सीपीआई (एम) के इंडिया गठबंधन की समन्वय समिति से बाहर बने रहने के पीछे की वजह और वाम मोर्चे के सामने प्रश्न

विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया समूह की कोआर्डिनेशन कमेटी की पहली बैठक हाल ही में नई दिल्ली में 13 सितंबर के दिन एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार के आवास पर हुई थी। इस बैठक में सीपीआई(एम) की ओर से कोई प्रतिनिधि उपस्थित नहीं हुआ था। उस दौरान सभी का ध्यान तृणमूल कांग्रेस पार्टी के प्रतिनिधि अभिषेक बनर्जी पर केंद्रित था, जिन्हें बैठक में उपस्थित रहना था। लेकिन उसी दिन ईडी द्वारा समन किये जाने की वजह से उन्हें केंद्रीय जांच एजेंसी के समक्ष उपस्थित होना पड़ा, और उन्होंने अपनी असमर्थता व्यक्त की थी। 

लेकिन इसके 3 दिन बाद जब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की पोलित ब्यूरो की बैठक 16-17 सितंबर को नई दिल्ली में हुई, तो उसकी प्रेस विज्ञप्ति से खुलासा हुआ कि इंडिया गठबंधन को दिल्ली, पंजाब और उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल और केरल में भी विभिन्न पार्टियों के बीच में समायोजन और सीट-शेयरिंग के मुद्दे पर कई बाधाओं को पार करना बाकी है। 

हालांकि सीपीएम द्वारा पोलित ब्यूरो की बैठक के बाद जारी वक्तव्य की भाषा साफ़-साफ़ इस बात को दोहराती है कि पार्टी INDIA ब्लॉक के माध्यम से भारतीय गणराज्य के धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक स्वरूप, संविधान एवं नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा हेतु किये जाने वाले सभी प्रयासों को और अधिक मजबूती और विस्तार देने के प्रति कृत-संकल्प है। 

उसका मानना है कि इसके लिए भाजपा को हर हाल में केंद्र सरकार और राज्य सत्ता का नियंत्रण करने से बाहर रखना होगा, और पोलित ब्यूरो ने इन प्रयासों को और मजबूती देने का फैसला लिया है। इसके साथ-साथ पीबी बैठक ने इंडिया ब्लॉक की पटना, बंगलुरू और मुंबई में हुई तीन बैठकों में आगामी चुनावों में भाजपा की शिकस्त को सुनिश्चित करने के लिए पूरे देश भर में सार्वजनिक सभा करने के सीपीएम के फैसले का समर्थन किया है। इस प्रयास में इंडिया ब्लॉक को विस्तारित करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा और जन-संघर्षों में शामिल विभिन्न वर्गों के महत्वपूर्ण हिस्सों को भी अपने साथ शामिल करना होगा। 

लेकिन पोलित ब्यूरो के वक्तव्य में अंतिम वाक्य को लेकर मीडिया में कई तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। इसमें कहा गया है कि, “सभी फैसलों को घटक दलों के नेताओं द्वारा लिया जायेगा, किंतु ऐसा कोई संगठनात्मक ढांचा नहीं होना चाहिए, जो इन फैसलों के लिए बाधक बनने का काम करे।” 

कोआर्डिनेशन कमेटी के फैसले को कांग्रेस नेता कमलनाथ के बयान ने पलटा 

उक्त बयान में अस्पष्टता है, और इसमें स्पष्ट रूप से साफ़ नहीं होता कि यह टिप्पणी सीटों के बंटवारे के संबंध में राज्य स्तर पर अंतिम निर्णय को लेकर है अथवा 16 सितंबर को मध्यप्रदेश स्थित राज्य कांग्रेस पार्टी के नेता कमलनाथ के उस बयान को लेकर आई है, जिसमें उन्होंने अपनी ओर से बयान देकर जानकारी दी थी कि भोपाल में प्रस्तावित इंडिया गठबंधन के बैनर तले पहली जनसभा रद्द कर दी गई है। उक्त दोनों स्थितियों को लेकर इंडिया ब्लॉक में आम सहमति का अभाव दिखता है, और विशेषकर कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी भूमिका बनती है कि उसकी पार्टी की रैंक और फाइल, गठबंधन के फैसले का पालन करे न कि उसका कोई भी नेता फैसलों को ही ख़ारिज कर दे। यदि मुख्य हितधारक दल के द्वारा ही गठबंधन धर्म का उल्लंघन किया जाता है तो क्षेत्रीय पार्टियों के लिए नियमों में बंधे रहने की बाध्यता अपने आप खत्म हो जाती है।

भाजपा ने कमलनाथ के इस बयान पर तत्काल टिप्पणी देते हुए बयान जारी कर दिया कि इंडिया गठबंधन ने यह कदम डीएमके नेताओं द्वारा सनातन धर्म के खिलाफ की गई टिप्पणियों पर मध्यप्रदेश की जनता की नाराजगी के चलते उठाया है। यह बयान वास्तविकता को दर्शाता है। लेकिन गठबंधन की बैठक में यह फैसला सर्वसम्मति से लिया गया था, जिसमें कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव केसी वेणुगोपाल स्वयं मौजूद थे। शरद पवार के आवास पर हुई इस बैठक के बाद प्रेस को केसी वेणुगोपाल ने ही संबोधित करते हुए कहा था कि यह रैली भाजपा सरकार में बढ़ती महंगाई, बरोजगारी और भ्रष्टाचार पर केंद्रित होगी।

लेकिन भोपाल में प्रस्तावित रैली को रद्द करने की घोषणा कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के चेहरे बनाये गये कमलनाथ द्वारा की गई। कमलनाथ का गठबंधन के फैसले पर टिप्पणी करना या फैसला लेने का कोई हक नहीं है। कांग्रेस के लिए यह बेहद शर्मनाक स्थिति थी। हालत यह थी कि इस बाबत जब पत्रकारों द्वारा एआईसीसी के प्रभारी महासचिव रणदीप सिंह सुरजेवाला से प्रश्न किया गया तो उनका कहना था कि भोपाल रैली के बारे में अभी तक कोई अंतिम फैसला नहीं लिया गया है। एक बार अंतिम फैसला आ जाने के बाद हम इसकी पुष्टि करेंगे। कुछ हलकों से खबर आने लगी कि भोपाल की जगह अब नागपुर में रैली की जायेगी।  

गठबंधन के भीतर सीटों के बंटवारे को लेकर धुंध के बादल 

मीडिया में इस बात की अटकलें लगाई जा रही हैं कि सीपीएम ने खुद को 13 सितंबर को हुई कोआर्डिनेशन कमेटी की बैठक से अलग रहने का फैसला लिया था, हालाँकि प्रचार अभियान समिति या सोशल मीडिया कमेटी जैसे कम महत्वपूर्ण कमेटियों में उसने भागीदारी बनाये रखने के बारे में फैसला लिया है। इसके पीछे की वजह सीपीएम के पश्चिम बंगाल और केरल राज्य में इंडिया गठबंधन को मूर्त रूप देने में बड़ी बाधा खुद गठबंधन के साझीदार दल हैं। 

जहाँ एक तरफ पश्चिम बंगाल में सीपीएम और कांग्रेस का अपना अलग गठबंधन है, जो राज्य में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा को समान रूप से राजनीतिक विरोधी मानता है, वहीं केरल में उसके मुकाबले में सीधे-सीधे कांग्रेस पार्टी है। केरल में तो यह पक्ष-विपक्ष की भूमिका आजादी के बाद से ही बनी हुई है, जिसे सीपीएम और कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व कमोबेश स्वीकार भी कर चुका था। लेकिन यह स्थिति पिछले कुछ वर्षों से विकट हुई है। इसका सबसे बड़ा कारण, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में वाम मोर्चे की लगातार पराजय है। 

आज उसके पास ले-देकर एकमात्र राज्य केरल बचा है। परंपरागत तौर पर राज्य में एक बार वाम मोर्चे को राज्य की सत्ता नसीब होती रही है, तो अगले चुनाव में मतदाताओं के द्वारा कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में मतदान कर उसे राज्य की सत्ता सौंपी जाती थी। लेकिन पिछली दफा कोविड-19 महामारी के दौरान केरल की स्वास्थ्य व्यवस्था बेहद कारगर ढंग से संपन्न करने का ही परिणाम था कि वाम मोर्चे को केरल की जनता द्वारा लगातार दूसरी बार पहले से भी बड़ी संख्या में निर्वाचित कर सत्ता की कमान सौंपी गई।  

हाल में हुए उप-चुनावों के परिणाम बताते हैं कि सीपीएम के लिए पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में अभी मंजिल कोसों दूर है। ऐसे में केरल ही वह एकमात्र राज्य है, जिससे कुछ सांसद जीतकर देश की केंद्रीय राजनीति में हस्तक्षेप की संभावना बनती है। 2019 लोकसभा चुनावों में केरल से सीपीएम को एकमात्र सफलता हासिल हुई थी, शेष 19 सीटें कांग्रेस के खाते में गई थीं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी अमेठी के साथ-साथ मल्लापुरम लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ा था, और अमेठी में उन्हें जहाँ हार मिली वहीं केरल से चुनाव लड़ने का ही यह फल था कि कांग्रेस ने लगभग सारी सीटें जीत ली थी। इंडिया गठबंधन में शामिल 28 दलों में जिस पार्टी का कद उत्तरोत्तर बढ़ रहा है, और उसके शीर्ष नेतृत्व को लाइमलाइट मिल रही है, वह कांग्रेस और राहुल गाँधी एवं पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हैं। 

भाजपा को अपदस्थ करने की सूरत में यदि कांग्रेस लोकसभा में अपने सांसदों की संख्या 55 से बढ़ाकर 100 तक पहुंचाने में सफल रहती है, तो प्रधानमंत्री पद की दावेदारी उसकी बनती है। इस बात का आकलन राजनीतिक विशेषज्ञ ही नहीं देश की जनता तक कर रही है। यदि उसके मन में यह विचार चल रहा है तो जाहिर सी बात है केरल में भी मतदाताओं के लिए राष्ट्रीय चुनाव में किसे वोट देना है, की तस्वीर साफ़ होगी। लेकिन लोकसभा से बड़ी समस्या उसके बाद होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर होने वाली है, जिसमें दो बार की निर्वाचित वाम मोर्चे को तीसरी बार भी जनता के असंतोष के उपर अपनी उपलब्धियों को साबित करने की जिम्मेदारी होगी। 

उपर से इंडिया ब्लॉक में राष्ट्रीय स्तर पर सीटों के बंटवारे का फैसला करने के बजाय राज्य स्तर पर विचार-विमर्श कर इसे निपटाने की व्याख्या बंगाल में स्थिति को विकट बनाने जा रही है। इस बारे में पूछे जाने पर सीपीएम के पश्चिम बंगाल के राज्य सचिव एवं पोलित ब्यूरो सदस्य मोहम्मद सलीम ने पत्रकारों को बताया, “पोलित ब्यूरो का यह निर्णय इंडिया गठबंधन के फैसले की वजह से लिया गया है, जिसमें उसके अनुसार 2024 में सीट बंटवारे का फैसला राज्य स्तर पर लिया जायेगा। हमारे नेता इस बात को बार-बार दुहराते रहे हैं कि गठबंधन के भीतर कोआर्डिनेशन कमेटी जैसे अलग से राजनीतिक ढांचे को गठित करने की जरूरत नहीं है।”

अपने बयान में उनका आगे कहना था, “हम इंडिया गठबंधन को भाजपा के खिलाफ एक जन-आंदोलन मानते हैं। हमें लगता है कि सभी दलों को एकजुट होकर मिलजुलकर अभियान चलाना चाहिए। यदि राष्ट्रीय स्तर पर सीटों का बंटवारा संभव नहीं है, तो फिर कोआर्डिनेशन कमेटी बनाने की क्या तुक है? हम इंडिया गठबंधन की अगली बैठक में भी उसी प्रकार से हिस्सा लेंगे, जैसे पहले लेते आये हैं। इस बीच हम सभी को सड़कों पर मौजूद होना चाहिए।”

वाम मोर्चे की दुविधा 

अगर ध्यान से देखें तो इंडिया गठबंधन से जहाँ सबसे बड़ा फायदा कांग्रेस को हो रहा है और उसके राष्ट्रीय नेताओं, राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे सहित प्रियंका गांधी की इमेज में निरंतर तेजी से सुधार हो रहा है, वहीं अन्य क्षेत्रीय दलों के लिए भी कुछ खोने के बजाय अपनी-स्थिति को मजबूत करने के मौके बन रहे हैं। इसे चाहे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बिहार में राजद और जेडीयू, तमिलनाडु में डीएमके, महाराष्ट्र में शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) या पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की स्थिति का आकलन कर देखा जा सकता है। स्वयं कांग्रेस के लिए बड़ा उछाल हासिल करना संभव है, जिसे 2009 और 2019 में लगभग समान वोट हासिल हुए थे, लेकिन सीटों में यह अंतर 150 सांसदों का था। बता दें कि इन दोनों चुनावों में कांग्रेस को 11.90 करोड़ वोट हासिल हुए थे, लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों के वोट भाजपा के साथ एकजुट होकर उसे और अधिक शक्तिशाली बनाने में काम आये। 2024 में इंडिया गठबंधन की मजबूती का अर्थ है, क्षेत्रीय दलों की वोटों की संख्या और सीटों में बढ़ोत्तरी और भाजपा के वोटों में कमी। इसके साथ कांग्रेस यदि अपने वोट बैंक में 10% का इजाफा करने में सफल रहती है तो परिणाम पूरी तरह से बदल सकते हैं।

वामपंथ पर मजबूती से खड़ा होना ही एकमात्र विकल्प

लेकिन इस सबमें वाम मोर्चे के लिए क्या है? मोदी शासन काल में लोकतंत्र के खात्मे और बढ़ती अमीरी-गरीबी की खाई, अडानी-अंबानी की क्रोनी पूंजी की अबाध गति के बढ़ने पर यदि कोई दल राष्ट्रीय स्तर पर पहल लेता मीडिया की निगाह में आ रहा है तो वह कांग्रेस और राहुल गांधी हैं। कांग्रेस के मध्य-दक्षिण से मध्य-वाम की ओर शिफ्ट ने बड़े पैमाने पर देश में मौजूद लेफ्ट-लिबरल शक्तियों को देश का भविष्य अब राहुल के नेतृत्व में दिखता है, जो बीच-बीच में आरएसएस और भाजपा की वैचारिकी पर ही नहीं बल्कि उनके वैचारिक गुरु सावरकर को लेकर अक्सर तीखी टिप्पणियों के माध्यम से अपने पीछे लगातार गोलबंद करते जा रहे हैं। 

इतना ही नहीं, कर्नाटक राज्य में मिली भारी जीत और कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे की मौजूदगी ने राहुल गांधी को खुलकर खेलने की आजादी प्रदान कर दी है, और अब कांग्रेस हिंदुत्ववादी राजनीति के प्राण तत्व वर्ण-व्यवस्था पर भी खुला प्रहार करने से नहीं चूक रहे हैं, और जातिगत जनगणना के पक्ष में उत्तरोत्तर आवाज तेजकर कांग्रेस के परंपरागत दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक आधार वाली पहचान की राजनीति को संबोधित करना शुरू कर दिया है। यह इंदिरा, राजीव, नरसिम्हाराव कांग्रेस से उलट फिर एक बार जड़ों की ओर जाने का प्रयास या मजबूरी कुछ भी है, एक बदलाव है, जिसे एक बुर्जुआ पार्टी द्वारा रि-पैकेजिंग कहना ज्यादा उचित होगा। लेकिन यह जितना भी है, व्यापक अवाम द्वारा बेहद पसंद किया जा रहा है, क्योंकि उसकी आवाज पूरी तरह से दबा दी जा चुकी थी।   

ऐसे में, जबकि वैचारिक रूप से वाम दल ही वास्तव में दक्षिणपंथी-फासीवादी विचारधारा के मुकम्मल विरोधी सुसंगत विचारों के साथ वैकल्पिक नीतियों को न सिर्फ पेश कर सकते हैं, बल्कि उन्हें लागू करने के लिए उनके पास भौतिक आधार भी मौजूद है, वाम शक्तियों के लिए संयुक्त मोर्चे में बढ़-चढ़कर शामिल होने के साथ-साथ देश की जनता को वर्गीय आधार पर स्पष्ट वैकल्पिक नीतियों के पक्ष में गोलबंद करने की बड़ी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। यदि वह सिर्फ चुनावी सीटों की बन्दरबांट पर ही अपना सारा ध्यान केंद्रित रखती है, तो उसके पास ‘न माया मिली, न राम’ वाली स्थिति साफ़-साफ़ नजर आ रही है, जिसमें उसे न सिर्फ संसदीय राजनीति से हाथ धोना पड़ सकता है, बल्कि उसका वैचारिक आधार भी तेजी से मध्य-वाम के तेवर (posturing) झलकाने वाले नैरेटिव के पीछे बर्बाद हो जाने के लिए अभिशप्त है।  

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

रविंद्र पटवाल
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