अदालत बनता मीडिया और बौनी होती न्याय व्यवस्था

मीडिया किसी अपराध को सनसनीखेज बनाकर खुद ही जांचकर्ता, वकील और जज बन जाता है, जबकि पुलिस अभी दूर-दूर तक मामले की सच्चाई के आसपास भी नहीं पहुंचती। मीडिया ट्रायल का ताजा मामला सुशांत सिंह राजपूत का है और इसके पहले सुनंदा पुष्कर की संदिग्ध मौत का भी, जिस पर बाम्बे हाई कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट ने अलग-अलग आदेशों में मीडिया से संयम बरतने को कहा था। मीडिया ट्रायल से कानून के शासन के लिए प्रतिकूल माहौल बन गया है।

दरअसल मीडिया ट्रायल में सत्य कहीं अलोपित हो जाता है और मीडिया सलेक्टेड टारगेट को बिना किसी ठोस साक्ष्य के दोषी सिद्ध करने लगती है, जबकि हकीकत में मीडिया में बैठे अधिकांश लोगों को आईपीसी, सीआरपीसी और तत्संबंधी कानूनों की एबीसी का भी ज्ञान नहीं होता। मीडिया ट्रायल सलेक्टेड टारगेट की प्रतिष्ठा तारतार कर देता है और कई बार जांच एजेंसी और जज भी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो जाते हैं।

तेलंगाना हाईकोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस रघुवेन्द्र सिंह चौहान ने वर्ष 2011 में मीडिया ट्रायल पर कहा था कि प्री-ट्रायल पब्लिसिटी एक निष्पक्ष परीक्षण के लिए हानिकारक है। अभियुक्त की गिरफ़्तारी और ट्रायल के पहले ही मीडिया का शोरगुल शुरू हो जाता है और अभियुक्त को दोषी क़रार दे दिया जाता है। मीडिया अप्रासंगिक और जाली सुबूतों को सच्चाई के रूप में पेश कर सकता है, ताकि लोगों को अभियुक्त के अपराध के बारे में आश्वस्त किया जा सके।

उन्होंने एक लेख में कहा था कि रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ जर्नलिज्म की कैथिलीन मर्सर का कहना है कि सनसनीख़ेज़ रिपोर्टिंग से ट्रैफ़िक और मुनाफ़े जैसे थोड़े समय वाले फ़ायदे मिल सकते हैं, लेकिन अंततः इसके कारण भविष्य में भरोसे का नुकसान होता है और लोकतंत्र और स्वतंत्रता को, जो हमें बहुत प्यारा है, नष्ट कर देती है।

सुशांत सिंह राजपूत और सुनंदा पुष्कर मामले में मीडिया ट्रायल की पृष्ठभूमि में शनिवार को न्यूज़एक्स द्वारा आयोजित राम जेठमलानी मेमोरियल लेक्चर सीरीज़ के पहले संस्करण को संबोधित करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा कि आज मीडिया ने खुद को एक सार्वजनिक अदालत में तब्दील कर दिया है। उचित संदेह से परे अपराध निर्दोष मानने का नियम को किनारे कर दिया गया है।

सिब्बल ने कहा कि मीडिया द्वारा टीआरपी के प्राथमिकताकरण ने इसकी विश्वसनीयता को प्रभावित किया है। उन्होंने टिप्पणी की कि समस्या अब यह है कि मीडिया टीआरपी बढ़ाने के लिए तथ्यों की खोज को देखता है, वे स्रोत की विश्वसनीयता के बारे में कम परवाह करते हैं। वे घटना को सनसनीखेज बनाने की कोशिश करते हैं, यहां तक कि तथ्य विकृति रूप भी ले लेता है। इस सत्य का तथ्य यह है कि मीडिया एक नायक को खलनायक में बदल सकता है।

सिब्बल ने कहा कि नया मीडिया मान लेता है कि किसी ने कोई अपराध किया है और चाहता है कि पीड़ित अपनी बेगुनाही साबित करे। वाजिब संदेह के मानकों की जगह दोष के अनुमान ने ले ली है, जिसका कोई मानक नहीं है। उन्होंने कहा कि 2जी स्पेक्ट्रम मामले में सनसनी के कारण देश के टेलिकॉम सेक्टर में गिरावट आई है। न्यायाधीश भी इंसान हैं और अदालतों के बाहर जो कुछ भी होता है उससे उनके प्रभावित होने की संभावना है।

गौरतलब है कि इसी सप्ताह दिल्ली हाईकोर्ट ने रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्णब गोस्वामी को लताड़ लगाते हुए निर्देश दिया था कि सुनंदा पुष्कर मामले में कथित अपमानजनक प्रसारण पर रोक लगाने संबंधी शशि थरूर की याचिका पर सुनवाई पूरी होने तक वह संयम बरतें और बयानबाजी पर रोक लगाएं। इस मामले में कपिल सिब्बल थरूर के वकील थे।

वकील हरीश साल्वे ने कहा कि मीडिया की उन मामलों में भूमिका है, जहां राजनीतिक हस्तक्षेप या पुलिस की उदासीनता के कारण प्रणाली विफल हो जाती है, लेकिन समस्या तब शुरू होती है जब मीडिया शोर का शासन चलाने वाली समानांतर व्यवस्था बन जाती है, जहां शोर के नियम-कानून के शासन की जगह लेना शुरू कर देता है।

साल्वे ने कहा कि हाईप्रोफाइल मामलों में भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली तमाशा बन जाती है। अधिकतर मामलों में हमारी एजेंसियां जांच नहीं कर पाती हैं। मुझे नहीं लगता कि मीडिया किसी भी ऐसी बात को मानता है जिसे सबूत का कानून कहा जाता है। कानून द्वारा संचालित सुनवाई को शर्मिंदगी की सुनवाई द्वारा बदल दिया गया है। उन्होंने कहा कि जांच एजेंसियों की चयनात्मक ढंग से लीक सूचना को सुर्खियों में लाया जाता है और फिर शाम को मीडिया चैनलों पर चार-पांच विशेषज्ञ जूरी होते हैं जो अपने अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर दोष के निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं और अभियुक्तों को दोषी मान लेते हैं।

उन्होंने कहा कि भारत में प्रतिष्ठा कोई मायने नहीं रखती। आप पारदर्शिता के नाम पर लोगों के व्यक्तिगत जीवन में कूदते हैं, उन्हें तरह-तरह के नामों से बुलाते हैं। अगर भारत को एक गंभीर गणराज्य बनना है तो इस प्रणाली को रोकना होगा। साल्वे के अनुसार, अदालतों को तब आने की जरूरत है जब मीडिया चैनल अदालतों के सामने लंबित मामलों में जनता की राय के लिए अभियान चलाना शुरू कर दें।

वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि वह समय बहुत दूर नहीं जब मौखिक आतंकवाद, दृश्यात्मक अतिवाद और कंटेंट कट्टरवाद’ जैसे अपराधों का आविष्कार करने की आवश्यकता होगी। सिंघवी ने कहा कि दर्शकों की संख्या यानी व्यूअरशिप, रेटिंग गेम और राजस्व एक विषाक्त त्रिकोण बन गया है और सामान्य तौर पर समाज को इस पूरे खेल में छूट नहीं दी जा सकती है।

वरिष्ठ वकील सी आर्यमा सुंदरम ने कहा कि लोकतंत्र की तीन अन्य संस्थाओं की विफलता के कारण जनमत मीडिया को सुन रहा है। भारत में संस्थानिक विफलता की बात करते हुए सुंदरम ने कहा कि मीडिया जनता की एक अदालत बन गया है और उसने खुद को जनता की अदालत के रूप में चित्रित करना शुरू कर दिया है। मीडिया ऐसा कर रहा है, क्योंकि जनता ने कहीं और देखने का विश्वास खो दिया है। मीडिया की स्थिति का दोष आज अकेले मीडिया पर नहीं लगाया जा सकता है। भारत में एक संस्थागत विफलता है। सुंदरम ने कहा कि मीडिया कैसे खोजी प्रगति में शामिल है? क्यों? क्योंकि लोग पुलिस पर विश्वास खो चुके हैं। लोगों का मानना है कि पुलिस भ्रष्ट है।

सुंदरम ने कहा कि एक सार्वजनिक धारणा है कि भ्रष्टाचार न्यायिक प्रणाली में आ गया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि न्याय में अत्यधिक देरी होती है या कि जिन लोगों को पकड़ा जाता है, उन्हें दोषी ठहराए जाने में लगभग 20 साल लग जाते हैं। यही कारण है कि जमानत के अपवाद के बजाय, यह नियम बन गया है।

सुंदरम ने कहा कि हम इसे स्वीकार करते हैं या नहीं, मीडिया एक सार्वजनिक अदालत बन गया है। यह एक तथ्य है कि मीडिया ने खुद को जनता की अदालत के रूप में चित्रित करना शुरू कर दिया है। यह भी एक तथ्य है कि मीडिया ने खुद एक निर्णय लिया है- जनता की राय के लिए निर्माता होना चाहिए। मीडिया ऐसा कर रहा है, क्योंकि जनता ने कहीं और देखने का विश्वास खो दिया है।

आपराधिक मामलों और अदालतों में चल रहे मामलों की जांच को प्रभावित करने के लिए मीडिया की आलोचना करते हुए कई वकीलों ने कहा कि मुख्यधारा की मीडिया और सोशल मीडिया का संयोजन एक खतरनाक कॉकटेल बन गया है, जिससे कानून के शासन के लिए प्रतिकूल माहौल बन गया है।

विचार विमर्श के अंतिम दौर में वरिष्ठ अधिवक्ता फली नरीमन ने कहा कि क्या यह समय है कि भारत आपराधिक व्यवस्था के लिए जूरी प्रणाली को फिर से पेश करने पर विचार करे। उन्होंने कहा कि शायद हम जूरी सिस्टम को खत्म करने में भी बहुत उतावले थे, क्योंकि यह वह जूरी है जो एक आपराधिक मुकदमे में लोगों का प्रतिनिधित्व करती है।

हमें इस बारे में गंभीरता से सोचना होगा कि क्या हमारे पास एक पैनल होना चाहिए, जो अपना फैसला देगा, क्योंकि आप जनता को एक राय बनाने से रोक नहीं सकते हैं। मुझे नहीं लगता कि हम मीडिया को अपनी राय व्यक्त करने से रोकने की स्थिति में हैं। इसलिए हमारे पास किसी प्रकार का बौद्धिक पैनल होना चाहिए जो एक विचारशील और सोची-समझी राय बनाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। वह इलाहाबाद में रहते हैं।)

जेपी सिंह
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