क्या बंगाल में सीपीएम अवसादग्रस्त व्यक्ति की फ्रायडीय मृत्यु प्रेरणा के दुश्चक्र में फंस गई?

सीपीआईएम के अभी के छद्म सिद्धांतकारों ने पश्चिम बंगाल में अपना काम कर दिया है। राज्य में सीपीआईएम की संभावनाओं तक को जैसे हमेशा के लिए दफ़्न कर दिया है। सीपीआईएम के ये सिद्धांतकार एक लंबे अर्से से द्वंद्वात्मकता प्रक्रिया के बारे में एक अजीब प्रकार की पूरी तरह से भ्रांत समझ का परिचय देते रहे हैं। ये हमेशा द्वंद्वात्मकता को दो के बीच विरोध से जुड़ी प्रक्रिया के बजाय बहुकोणीय विरोधों की प्रक्रिया के रूप में देखने के जैसे अभ्यस्त हो गए हैं। किसी भी स्थिति का विकास तो अनेक द्वंद्वों के मिश्रण से ज़रूर होता है पर उसका अंतिम परिणाम हमेशा दो के बीच द्वंद्व के समाधान के रूप में ही संभव है। द्वंद्वों के समीकरण पर बीजगणित के सभी सामान्य समीकरणों के समाधान की प्रक्रिया से भिन्न कोई फ़ार्मूला लागू नहीं होता है। यही द्वंद्ववाद की क्रियात्मकता की तात्विकता है।

पर सीपीआईएम के अभी के सिद्धांतकार हर चुनावी लड़ाई में किसी एक निश्चित लक्ष्य को चुन कर उतरने के बजाय ‘इसे हराओ और उसे कमजोर करो’ की तरह के बहुकोणीय लक्ष्य को अपना कर चला करते हैं। उन्हें इस बात का भी एहसास नहीं रहता है कि संसदीय जनतंत्र में चुनाव लड़ाई का एक निर्णायक स्तर हुआ करता है। पर उनकी ‘क्रांतिकारिता’ में चुनाव शायद कोरे राजनीतिक प्रचार से ज़्यादा मायने नहीं रखता है। यहां तक कि तब भी नहीं, जब उससे राजसत्ता के बुनियादी चरित्र का, जनतंत्र बनाम फासीवाद की तरह का प्रश्न जुड़ा चुका हो! इस प्रकार जनतांत्रिक प्रक्रियाओं के क्रियामूलक मर्म को आत्मसात् न कर पाने की वजह से ही वे चुनावी लड़ाई के मैदान में हमेशा एक उलझन भरी मानसिकता के साथ उतरते हैं और लड़ाई के अंत में ‘न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम’ वाली निराशा के साथ पूरी तरह से परास्त हो कर अपने शिविर में लौट आने की नियति को भोगते हुए पाए जाते हैं।

बिना मुख्य शत्रु को चिन्हित किए एक निर्णायक लड़ाई में उतरने की वजह से ही उनके लिए इस लड़ाई में दफ़्ती की तलवार भांजने के कोरे करतब दिखा कर लौट आने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता है! यह द्वंद्वहीनता पर टिकी ‘क्रांतिकारिता’ की एक सामान्य विडंबना है। इसीलिए मूलत: वाम-विरोधी ताक़तों को आप अक्सर वामपंथियों को उनके ‘क्रांतिकारी’ तेवर का परिचय देने के लिए उकसाते हुए देख सकते हैं।

पश्चिम बंगाल के इस बार के चुनाव में भी फिर एक बार ऐसे ही भ्रांत द्वंद्ववाद की कहानी को दोहरा कर लगता है, इस बार तो उसने पार्टी के अंत को ही सुनिश्चित कर दिया है। कह सकते हैं कि इस बार तो उसने बंगाल की राजनीति से अपने पूर्ण अपसारण की संभावनाओं को खोल दिया है। सांप्रदायिक फासीवाद विरोधी संघर्ष के नेतृत्व से अपने को अलग करके उसने जनता के जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की लड़ाई तक से अपने को काट लिया है और जनतांत्रिक राजनीति में भी अपने को अप्रासंगिक बनाया है। हमें समझ में नहीं आता, आगे वह अब कैसे फिर से खड़ी होगी!

जब बंगाल के चुनाव की घोषणा हुई थी और सीपीआईएम ने कांग्रेस के साथ समझौता किया था, तभी हमने अपने ब्लाग ‘चतुर्दिक’ पर 9 अक्तूबर के दिन एक टिप्पणी की थी- ‘बंगाल के चुनाव के संकेतों को पकड़ने का एक आधार’। उस टिप्पणी में हमने लिखा था कि ज़ाहिर है कि अब बंगाल के चुनाव का प्रारंभ त्रिकोणीय होगा, पर यह लड़ाई अंततः कौन सी दिशा पकड़ेगी, इसे जानने के लिए जरूरी है कि इससे जुड़े तमाम सांगठनिक विषयों के साथ ही लड़ाई के राजनीतिक-विचारधारात्मक आयामों को भी सूक्ष्मता से समझते हुए आगे के घटनाक्रम से पैदा होने वाले संकेतकों पर ध्यान रखा जाए।

इसमें हमने बंगाल में भाजपा के बलात् प्रवेश को एक सच्चाई कहा था, क्योंकि वह केंद्र में सत्ता पर है, बंगाल में उसने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी है और आज संविधान मात्र के विरोध की विचारधारा की प्रतिनिधि के रूप में वह जैसे पूरी जनतांत्रिक भारतीय राजनीति का प्रतिपक्ष पेश करती है।… उसकी तुलना में बाकी दोनों शक्तियां, तृणमूल और वाम-कांग्रेस इस मामले में कमोबेस एक ही वैचारिक आधार पर खड़ी हैं। भाजपा ने अपनी क़तार में तृणमूल के ही बदनाम और भ्रष्ट तत्त्वों को भर लिया है, इससे उसकी इस अलग पहचान पर कोई असर नहीं पड़ सकता है।

इसी तर्क पर हमारी राय थी कि किसी भी प्रकार के प्रचार के जरिए मतदाताओं के बीच तृणमूल और भाजपा को भी एक बताना कठिन होगा। इसमें भले भाजपा के साथ सरकार में शामिल होने का तृणमूल का पुराना इतिहास भी क्यों न दोहराया जाए। इसके अलावा, राज्य का शासक दल होने के नाते ही तृणमूल के लिए भाजपा-विरोधी लड़ाई के नेतृत्वकारी स्थान का दावा करना सुविधाजनक होगा।

हमने साफ़ लिखा था कि बंगाल में तृणमूल और वाम-कांग्रेस के बीच प्रतिद्वंद्विता में अब तक अनुपस्थित भाजपा ही सबसे निर्णायक कारक की भूमिका अदा करने वाली है। भाजपा यहां के राजनीतिक परिदृश्य में एक प्रकार की विकल्पहीनता की परिस्थिति पैदा करने वाली ताकत बन गई है। वह अपना जितने बड़े पैमाने पर प्रोजेक्शन करगी, उतना ही मतदाताओं के सामने उससे लड़ाई के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचेगा। और, यही वजह है कि अपने चुनाव प्रचार के दौरान यदि किसी भी चरण में वाम-कांग्रेस की नजर से भाजपा की चुनौती धुंधली हो जाती है और उनका ध्यान सिर्फ तृणमूल-विरोध पर टिका रह जाता है, तो इसमें कोई शक नहीं है कि संविधान की रक्षा और फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई में तृणमूल के लिए अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को स्थापित करना सबसे आसान हो जाएगा, वह बंगाल के धर्म-निरपेक्ष जनतांत्रिक मतदाताओं से वाम-कांग्रेस को दूर रखने में फिर एक बार सफल होगी।

अपनी उसी टिप्पणी में हमने मनोविश्लेषण के एक मूलभूत सूत्र का प्रयोग करते हुए लिखा था कि जैसे ही कोई व्यक्ति अपने उपस्थित रूप को छोड़ कर अपने मूलभूत चरित्र को अपना लेता है, पटरी पर लौट जाता है, तब उसका उपस्थित रूप इतना निरर्थक हो जाता है कि उसकी ओर इशारा करके कुछ भी हासिल नहीं हो सकता है। तृणमूल का अतीत कुछ भी क्यों न रहा हो, इस चुनाव में वह बंगाल के शासक दल के नाते नहीं, भारतीय राजनीति की एक धर्म-निरपेक्ष, संविधान-समर्थक ताकत के रूप में ही चुनाव लड़ेगी। इसीलिए उसके कभी भाजपा का संगी बनने का सच अब पूरी तरह से अप्रासंगिक हो जाता है।

इसी आधार पर वाम से हमारा कहना था कि इस प्रतिद्वंद्विता में तृणमूल को पीछे छोड़ने के लिए जरूरी होगा कि हर हाल में भाजपा-विरोधी लड़ाई की ताकत के रूप में उससे कहीं ज्यादा बड़ी लकीर खींची जाए। इसमें तृणमूल और भाजपा के बीच समानता दिखाने वाला नजरिया ज़रा भी कारगर नहीं होगा।

बहरहाल, पार्टियों के काम करने की पद्धति और किसी विश्लेषक के विचार में क्या कभी कोई मेल बैठा है, जो हमारी बातों से ही बैठता! पार्टी के काम पर ‘स्थानीयतावाद’ के दबावों से कभी कोई इंकार नहीं कर सकता है। इसे चुनावों का अपना ख़ास, भटकाने वाला डायनेमिक्स भी कहते हैं।

बहरहाल, बंगाल के चुनाव के बारे में सीपीआईएम की भ्रांत द्वंद्वात्मक समझ पर हमें फिर एक बार 16 जनवरी को अपने ब्लाग पर लिखने की ज़रूरत महसूस हुई, जब सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने कोलकाता में राज्य कमेटी को संबोधित करते हुए अपनी सैद्धांतिक समझ की रूपरेखा को पेश किया था। अपने लेख में बंगाल के चुनावी परिदृश्य की जटिलता को बताते हुए ही हमने यह भी लिखा था:
‘लेकिन कोई भी लड़ाई अंत तक त्रिमुखी नहीं रह सकती है। यह द्वंद्ववाद का अति साधारण नियम है। उसे अंततः द्विमुखी होना ही होता है।

भारतीय राजनीति का अभी मुख्य अन्तरविरोध धर्म-निरपेक्षता और सांप्रदायिकता के बीच, जनतंत्र और फासीवाद के बीच है। पूरा उत्तर भारत इसका प्रमुख रणक्षेत्र है और बंगाल की अपनी सारी विशिष्टताओं के बावजूद उसकी भौगोलिकता ही उसे उत्तर भारत से जोड़ती है। उत्तर भारत की शीत लहरों के असर को बंगाल में प्रवेश से रोकने वाली कोई विंध्य पर्वतमाला की बाधा नहीं है। अर्थात् भारत की राजनीति के मुख्य अन्तरविरोध को बंगाल की राजनीति के भी मुख्य अन्तरविरोध का रूप लेने में कहीं से कोई बाधा नहीं है।

… अभी तक इस लड़ाई में साफ तौर पर तीन ताकतें हैं पर आगे के दिनों के पूरे घटनाक्रम से उसे क्रमशः दो के बीच की लड़ाई में बदलना है; अर्थात् धर्म-निरपेक्ष समुच्चय के अंतरविरोधों में से एक का पृष्ठभूमि में अन्तर्धान हो जाना है। …परिस्थिति की यही तरलता इस लड़ाई को अभी तक एक कठिन पहेली बनाए हुए है।’

यहीं पर हमने कामरेड सीताराम येचुरी के राज्य कमेटी को दिये गए पार्टी की चुनावी रणनीति के बारे में संबोधन के विषय को उठाते हुए कहा था कि वे कहते हैं कि राज्य में तृणमूल को हरा कर ही बीजेपी को हराया जा सकता है। इस पर हमारी टिप्पणी थी कि लगता है जैसे कहीं न कहीं वे इस लड़ाई को अंत तक त्रिमुखी ही रहते हुए देख रहे हैं। वे दो के बीच नहीं, तीन के बीच लड़ाई की ही अंत तक के लिए कल्पना किए हुए हैं।

तभी हमने लिखा था कि द्वंद्ववाद के नियम के अनुसार यह एक तार्किक असंभवता, logical impossibility है । इसके लिए बांग्ला में एक बहुत सुंदर मुहावरा है- सोनार पाथर बाटी (सोने का बना हुआ पत्थर का कटोरा)। महान मनोविश्लेषक जॉक लकान इसे एक वृत्ताकार चौकोर (circular square) की कल्पना कहते हैं। लकान अपने संकेतक सिद्धांत में, जिससे विश्लेषण में संकेतकों के पीछे चलने वाले प्रमाता (subject) की गति का संधान पाया जाता है, कहते हैं कि प्रमाता के सामने सिर्फ दो नहीं, तीन विरोधी दिशाओं के संकेतक भी हो सकते हैं, लेकिन विश्लेषण को सार्थक बनाने का तकाजा है कि उनमें से सिर्फ दो विरोधी दिशाओं के संकेतकों को पकड़ कर ही चला जाता है। जैसे ही उसमें कोई तीसरा संकेतक शामिल होता है, प्रमाता की गति का नक्शा वृत्ताकार रूप ले लेता है, अर्थात् विश्लेषण जो प्रमाता की गति को दिशान्वित करता है, किसी भी दिशा में बढ़ा नहीं पाता है, वह गोल-गोल घूमता हुआ अपने में ही फंसा रह जाता है। इसमें विश्लेषण जब पहले संकेतक से निकल कर दूसरे की ओर बढ़ता है, तब तीसरे के रहते प्रमाता उसकी ओर फिसल कर पुनः पहले की ओर आ जाता है। वह तीसरे से दूसरे की ओर से होता हुआ सरल रेखा में नहीं लौटता है।

इसी सूत्र के आधार पर हमने कहा था कि ऐसे में जब मतदाता परिस्थिति के विश्लेषण में तृणमूल से असंतोष से जैसे ही वाम के समर्थन की ओर बढ़ेगा, वह सामने मौजूद भाजपा की ओर भी फिसलेगा और वहां से पुनः लौट कर तृणमूल की ओर आ जाएगा। इस प्रकार, उसका सारा विश्लेषण उहा-पोह में फंस कर रह जाएगा। तब प्रमाता की गति को कोई दिशा नहीं मिलेगी, विश्लेषण विफल होगा, वह मतदाता की गति को कोई निश्चित दिशा के लिहाज से निर्रथक साबित होगा। कथित ‘चुनावी डायनेमिक्स’ का यह भी एक रूप है।

इसीलिए हमारी राय थी रणनीतिमूलक किसी भी राजनीतिक विश्लेषण के लिए जरूरी होता है कि वह किसी भी उलझन भरी स्थिति को साफ करने के लिए ही लड़ाई के त्रिमुखी स्वरूप के बजाय उसे दो के बीच के द्वंद्व के रूप में देखे। अर्थात् मुख्य शत्रु की पहचान पर अपने को केंद्रित करे।

भाजपा इस मामले में बिल्कुल साफ थी। वह इस लड़ाई में से वाम को अलग करके इसे सीधे तृणमूल बनाम भाजपा के बीच की लड़ाई के रूप में देखती थी और इस मामले में वाम के अति-मुखर तृणमूल-विरोध को अपने लिये सहयोगी मानती थी। इसी प्रकार तृणमूल भी वाम को इस लड़ाई से अलग करके पूरी लड़ाई को सीधे तृणमूल बनाम भाजपा का रूप दे रही थी। कहा जा सकता है कि भाजपा और तृणमूल द्वंद्वात्मकता के शुद्ध सूत्र के अनुसार काम कर रहे हैं, लेकिन वाम इस निर्णायक लड़ाई के वक्त भी धर्म-निरपेक्ष ताकतों के समुच्चय में अपने वर्चस्व को बनाने की फ़िराक़ में लगा रह गया और कहना न होगा, इस पूरी लड़ाई से ही ख़ास तौर पर बाहर हो गया। यदि उसने एकाग्र चित्त हो कर अपने को प्रमुख शत्रु भाजपा पर ही केंद्रित किया होता तो आज वह जिस विचारधारात्मक नि:स्वता के सांगठनिक ढांचे की नियति को भुगतने के लिए मजबूर है, वैसा नहीं हुआ होता।

अब वाम के लिए सिवाय अपने कथित नौजवान उम्मीदवारों की उपलब्धि अर्थात् आत्म-मुग्धता में जीने के अलावा दूसरा कोई विकल्प बचा हुआ दिखाई नहीं पड़ता है। पर उसकी इस दशा से वास्तविक मुक्ति अपने वर्तमान असमर्थ नेतृत्व को हमेशा के लिए विदा करके ही संभव होगी, क्योंकि उसकी अक्षमता एक स्वत: प्रमाणित सत्य का रूप ले चुकी है। बंगाल के इस चुनाव में तो उसकी दशा फ्रायडीय मृत्यु प्रेरणा (death instinct) के दुश्चक्र में में चले गए अवसादग्रस्त व्यक्ति की तरह की हो गई थी। वह चुनावी संघर्ष को ‘बीजेमूल’ की तरह के चमत्कारी पदबंधों के प्रयोग के बचकानेपन से जीतना चाहता था!

(अरुण माहेश्वरी लेखक, स्तंभकार और चिंतक हैं। वह कलकत्ता में रहते हैं।)

अरुण माहेश्वरी
Published by
अरुण माहेश्वरी