दिल्ली पुलिस की नज़र में कलम नहीं कट्टे की है इज्जत

थे तो वे दोनों भी पत्रकार, पर पता नहीं उन्होंने पुलिस को यह बताया था या नहीं। तीसरे पत्रकार को जरूर जब एक इंस्पेक्टर- सब-इंस्पेक्टर जैसे किसी जवान ने बांह से पकड़कर टैम्पो ट्रेवेलर के दरवाजे की तरफ खींचा तो जाने कैसे उसकी जुबान से बेसाख्ता निकल गया कि वह पत्रकार है। पुलिस वाले ने तो बल्कि इस पर कार्ड मांग कर देखा भी। सो आप कह सकते हैं कि वह गांधी की पुण्यतिथि पर एक नागरिक को राजघाट जाने से रोक रहा था। वह एक नागरिक को सीएए-एनआरसी के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन से रोक रहा था और शायद पत्रकारों को अपने दायित्व के निर्वाह से भी। 

शायद इसलिये कि कम से कम पुलिस को पता नहीं था कि वह वहां नागरिक के तौर पर था या पत्रकार की हैसियत से, या कि दोनों ही। वर्षों पहले, संसद की नाक के ठीक नीचे, गाजियाबाद से आने वाले न्यूज एजेंसी के एक पत्रकार की एक कांस्टेबल के हाथों बेरहम पिटाई की शिकायत लेकर ढेर सारे पत्रकार जब संसद मार्ग थाने गये थे तो तब के अपेक्षाकृत जहीन एसएचओ ने मासूम सी टिपपणी की थी कि ‘इन्होंने बताया नहीं होगा कि ये पत्रकार हैं’, गोया पत्रकार नहीं होना भी आईपीसी-सीआरपीसी में कोई अपराध हो। पर वह समय पीछे छूट चुका है। यहां तो उन्होंने बताया भी था, कार्ड भी दिखाया था। क्या पुलिस ने तीनों पत्रकारों को कपड़ों से पहचान लिया होगा? आखिर यह टीप देश के उच्चतम राजनेता ने दी है। पुलिस वाले गोदी मीडिया के दीपक, सुधीर, अंजना, अर्णब जैसे किसी धुरंधर के साथ भी ऐसा नहीं कर पाते, यह तो साफ ही है।

सुबह की ही तो बात है। जामिया नगर में एक लड़का खुलेआम न केवल पिस्तौल लहरा रहा था, बल्कि उसने एक फायर भी किया और उससे सीएए-एनआरसी के खिलाफ राजघाट तक प्रस्तावित लांग मार्च में शामिल एक युवक घायल भी हो गया। दिलचस्प यह था कि आम अपराधियों की तरह वह अचानक फायर कर फरार नहीं हो गया, बल्कि पिस्तौल लहराता हुआ इत्मिनान से, बीसेक मीटर पीछे खड़े एक एसएचओ और अच्छे-खासे पुलिसकर्मियों की ओर ही खिसकता रहा। कहते हैं कि वह नाबालिग है, यद्यपि वह किसी वयस्क के डायरेक्ट सुपरविजन में प्रशिक्षण नहीं ले रहा था। उस जैसों के लिये सीआरपीसी और अन्य कानूनों मे सार्वजनिक स्थल पर पिस्तौल लहराने और फायरिंग करने के लिये छूट का कोई प्रावधान हो, ऐसा भी नहीं है। लेकिन छूट तो मिलनी थी न!

आखिर वह एक मंत्री की ‘गोली मारो सालों को’ की एक अपील पर अमल भर ही तो कर रहा था। ‘यह लो आजादी’ और ‘हिन्दुस्तान में रहना है तो वंदे मातरम कहना होगा’ जैसे नारे लगाकर उसने अपनी पहचान साफ तो कर ही दी थी। ‘मिसटेकेन आइडेंटिटी’ की गुंजाइश तो पीआईबी के एक्रीडिटेशन कार्ड-वार्ड दिखाने से होती है। प्रदर्शनकारियों में पर्याप्त आतंक मचाने का उस लड़के का कार्य सम्पन्न हो जाने के बाद पुलिस ने उसे पकड़ लिया। कोई विकल्प भी नहीं था – वह पास भी तो पहुंचता जा रहा था, वह भी, घटना को लगातार रिकार्ड करते सैकड़ों मोबाइल की लगातार चमकते फ्लैशों के बीच।

अलबत्ता बाद में, हिरासत में लेकर हरिनगर के घुप्प अंधेरे स्टेडियम में लाये गये सैकड़ों महिलाओं-पुरुषों की भीड़ में जरुर एक पत्रकार को इत्तला दी गयी थी कि पुलिस के पीआरओ उनके मोबाइल नम्बर जानना चाहते हैं, ताकि शायद प्रीफरेंशियल बेसिस पर उनकी रिहाई की व्यवस्था की जा सके, पर पत्रकारों को ऐसा करना नागवार लगा। आखिर वहीं, घुप्प होते अंधेरे में महिलाओं ने भी तो प्राथमिकता के आधार पर उन्हें छोड़ देने की पुलिस की पेशकश इस सार्वजनिक रुख के साथ ठुकरा दी थी कि वे तभी जायेंगी, जब हिरासत में लिये गये सभी लोगों को छोड़ा जायेगा। वहां भाकपा के महासचिव डी. राजा, राष्ट्रीय सचिव अतुल कुमार अनजान, स्वराज अभियान के नेता योगेन्द्र यादव, मशहूर वकील और ऐक्टिविस्ट प्रशांत भूषण भी थे और सब रात लगभग आठ बजे ही मुक्त किये गये, जब गिरफ्तारियों के विरोध में आईटीओ पर लोगों का हुजूम जुटने लगा था।

(राजेश कुमार कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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