बीजेपी की सत्ता में जिंदा रहना ही विकास!

दुनिया के कई देश गृहयुद्ध की भयावहता को झेल चुके हैं और आज भी उस परिस्थिति से गुजर रहे हैं, जिसमें रवांडा, मिस्र, लीबिया, युगांडा, अफगानिस्तान, ईरान, इराक समेत और भी बहुत सारे देशों को देखा जा सकता है। किसी भी देश में गृहयुद्ध एक दिन का परिणाम नहीं होता है, समाज में वर्षों से चली आ रही असमानता, असंतोष और अत्याचार के समावेश के विरोध में उठ रही आवाज और उस आवाज को लगातार सत्ता पक्ष द्वारा निर्ममता से कुचलने का परिणाम गृहयुद्ध के रूप में सामने आता है। सन 1994 में अकेले रवांडा (जो अफ्रीका का एक देश है) में गृहयुद्ध का अंजाम यह हुआ है कि 100 दिनों के भीतर दो प्रजाति (हूतू और तुत्सी) के 10 लाख लोग मारे गए और 2.5 लाख महिलाओं का बलात्कार किया गया। इससे गृहयुद्ध की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है। किसी भी लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष देश में जिसका अपना संविधान हो, उसका गृहयुद्ध की ओर बढ़ना उस देश की जनता के लिए विनाशक साबित होता है।

हर देश में गृहयुद्ध के अलग-अलग कारण देखे गए हैं, पर भारत में सदियों से चली आ रही सामाजिक, आर्थिक असमानता, जो वर्तमान संघ की सरकार में पहले से भी अधिक मजबूत हुई है, और जिसे लागू करवाने के लिए आज राजनीतिक नीतियों का सहारा लिया जा रहा है। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर द्वारा लिखे गए संविधान को आज बदलने की कोशिश की जा रही है, ताकि हिंदुत्व पर आधारित संघ के एजेंडे पर भाजपा की सरकार काम कर सके और देश को हिंदू राष्ट्र बनाया जा सके।

ये भारतीय समाज के लिए खतरनाक है। भारत में असमानता के अलावा धार्मिक और जातीय उन्माद अपने चरम पर है। ग़रीबी, भुखमरी के साथ लोगों ने जीना सीख लिया है। लोगों में असंतोष अपने चरम पर है। सरकार से सवाल करने के संवैधानिक अधिकारों को ख़त्म किया जा रहा है। पत्रकारिता के नैतिक मूल्य ख़तरे में हैं। साफ़ शब्दों में कहें तो लोकतंत्र का वजूद ख़तरे में नजर आता है।

देश में महिलाओं, बूढ़ों, बच्चों, दलित, अल्पसंख्यकों समेत आदिवासियों की सुरक्षा संकट में है। कत्लेआम और हत्या का आलम यह है कि हर तीन मिनट पर भारत के किसी न किसी हिस्से में अलग-अलग वजहों से एक इंसान की जान जा रही है, जो लगातार असंतोष को पैदा कर रही है। देश के युवाओं में अशिक्षा और बेरोजगारी को लेकर गहरा असंतोष है। देश की ये समस्याएं पहले भी रही हैं और उसे ख़त्म करने के लिए विरोध की आवाज भी रही है। यही एक लोकतांत्रिक देश की विशेषता है, पर आज संघ की सरकार द्वारा सरकारी नीतियों के ख़िलाफ़ देश भर से उठ रही आवाज को हमेशा के लिए मौन कर दिया जा रहा है।

सरकार के विरोध में उठ रही आवाज को सख्त कानून के तहत या तो जेलों में कैद कर दिया जा रहा है या हमेशा के लिए खामोश कर दिया जा रहा है। एक लोकतांत्रिक देश में समाज की बेहतरी के लिए सत्ता के विरोध में उठ रही आवाज को निरंकुशता से दबाना, दो धर्मों के बीच झूठी अफवाह फैलाकर खूनी दंगे करवाना, साजिशन, शिक्षा और रोजगार की मांग कर रहे युवाओं का दमन करना, सत्ता के ख़िलाफ़ बोलने वाले दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी, रोहित वेमुला, गौरी लंकेश समेत देश हित में लिखने और बोलने वाले लोगों की हत्या करवाना आम बात हो गई है।

आज देश के अन्नदाता किसान, आत्महत्या करने को मजबूर हैं। किसान विरोधी बिल को संसद में पारित करवाकर किसानों को सड़कों पर उतरने के लिए विवश कर दिया गया है। मजदूर भूखों मरने की स्थिति में हैं। लेबर बिल के रूप में लाए गए फरमान ने कर्मचारियों, मजदूरों की जिंदगी को पूंजीपतियों के सामने गिरवी रखने का काम किया है। देश में ऐसी अनगिनत समस्याएं हैं, जिनकी गिनती कम पड़ जाएगी, लेकिन  समझने की बात ये है कि समस्याओं की झड़ी लगा देने वाला ये सिलसिला रुकने का नाम क्यूं नहीं ले रहा है?

आलम यह है कि आज मौत, बलात्कार, आत्महत्या, लूट, बच्चों और महिलाओं की तस्करी समेत तमाम तरह के अपराध का सामान्यीकरण कर दिया गया है और ये भी एक दिन में संभव नहीं हुआ है। संघ के वर्षों की तैयारी के बाद आज वे सत्ता में आकर अपनी ‘एक राष्ट्र, एक धर्म, एक शासक’ वाली मनुवादी नीतियों की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। उतने ही रोष के साथ समाज के तमाम तबके से विरोध की आवाज गूंज रही है। अधिकार और न्याय के लिए मांग कर रही अवाम के बीच लगातार दंगे भड़काने और अफवाहों के द्वारा आपसी रंजिश में फ़साने के अपने पुराने एजेंडे को संघ शिद्दत से लागू कर रहा है, जिसे वर्तमान में हाथरस की घटना में भी देखा जा सकता है। समाज में लगातार बढ़ता दमन और विरोध का टकराव गृहयुद्ध की तरफ बढ़ने की ओर संकेत देता है। 

किसी भी देश में एकल निरंकुश शासन की शुरुआत वहां के आर्थिक संसाधनों पर कब्ज़ा करके और देश की जनता को तमाम संसाधनों से दूर करके होता है। आज भारत में संघ की सरकार उसी राह पर है। किसानों को जमीन, आदिवासियों को जंगल, मजदूरों को काम, व्यापारियों को व्यापार, बच्चों को स्कूल, युवाओं को विश्वविद्यालय से बेदखल कर पूंजीपतियों की दलाली करके देश के तमाम संसाधनों को विश्व के पूंजीपतियों के हाथों बेचा जा रहा है।

देश के संसाधनों को WTO, IMF, वर्ल्ड बैंक (जिसमें अमेरिका की 20 प्रतिशत हिस्सेदारी हैं) के पास गिरवी रखते हुए संघ की सरकार भूल गई है कि इतिहास हर काम का हिसाब मांगता है। इतिहास गवाह है कि विश्व भर में जनता के रोष से उपजा आंदोलन बड़े से बड़े निरंकुश शासक को नेस्तनाबूत करने की ताकत रखता है। भारत में असमानता और शोषण के ख़िलाफ़ उठती हुई आंदोलन की आवाज गली, मोहल्ले, चौक, चौराहे से होती हुई सड़कों तक आ पहुंची है और सत्ता पक्ष का उसी रफ़्तार से आंदोलन को कुचलने का निरंकुश प्रयास जारी है। सरकारी प्रयास समाज के हर वर्ग को दो धड़ों में बांटने में लगा है। सता के खौफ़नाक इरादों के साथ जनता के दो वर्गों के टकराव का ये मंजर आने वाले गृहयुद्ध की ओर इशारा करता है।

आज सत्ताधारी मनुवादी, रुढ़िवादी सरकार से एक तरफ लोकतांत्रिक देश के लोकतंत्र को खतरा है, धर्मनिरपेक्ष देश के धर्मनिरपेक्षिता को ख़तरा है तो दूसरी तरफ देश भर के तरक्कीपसंद प्रगतिशील लोग अपनी जान की परवाह किए बिना रुढ़िवादी ताकतों को रोकने के लिए एक जुट हो रहे हैं आने वाला समय तय करेगा कि रुढ़िवादी ताकतें समाज पर हावी होती हैं या रुढ़िवादी प्रयासों को विफल बनाने में जुटे संघर्षशील लोग देश के संवैधानिक मूल्यों को रक्षुण्य रख पाते हैं। जो भी हो, गृहयुद्ध के नजदीक पहुंचता भारतीय समाज डरावना मंजर तैयार कर रहा है, जो भविष्य के भारत के लिए शुभ संकेत नहीं है। 

(डॉ. अमृता पाठक लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

डॉ. अमृता पाठक
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