा मीडिया के विरोध का सामना कर चुनाव जीता है। रोजगार, महंगाई तथा जनता के मुद्दों को ही उन्होंने अपने चुनाव प्रचार का आधार बनाया था।  

आरएसएस तथा भाजपा से किसी लोकतांत्रिक व्यवहार की उम्मीद नहीं रखते हैं। लेकिन नीतीश कुमार की समाजवादी पृष्ठभूमि की वजह से लोग इस सच को पचा नहीं पा रहे हैं कि वह लोकतंत्र का गला घोंटने पर अमादा हैं। लेकिन उन्हें यह अंदाजा होना चाहिए कि नीतीश कुमार एक ऐसे गठबंधन के नेता हैं जिसकी कमान लोकतंत्र विरोधी भाजपा तथा अरएसएस के हाथों में है। अगर सत्ता में रहना है तो उन्हें भाजपा के एजेंडे पर काम करना पड़ेगा। नीतीश अपनी इस राजनीतिक नियति को स्वीकार कर चुके हैं। अंतिम फैसले के लिए नरेंद्र मोदी तथा अमित शाह पर निर्भर हो चुके नीतीश इसके अलावा कुछ नहीं कर सकते हैं।

बिहार में संघ तथा भाजपा का एजेंडा क्या है? यह देश के संसाधनों को कारपोरेट के हाथों सौंपने के उनके बड़े एजेंडे का ही हिस्सा है। औद्योगिक रूप से पिछड़े बिहार के मानव संसाधन, यहां की जमीन तथा नदियों के इस्तेमाल की इस योजना में बेरोजगारी तथा आम बदहाली से निपटने के मुद्दों का कोई स्थान नहीं है। भाजपा को मालूम है कि बदहाल बिहार में उसे बड़े जनांदोलनों का सामना करना पड़ेगा। यह तय है कि देर-सबेर किसान भी इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेंगे मंडियों को बंद कर नीतीश सरकार ने किसानों को पहले ही बाजार के सहारे छोड़ दिया है। कारपोरेट के कदम राज्य में किस तरह पड़ रहे हैं इसका अंदाजा इससे होता है कि अडानी ने अपना एक विशाल गोदाम बिहार के कटिहार में बनाया है। यह स्थान देश के महत्वपूर्ण रेल तथा सड़क मार्गों से जुड़ा है।

विशेष सशस़्त्र पुलिस बल का गठन आंदोलनों को दबाने की राष्ट्रव्यापी नीति का हिस्सा है। नीतीश इस नीति को अमल में लाने वाले सिपहसालार हैं। लोग जब तक उन्हें एक समाजवादी चेतना वाले नेता के रूप में देखने की गलती करेंगे, उनसे लोकतांत्रिक व्यवहार की उम्मीद करते रहेंगे। बिहार कारपोरेट बनाम जनता के बीच संघर्ष के दरवाजे पर खड़ा है। विपक्ष को इसकी तैयारी करनी पड़ेगी।
(अनिल सिन्हा वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।) 

अनिल सिन्हा
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