‘धर्म संसद’ ने एक बार फिर दिखाया- हिंदू धर्म कितना उदार!

हरिद्वार में संपन्न हुई तथाकथित धर्म संसद में जिस तरह से नरसंहार की बातें की गईँ, उससे एक बार फिर कई मिथ ध्वस्त हो गए हैं। वर्षों से और सुनियोजित तरीक़ों से ये मिथ गढ़े गए थे और इनके आधार पर हिंदू धर्म को दूसरे धर्मों से अलग और महान बताया जाता रहा है। लेकिन धर्म संसद और इसके पहले की बहुत सारी घटनाएं एक बार फिर साबित कर रही हैं कि इनमें ज़रा भी सच्चाई नहीं है। 

धर्म संसद के बयानों से पहला भ्रम तो ये टूट जाना चाहिए कि हिंदू समाज अति पर कभी नहीं जाता और अगर जाता भी है तो जल्दी ही वापस लौट आता है। इसके पक्ष में जो सबसे बड़ा तर्क दिया जाता है वह ये कि हिंदू समाज में इतनी बहुलता है कि वह स्वभाव से ही लोकतांत्रिक है। उसमें एक ईश्वर, एक ग्रंथ और एक विचार है ही नहीं, जिसकी वजह से वह दूसरे धर्मों के मुक़ाबले अत्यधिक विकेंद्रित है और किसी एक अभियान को लेकर संगठित भी नहीं हो सकता।

लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू महासभा, बजरंग दल, हिंदू वाहिनी जैसे संगठनों का इतने वर्षों से होना और अतिवादी गतिविधियों में संलग्न रहना यही बताता है कि ऐसा है नहीं। हिंसा और अतिवाद के सहारे चलने वाले ये संगठन न केवल अपना वजूद बनाए हुए हैं, बल्कि लगातार विस्तार कर रहे हैं और अब तो सत्ता पर काबिज़ भी हो चुके हैं।

प्रज्ञा ठाकुर से लेकर यति नरसिंहानंद तक दर्ज़नों ऐसे नाम गिनाए जा सकते हैं जिन्हें हिंदू समाज ने न केवल स्वीकार किया है बल्कि उन्हें बढ़ावा भी दिया है। ये फ़ेहरिस्त लगातार बढ़ती जा रही है और उनकी आक्रामकता में भी इज़ाफ़ा हो रहा है। वे खुले आम नरसंहार करने की बात कर रहे हैं और इसको लेकर उनके बड़े नेताओं के माथों पर शिकन तक नहीं है। मोदी, भागवत सब खामोश हैं।

दूसरा ढोल ये पीटा जाता है कि हिंदू धर्म बहुत उदार है, इसलिए वह दूसरे धर्मों और विचारों के प्रति हिंसक नहीं हो सकता, उल्टे वह सबको ग्रहण करते हुए चलता है। इससे टकराव की गुंज़ाइश बहुत कम हो जाती है और समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करने में आसानी हो जाती है।

इसी आधार पर आज हिंदू धर्म को हिंदुत्व से अलग करके देखने की ज़िद की जा रही है। कहा ये जा रहा है कि जो लोग दूसरे धर्मों के ख़िलाफ़ हिंसा की बात कर रहे हैं वे हिंदू हैं ही नहीं। हो सकता है कि कुछ राजनीतिक दलों के लिए इस लाइन पर काम करना सुविधाजनक हो, इसलिए वे इसे आगे बढ़ा रहे हैं, मगर ये सच्चाई नहीं है।

सच्चाई ये है कि हिंदू धर्म अपनी संरचना में ही अनुदार है। वर्ण व्यवस्था इतनी बर्बर और दमनकारी है कि उसी से उसकी उदारता का मिथ ध्वस्त हो जाना चाहिए। जो धर्म अपने ही मानने वाले बहुसंख्यक लोगों को ग़ुलाम बनाकर रखने की धर्म सम्मत व्यवस्था देता हो और जो क़रीब तीन हज़ार साल में भी उससे मुक्त न हो पाया हो, उसे कैसे उदार बताया जा सकता है?

मनुस्मृति जिसे ब्राम्हणवादी व्यवस्था अपना आधार मानती है और जिसे लागू करने के लिए वर्तमान संविधान तक को ख़त्म कर देना चाहती है, वह न केवल दलितों, बल्कि स्त्रियों के प्रति भी हिंसा से भरी हुई है। वास्तव में इस ग्रंथ का होना और उसे पूजा जाना ही हिंदू धर्म में मौजूदा हिंसा का बहुत बड़ा प्रमाण है।

हिंदू धर्म द्वारा निर्मित जाति व्यवस्था में मन, वचन और कर्म तीनों तरह की हिंसा इस क़दर भरी हुई है कि इसकी तुलना दुनिया में किसी भी धर्म से नहीं की जा सकती। ऊँची कही जाने वाली जातियाँ जिस श्रेष्ठताबोध और अभिमान के साथ इसे सिर पर धारण किए हुए हैं और इसे बनाए रखने के लिए हर तरह के उपाय कर रही हैं, क्या ये उन लोगों को नहीं दिखता है जो हिंदू धर्म की उदारता का कीर्तन करते रहते हैं?

लेकिन केवल हिंदू समाज के अंदर ही नहीं, दूसरे धर्मों के विरुद्ध भी हिंदुओं और ख़ास तौर पर उच्च वर्णों की हिंसा की लंबी परंपरा रही है। पुष्पमित्र शुंग का ज़िक्र यहाँ किया जा सकता है, जिसने बौद्धों का क़त्ले आम करवाया, उनके विहार उजाड़े, उनके धर्मस्थलों को नष्ट-भ्रष्ट किया।

वैसे इतना पीछे जाने की ज़रूरत भी नहीं है। पिछले सौ साल का इतिहास ही उलटकर देख लें कि देश मे जहाँ-जहाँ भी हिंसा हुई है, उसमें सबसे ज़्यादा किस धर्म के लोग शामिल रहे हैं। तमाम दंगों को उकसाने और उसमें हिंसा करने वालों में हिंदू अग्रणी रहे हैं। मरने वालों में अधिकांश दूसरे धर्मों के लोग मिलेंगे।

भारत विभाजन के दौरान हुई हिंसा में तो सभी धर्मों के लोग शामिल थे, ख़ास तौर पर हिंदू, मुसलमान और सिख तीनों। गाँधी तो हिंसा के उस विस्फोट से स्तब्ध रह गए थे। उन्हें अहिंसा के लिए किए गए अपने कार्यों पर संदेह होने लगा था और वे मरने की कामना करने लगे थे। आख़िरकार वे हिंसा के ही शिकार हुए और उनकी हत्या करने वाला भी एक हिंदू नाथूराम गोडसे ही था।

मगर विभाजन के बाद आज़ाद भारत के दंगों का इतिहास भी बताता है कि चाहे वह जातीय हिंसा हो या सांप्रदायिक, दोनों में हिंदुओं ने बाक़ी धर्मों को मात दी है। चौरासी के दंगों में मारकाट करने वाले हिंदू थे और गुजरात के नरसंहार में भी उनकी भूमिका निर्विवाद रूप से स्पष्ट है।

हिंदू धर्म में वैचारिक अनुदारता के पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं। मिसाल के तौर पर नास्तिक परंपरा पर इतने हमले किए गए कि वह विचार परंपरा ही एक तरह से लुप्त हो गई। इसी तरह से शैव और शाक्तों के बीच लंबा हिंसक संघर्ष हुआ।  

वास्तव में सच तो ये है कि हिंदू ही नहीं, हर धर्म में हिंसा रही है। बौद्ध धर्म को करुणा और समता का धर्म कहा जाता है। मगर श्रीलंका और म्यांमार में उसके अनुयायियों ने हिंदुओं और मुसलमानों के साथ जो किया वह तो हिंसा की पराकाष्ठा थी। इसी तरह ईसाईयत ने भी दुनिया भर में अपनी हिंसा के झंडे गाड़े हैं।

लिहाज़ा, इस सच्चाई को स्वीकार किया जाना चाहिए कि हिंदू धर्म भी दूसरे धर्मों की ही तरह है। उसमें भी अनुदारता और हिंसा की एक लंबी और पुष्ट परंपरा रही है। आज जो हमें हिंसा के आह्वान सुनाई पड़ रहे हैं ये न तो अचानक पैदा हुए हैं और न ही अपवाद हैं।    

 (डॉ. मुकेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार, टीवी एंकर, लेखक, कवि और अनुवादक हैं।)

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