सामंतों, शोषकों और उत्पीड़नकारियों के दिलों में खौफ का नाम था दलित पैंथर

6 दिसंबर, 1956 को डॉ. आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद उनका आंदोलन बिखर गया। उनके पार्टी के नेता कांग्रेस की कुटिल राजनीति के शिकार हो गये। जिसके कारण पुरातनपंथी, धनी और शक्ति संपन्न तबकों के लोग दलितों के साथ निष्ठुरता से पेश आने लगे थे। 1970 की इल्यापेरूमल समिति की रिपोर्ट में 11,000 घटनाओं का विवरण दिया गया। एक वर्ष में 1,117 दलितों की हत्या कर दी गयी। दलित महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे थे और उन्हें गांव में नंगा घुमाया जा रहा था। दलित महिलाओं एवं पुरुषों को पेय जल के सार्वजनिक स्रोतों का उपयोग करने, अच्छे कपड़े पहनने के लिए पीटा जा रहा था।

सबसे दुःख की बात यह थी कि आरपीआई जिसकी स्थापना बाब साहेब ने की थी उनके नेता चुप बैठे थे। इस तरह डॉ. आंबेडकर के दूसरी पीढ़ी के युवकों में आक्रोश जागा। इस प्रकार दलित पैंथर्स का जन्म 29 मई, 1972 को हुआ था। नामदेव ढसाल और राजा ढाले इसके संस्थापकों में से एक थे ; अर्जुन डांगले, अविनाश महातेकर, भीमराव शिरवाले, हुसैन दलवाई, सुभाष पवार आदि ने भी इस आंदोलन में महती भूमिका निभाई।

दलित पैंथर आंदोलन की गतिविधियों की दृष्टि से मई 1972 से लेकर जून 1975 तक की अवधि सबसे महत्वपूर्ण थी। इस आंदोलन ने युवाओं के मानस को बदल डाला और वे आंदोलन के प्रतिबद्ध सैनिकों के रूप में सड़कों पर उतर आए। उन्होंने शहरों के दलित मजदूरों एवं छात्रों से एकता कायम की। गांव के दलितों को अत्याचारों से मुक्ति एवं जमीन दिलाने के लिए जमींदारों से लोहा लिया। 

दलित पैंथर के कार्यकर्ताओं ने जो कठिनाइयां भोगीं और जो संघर्ष किए उसके चलते समाज में उन्हें विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा मिली। आम दलितों ने यह महसूस किया कि उनकी रक्षा के लिए एक संगठन या समूह मौजूद है। आज भी जब गांवों में दलितों पर अत्याचार होते हैं, तो लोग सोचते हैं कि काश दलित पैंथर जैसा कोई आंदोलन फिर से खड़ा हो।

दलित पैंथर आंदोलन ने समकालीन सामाजिक-राजनीतिक आचार-व्यवहार को आमूल-चूल बदल दिया और देश में आंबेडकर के अनुयायियों में एक नई ऊर्जा का संचार किया। 

दलित पैंथर के दिनों में नवा काल नामक मराठी अखबार काफी लोकप्रिय रहा। इस अखबार के संस्थापक और संपादक नीलूभाऊ खाडिलकर थे। यह अखबार एक तरह दलित पैंथर आंदोलन का मुखपत्र था। इस अखबार ने आंदोलन की गतिविधियों का प्रचार-प्रसार करने में अत्यधिक सहायता पहुंचाई।

इस आंदोलन ने साहित्य और कला के क्षेत्र में आंबेडकरवादी विचारों को शीर्ष तक पहुंचाया। अनेक दलित साहित्यकार पैदा किये। उनके साहित्य को समाज में स्वीकार्यता मिली। 

आंबेडकरवादी विचारधारा से लैस क्रांतिकारी युवक इसमें शामिल हुए ही, साथ ही डॉ. कुमार सप्तर्षि, हुसैन दलवाई और शमा पंडित जैसे समाजवादी एवं सुनील दिघे एवं अविनाश महातेकर जैसे कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित लोग भी इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिये। ज.वि. पवार जो दलित पैंथर के सह-संस्थापकों में से एक थे, उन्होंने दलित पैंथर के बारे में ‘दलित पैंथर एक आधिकारिक इतिहास’ पुस्तक भी लिखी है।

दलित पैंथर आंदोलन महाराष्ट्र की सीमाओं से बाहर निकलकर देश के अन्य राज्यों में फैला। गुजरात, दिल्ली, मद्रास, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और पंजाब यहां तक कि विदेश लंदन में भी दलित पैंथर की स्थापना हुई। लंदन में दलित पैंथर का नाम- दलित पैंथर ऑफ इंडिया रखा गया। 

दलित पैंथर आंदोलन से ऊर्जा लेकर पुन: दलितों, पिछड़ों एवं अल्पसंख्यकों के लिए ऐतिहासिक भूमिका निभाने का वक्त आ गया है। क्योंकि आज डॉ. आंबेडकर के सपने का भारत पुनः खतरे में है। दलितों, पिछड़ों, स्त्रियों एवं अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा का दावा करने वाली संवैधानिक संस्थायें मनुवादियों के आगे घुटने टेक चुकी हैं। कोरोना महामारी जैसी मानवीय आपदा में भी दलितों, पिछड़ों एवं अल्पसंख्यकों पर अत्याचार एवं उनके बुद्धिजीवियों को जेलों में जबरन ठूंसा जा रहा है।

(इमानुद्दीन पत्रकार और लेखक हैं।)

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