‘बड़ों के वर्चस्व’ का इनकार और ‘छोटों के सर्वस्व’ के स्वीकार का मार्मिक और न्याय ‎‎संगत आश्वासन है लोकतंत्र ‎

‎मतदान के लिए मन बनाते समय आम नागरिकों को किसानी अर्थव्यवस्था से जुड़ी ‎समस्याओं, सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती हुई महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं तथा ‎कमजोर नागरिकों की सामाजिक सुरक्षा, नागरिक जीवन की आंतरिक व्यवस्था जैसे गंभीर ‎मुद्दों पर बात करनी चाहिए, कम-से-कम सोचना जरूर चाहिए। कांग्रेस के नेतृत्व में डॉ मनमोहन सिंह की सरकार के द्वारा आपराधिक ‎पृष्ठभूमि वाले जन-प्रतिनिधियों को अयोग्यता से बचाने की कोशिश को नाकाम कर दिया था। राहुल गांधी में यह राजनीतिक साहस था कि अपनी ही पार्टी के नेतृत्व में चल रही सरकार के अध्यादेश को ‘बकवास’ बताकर अमान्य कर दिया था। उसी राजनीतिक साहस के साथ राहुल गांधी आज भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर हैं।

राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर इसलिए हैं कि आज पूरी ‎सरकार ही लगभग असंवैधानिक तौर तरीके और आपराधिक निर्णयों और नीतियों की ‎शिकार हो गई है। जिसका बड़ा सबूत चुनावी दान (Electoral Bonds) के लाभार्थी के नाम ‎सामने आ जा सकता है। इसलिए सबसे बड़े ‘लाभार्थी’ मन-ही-मन कामना कर रहे हैं कि ‎आम चुनाव के पहले किसी-न-किसी  तरह से चुनावी दान (Electoral Bonds) ‎के दस्तावेज ‎सार्वजनिक रूप से सामने न आये। कहते हैं पराक्रमी लोग सिर्फ कामना ही नहीं करते, बल्कि ‎कामना के पूर्ण होने के लिए ‘सत्कर्म’ भी करते हैं। राजनीति भीतर-ही-भीतर क्या करती ‎रहती है, कहना मुश्किल है- पराक्रम तो कम है नहीं।

प्रधानमंत्री के ‘मन की बात’ को मन ‎से सुननेवाले आम नागरिकों के मन को आज भीतर से यह सब जरूर मथ रहा होगा। ‎‎‘एकात्म मानववाद’ की बारहखड़ी रटते-रटते ‘एक व्यक्ति’ की छवि चमकाने, उस की ‘समझ ‎और पकड़’ के मिथ्याभास को झलकाकर मतदाताओं को बहलाने, फुसलाने, रिझाने, लुभाने ‎के कपट के बेरोक ‘खेल’ सामान्य चुनाव प्रचार का हिस्सा तो नहीं माना जा सकता है: यह लोकतंत्र से खिलवाड़ है। ‎लोकलुभावन राजनीति का यह बहुत ही खतरनाक कायदा है।

संसदीय लोकतंत्र मर्यादा की ‎अनुकूलता का इस तरह से चिथड़ा-चिथड़ा हो जाना संसदीय लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत ‎है। एकाधिक राज्यों में प्रभाव रखने वाले दल, अखिल भारतीय दलों की राजनीतिक गतिविधियों को ‎अपने-अपने ढंग से तौल रहे हैं। एक तरफ कांग्रेस पार्टी की अगुआई में इंडिया गठबंधन और दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले ‎राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन आमने-सामने है।

कांग्रेस ने डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए ‎के दो शासन काल में मनरेगा, सूचना का अधिकार, खाद्य सुरक्षा अधिनियम और जो भी ‎अच्छा-बुरा लागू किया था के साथ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए के दो शासन काल में ‎नोटबंदी (विमुद्रीकरण), वापस लिये जा चुके तीन कृषि कानून, जम्मू कश्मीर से संबंधित धारा 370 ‎को अप्रभावी बनाने, पुर्नयोजित करने, मणिपुर के जलने, ओलम्पिक मैडल विजेता महिला ‎पहलवानों के साथ हुए दुर्व्यवहार, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 ‎समान ‎नागरिक संहिता (यूसीसी), सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती बहुआयामी महंगाई ‎‎(Multidimensional inflation), धुरफंदिया चुनावी चंदा (Electoral Bonds), जीएसटी, ‎बेरोजगारी का बढ़ता हुआ दैत्याकार रूप, सेना में अग्निवीर योजना, अर्थ नीतियों और ‎निर्णयों में मिली-भगत (Quid Pro Quo) का कमाल, धर्म के नाम पर धर्माचार्यों की अवहेलना करते हुए राम मंदिर में भगवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा को राजनीतिक बनाकर चुनावी लाभ बटोरने, पचकेजिया मोटरी-गठरी थमाकर सर्वाधिकार हर लेने आदि बातों का अपने-अपने और अपने जैसों के जीवन पर असर को तोलकर आम मतदाता को अपना मन बना सकता है।

‘पेशेवर करुणाकर’ की करुणा करोना से भी अधिक जानलेवा होती है। इसलिए, सब से जरूरी है ‎‘पेशेवर करुणाकर’ की करुणा और कृपा के ‘राजतांत्रिक फंदा’ की अनुनयता से बाहर संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक आधिकारिकता (Entitlement) के खुले मैदान में आना। यह काम आम नागरिकों के सही मतदान से ही हो सकता है।    

यह मानकर चलना चाहिए कि चुनाव नतीजों के सामने आने तक इंडिया गठबंधन के सभी घटक दल टिके रहेंगे। नीतीश कुमार के दुबारा भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय ‎जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल हो जाने के बाद आम नागरिकों का भरोसा कम तो ‎जरूर हुए था, लेकिन हेमंत सोरेन, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे की दृढ़ता ‎और तेजस्वी यादव की बढ़ती हुई लोकप्रियता और राजनीतिक समझ से भरोसा जगता भी ‎जरूर है।

3 मार्च 2024 को पटना की ऐतिहासिक जन विश्वास रैली का संदेश बिल्कुल साफ है। अब, ऐसी पूरी संभावना दिखती है कि ये इंडिया गठबंधन के घटक दल अपने-अपने समीकरणों को दुरुस्त रखते हुए ‎गठबंधन में बने रहेंगे। कांग्रेस पार्टी में भी यह राजनीतिक बोध जगा रहेगा कि घटक दल ‎सहयोगी हैं, अनुयायी नहीं। सत्ता की राजनीति में स्थायी दोस्त या स्थायी दुश्मन न होते हों ‎लेकिन लोकतंत्र और संविधान की लड़ाई को तो ‘स्थायी दोस्त’ के साथ ही लड़ा जा सकता ‎है। ‎

अभी तो बहुत सारे खेल होंगे, बस खिलवाड़ न हो तो गनीमत। अभी चुनावी घोषणापत्र जारी किया जाना है। ऐसे मुद्दे भी ‎सामने आ सकते हैं जिन से वोटरों के रुझान में थोड़ा-बहुत बदलाव आ सकता है। यह भी ठीक है कि ‎सरकार बनाने की स्थिति साफ होगी नतीजे आने के बाद, लेकिन जश्न के माहौल बनाने से ‎रणनीतिक परहेज करना चाहिए। ध्यान रहे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में बने रहने, बेदखल ‎होने या गठबंधनों के हारने-जीतने का नहीं, संविधान और लोकतंत्र के ‎जीतने का है।   ‎

आक्रामक हिंदुत्ववादी तेवर के विभाजनकारी नतीजों और नतीजों का असर झेलते-समझते हुए अब ‎मतदाता नरेंद्र मोदी से मोहभंग की स्थिति में है। कांग्रेस या इंडिया गठबंधन ने प्रधानमंत्री पद का कोई उम्मीदवार घोषित नहीं ‎किया है। संसदीय लोकतंत्र में ऐसा करने की कोई जरूरत भी नहीं होती है। संसदीय लोकतंत्र में सामूहिक नेतृत्व और ‎सामूहिक दायित्व के सिद्धांत के अंतर्गत जनता के भरोसा का सब से बड़ा आधार प्रधानमंत्री ‎के पद पर बैठा कोई एक व्यक्ति नहीं पूरा तंत्र अर्थात मंत्रिपरिषद और मंत्रिमंडल, संपूर्ण न्याय ‎व्यवस्था, संवैधानिक संस्था, स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया होता है। लोकतंत्र की सब से ‎बड़ी ताकत समझ-बूझकर बिना हकलाये बोलना है, लोकतंत्र की सब से कमजोरी किसी भी तरह के अन्याय के सामने ‎सहमी हुई खामोशी है। इस समय भारत के लोकतंत्र की समस्याओं का बड़ा कारण ‘व्यक्ति’ के सामने अपराजेय-सी ‎दिखनेवाली सहमी हुई बहु-स्तरीय खामोशी या ‘हां जी हां’ की ठकुरसुहाती है। 

राजनीतिक दलों और लोगों में आम चुनाव को लेकर जो भी उत्साह हो आम मतदाताओं की ‎स्थिति, या कहें आम नागरिकों की स्थिति बहुत ही करुण है। जब बड़े-बड़े जन-प्रतिनिधियों ‎को ही ‘उड़ा’ लिया जाता है, चाहे जैसे भी आम नागरिकों की क्या बिसात कब कौन कैसे, किधर ‘उड़ा’ ले जाये! उम्मीद है- इस “उड़ान चलन” का यहीं अंत हो जायेगा।

लोकतंत्र ‘बड़ों के वर्चस्व’ का इनकार और ‘छोटों के सर्वस्व’ के स्वीकार का मार्मिक और न्याय ‎‎संगत आश्वासन है। ‎‘बड़ों के वर्चस्व’ ‎को इस समय ‘छोटों के सर्वस्व’ को लील लेने पर आमादा ‎‎है। निश्चित ही यह लोकतंत्र के होने का लक्षण तो नहीं हो सकता। सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ‎‎है, भारतीय जनता पार्टी। सबसे बड़ा बैंक है, भारतीय स्टेट बैंक। सब से बड़ा कोर्ट है, सुप्रीम ‎‎कोर्ट। सब से बड़ा लोकतंत्र, भारत का लोकतंत्र। क्या कोई अपनी महिमा न बचा पायेगा! क्या भारत के लोकतंत्र के प्रति कोई नहीं हक अदा करेगा! कोई नहीं! सब ‎की महिमा घटाव पर है। रहीम ने ठीक ही कहा था -बसि कुसंग ‎चाहत कुशल, यह रहीम अफसोस। महिमा घटी समुद्र ‎की, रावण बस्यो पड़ोस। ‎ ‎

मतदान का मन बनाते और मतदान करते समय सावधानी ‎बहुत जरूरी है। सावधान- ध्यान टूटा, सब लुटा!

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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