उच्च शिक्षा पर साम्राज्यवादियों की डाकाजनी

5 जनवरी को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अध्यक्ष जगदेश कुमार ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक मसौदा पेश किया। यह मसौदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति  2020 के तहत आता है। इस मसौदे के अनुसार, अब विदेशी विश्वविद्यालय भारत में अपने कैम्पस स्थापित कर सकते हैं जिसके तहत दाखिले की प्रक्रिया, फीस संरचना और उससे प्राप्त होने वाला फ़ंड अपने देश में ले जाने की सम्पूर्ण आज़ादी होगी। इन कैम्पसों के अंतर्गत शिक्षा ऑफलाइन ही होगी ऑनलाइन नहीं।

इन कैम्पसों को अपने शिक्षकों और दूसरे कर्मचारियों को भारत और विदेश दोनों जगह से भर्ती करने की पूरी आज़ादी होगी। इन कैम्पसों को शुरुआत में दस साल के लिए मंजूरी मिलेगी, उसके बाद इनको नवीनीकरण करना पड़ेगा। ये विदेशी कैम्पस मुख्य तौर पर शहरी डिज़ाइन(urban design) और फ़ैशन डिज़ाइन की पढ़ाई कराएंगे। ये कैम्पस यूजीसी के अंतर्गत काम करेंगे लेकिन गुजरात की गिफ्ट सिटि में ऐसे विदेशी कैम्पस बन चुके हैं जो यूजीसी के नियम और कानून से बाहर हैं और आत्मनिर्भर तौर पर काम करते हैं। 

शिक्षा योजना और प्रशासन के राष्ट्रीय संस्थान द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार अभी 8 विदेशी विश्वविद्यालयों ने भारत में अंतर्राष्ट्रीय कैम्पस बनाने की इच्छा ज़ाहिर की है, जिन 8 में से: 5 अमरीका के है, 1 ब्रिटेन से है, 1 ऑस्ट्रेलिया से है, तथा 1 कनाडा से है। 

सरकार के अनुसार ये विदेशी कैम्पस बनने से, उच्च शिक्षा पाने वाले छात्रों की विश्व स्तर की शिक्षा तक पहुँच बन जाएगी। जानकारी के लिए बता दें, कि अभी भारत के 4.5 लाख छात्र विदेशी शिक्षा पाने बाहर जाते हैं तथा 2022 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की कुल संख्या भारत में 4 करोड़ है। 

उपरोक्त मसौदे का एक सरसरी विश्लेषण किया जाए तो सामने आने वाला सच कुछ और ही बताता है। यूजीसी के मसौदे के अनुसार ये अमरीकी और यूरोपियन विश्वविद्यालय भारत में अपने कैम्पस स्थापित करने के लिए पूर्णत: आज़ाद हो गए हैं, ये अपना करिक्यूलम खुद तय करेंगे जिसका मतलब है कि वे अपनी आर्थिक और विचारधारात्मक ज़रूरत के हिसाब से यहाँ के छात्रों को औपिनिवेशिक दिमाग (colonized mind) वाला छात्र बनाएँगे। ये विदेशी विश्वविद्यालय अपने कैम्पस की फीस तय करने के लिए आज़ाद रहेंगे यानी वे बेतहाशा फीस वसूली करेंगे। क्योंकि खुद अमरीका के तथ्य बताते हैं कि वहाँ के गरीब छात्रों पर 4 ट्रिलियन डॉलर का शिक्षा ऋण है। ज़ाहिर सी बात है, जो अपने देश के छात्रों को सस्ती शिक्षा नहीं दे पाये, वो हमारे देश में उपकार करने नहीं आ रहे हैं।

इसी मसौदे में यह भी स्पष्ट है कि, वे अपने शिक्षकों और दूसरे स्टाफ की भर्ती भारत या दूसरे देशों से करने के लिए आज़ाद हैं। हाल ही में, अमेरिका में पिछले 40 सालों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है, मंहगाई आसमान छू रही है। तो ज़ाहिर है कि वे अपनी बेरोजगारी घटायेंगे और अपने लोगों को भर्ती करेंगे। सबसे खतरनाक बात यह है कि भारत से होने वाली सारी कमाई वे अपने देश में ले जाने के लिए पूरी तरह से आज़ाद रहेंगे। जिसका मतलब यह है कि भारत की संपत्ति खींचकर अमरीका पहुँच जाएगी।

यह संपत्ति डॉलर के रूप में जाएगी जिसका भुगतान भारत सरकार को अपने फ़ॉरेन रिजर्व एक्स्चेंज से करना पड़ेगा और डॉलर की इस घटोत्तरी का असर सीधा हमारी (करेंसी) मुद्रा पर पड़ेगा जो पहले ही डॉलर की अपेक्षा 82 रुपया पर पहुँच चुकी है। मुद्रा में यह गिरावट सीधे मंहगाई बढ़ाती है जो आम लोगों के खान-पान को बुरी तरह प्रभावित करती है। 

थोड़े में अगर कहें तो ये देश की आज़ादी और संप्रभुता का हनन है। यह मसौदा राष्ट्र विरोधी और जनविरोधी है तथा साम्राज्यवाद हितैषी है।  

इस वर्तमान गुलामी को समझने के लिए हमको आज़ादी के पहले के इतिहास पर नज़र डालनी ज़रूरी है। क्योंकि अभी आज़ादी मिले हम लोगों को 75 साल ही हुए हैं। इसलिए हम मानते हैं कि हमारा देश अभी उस गुलामी को भूला नहीं है। ईस्ट इंडिया कंपनी इस देश में व्यापारी के रूप में आई थी। ये सब जानते हैं कि उसका मकसद पूरे देश पर कब्जा करने का था, जो उसने किया। कब्जा करके उसने हमारे देश के प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों का नृसंश दोहन किया और अपने देश की तरक्की को परवान चढ़ाया। मोटे-मोटे हिसाब से 45 ट्रिलियन यूरो यहाँ से लूट कर ले गए।

लाखों-लाख लोगों को कंगाली और अकाल के मुंह में धकेल दिया। इसी अत्याचारपूर्ण शोषणकारी अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए उन्होंने अपनी शिक्षा नीति बनाई। जिसको हम 1835 की मैकाले की शिक्षा नीति के नाम से जानते हैं। जिसका एक ही मकसद था कि उनके लिए अँग्रेजी बोलने वाले कुछ क्लर्क पैदा कर दें। जो उनके कामों को सुविधापूर्वक कर सके। दूसरा मैकाले के शब्दो मे “ऐसे इंसान तैयार करना जो शरीर से तो भारतीय हो लेकिन दिमाग से ब्रिटिश हो” यानि औपनिवेशिक दिमागी गुलामी (colonized mind)। जो उनके साम्राज्यवाद के मददगार और आधार बने। 

ऐतिहासिक समझ बताती है कि, आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था के अनुसार ही किसी देश की शैक्षिक व्यवस्था होती है। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को हम इसी रोशनी मे देख सकते हैं। जिसके लिए हम अपनी वर्तमान आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था पर एक निगाह डालेंगे।  

आज हमारे देश की राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था में जी7 की नीतियों के अनुसार संरचनागत सुधारों को लागू किया जा रहा है। ये संरचनागत सुधार अर्थव्यवस्था, राजनीति, सामरिक, मनोवैज्ञानिक और शिक्षा सभी क्षेत्रों में हो रहे हैं। भारत सरकार ने “उद्यमों और सेवा केन्द्र का विकास”, इन्नोवेशन परिसर, आंध्र प्रदेश में टी-हब (केन्द्र ) 2.0 का निर्माण जो दुनिया का विशाल औद्योगिक केन्द्र है। श्रम कानून बदलकर 4 औद्योगिक संबंध कोड बनाना। महिंद्रा और महिंद्रा इलेक्ट्रॉनिक वाहन में 70,000 करोड़ रूपये निवेश करेगी जिसमें 125 करोड़ रूपये ब्रिटिश अंतर्राष्ट्रीय निवेश होगा, जापान की कंपनी रेनेशा और टाटा मोटर्स सेमिकंडक्टर चिप बनाएगी, नवीनतम और अक्षय ऊर्जा मंत्रालय तथा अंतर्राष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा एजेंसी समझौता कर चुके हैं, दक्षिण कोरिया की कंपनी एलजी ऊर्जा सोल्यूशन भारत में 13000 करोड़ रूपये का निवेश करेगी।

संयुक्त अरब अमीरात फूड कोर्ट में बिलियनों डॉलर निवेश करेगा तथा अडानी वहाँ के हाफिया बन्दरगाह में निवेश करेंगे। भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार सबके विकास के लिए संरचनागत सुधार जरूरी है। वित्तीय, बैंक, बीमा, शोध और विकास तथा अन्य सेवाओं में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश दूसरे सभी क्षेत्रों से ज्यादा है जिसमें वित्तीय सेवा क्षेत्र 152 समझौतो के तहत 7.3 बिलियन डॉलर है तथा ई-कॉमर्स 101 समझौतों के तहत 4.2 बिलियन डॉलर है।2014 से अब तक 4 ट्रिलियन डॉलर का विनिवेश यानी सरकारी संपत्ति बेची जा चुकी है। रूपये की कीमत गिरती जा रही है। उत्पादन का वितरण पहले ही अमेज़न और वालमार्ट जैसी कुख्यात कंपनियों के हाथ में जा चुका है तथा संचार के साधनों पर फेसबुक, व्हाट्सएप और ट्विटर का कब्जा है।

रक्षा मंत्रालय ने अपनी धरती पर अतिक्रमण रोकने के लिए कृत्रिम इंटेलिजेंस, उपग्रह से फोटो लेना शुरू किया है। जो सूचनाएं अमरीका तथा दूसरे जी7 देशों के साथ साझा की जाएंगी। इससे पहले भी रक्षा क्षेत्र में अमरीका के साथ कई महत्त्वपूर्ण समझौते हो चुके हैं। जिनमें बीका (बुनियादी विनिमय और सहयोग ), लिमोआ (रसद विनिमय और ज्ञापन ) तथा कोमकासा (संचार अनुकूलता और सुरक्षा समझौता )। नीति आयोग ने ग्रीन हाइड्रोजन में शोध और विकास के लिए 1 बिलियन डॉलर के निवेश का एलान कर दिया। खेती में सींगेनता जैसी डिजिटल बहुराष्ट्रीय कंपनी अपने कदम रख चुकी है। 

उपरोक्त साम्राज्यवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को चलाने के लिए ही नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनी है जिसके तहत  यूजीसी द्वारा लिया गया यह निर्णय है। जिसकी वजह से शिक्षा में शत्रु-सहयोगी (collaboration ) समझौते अमरीका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया आदि देशों के साथ रोज़ हो रहे हैं। 

इन समझौतों से किसको लाभ हो रहा है? यह पानी की तरह साफ है कि इन नव उदारवादी नीतियों से सिर्फ और सिर्फ देशी-विदेशी पूंजीपतियों को लाभ हो रहा है। बाकी जनता गुलामी का जीवन जी रही है और जिएगी। इन नीतियों ने आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और शैक्षणिक तमाम ढांचा बदलकर एकदम नया बना दिया है। जिसमें सब कुछ बाज़ार के लिए है और राज्य-मशीनरी की भूमिका नगण्य है।

इस इंसान विरोधी, समाज विरोधी और प्रकृति विरोधी अंजाम के पीछे 1990 की नव उदारवादी नीतियां हैं। जिसका मतलब है: निजीकरण, वैश्वीकरण और उदारीकरण। जिनका जी7 के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन संचालन करते हैं। इसको ये ऋण के जरिये, प्रत्यक्ष विदेश निवेश (FDI), विदेशी पोर्टफोलियो निवेश, इक्विटी और सिक्योरिटी निवेश आदि के जरिये तीसरी दुनिया पर थोपते हैं। इन्हीं नीतियों पर 1990 में भारतीय शासक-शोषक पूंजीपतियों ने हस्ताक्षर किए थे। 

इस नयी गुलामी, राष्ट्र विरोधी और जन विरोधी-नयी शिक्षा नीति के खिलाफ हमें अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए। देश के छात्रों, नौजवानों, तरक्की पसंद बुद्धिजीवियों, गरीब किसानों, और मजदूरों को एक जुट और संगठित होकर इस नवउदारवादी-साम्राज्यवादी निज़ाम के खिलाफ संघर्ष करना चाहिए।

Janchowk
Published by
Janchowk