योगेंद्र यादव का लेख: जब फिलिस्तीन पर हमारी कल्पना की उलटी दूरबीन सीधी हो जाएगी तो सच दिखने लगेगा

एक औसत भारतीय के लिए गाजा बस सिर्फ एक नाम है। जमीन की पट्टी नहीं, बस टी.वी. स्क्रीन की एक छोटी-सी पट्टी है। जैसे कारगिल या कच्छ। उसके लिए इजराइल एक देश का नहीं बल्कि एक द्वेष का नाम है, एक ऐसी जगह जहां से बस हिंसा और झगड़े की खबर आती है। वह न यहूदियों के बारे में कुछ जानता है और न ही फिलिस्तीनियों के बारे में। वह यहूदियों और ईसाइयों में भेद नहीं कर सकता। वह मुसलमान और गैर-मुसलमान के चश्मे से इस मसले को देखता है। सच यह है कि अगर इस मसले में मुसलमान न दिखता तो इजराइल में आग लगने की भी खबर हमारे टी.वी. पर न आती।

जब दिमाग खाली हो और मन भरा हुआ हो तो विचित्र छवियों का निर्माण होता है। कल्पना की दूरबीन से इजराइल और फिलिस्तीन मुद्दे को देखने का यही परिणाम होता है। एक पक्ष मुस्लिम विरोध के चलते इजराइल के पक्ष में झूठी सहानुभूति जताता है तो दूसरा मुसलमान से हमदर्दी के चलते फिलिस्तीनियों के साथ खड़ा हो जाता है।

दूरबीन से टी.वी. के पर्दे पर खेले जाने वाले इस वीडियो गेम का न तो ऐतिहासिक तथ्यों से कुछ संबंध है, न ही आज के सच से, लेकिन यह खेल महज एक खेल नहीं है यह हमारे दिलो-दिमाग में गहरी नफरत भर देता है। दूर देश में इंसानों के जीवन से खेले जा रहे एक खौफनाक खेल में हम अनजाने ही शामिल हो जाते हैं। खून के कुछ छींटे हमारे ऊपर भी आ गिरते हैं।

कल्पना के इस खौफनाक खेल का मुकाबला सिर्फ इतिहास और तथ्यों से नहीं किया जा सकता। उसके लिए एक औसत भारतीय के पास समय और धीरज नहीं है।  इस गुमराह करने वाली कल्पना के मुकाबले में एक नई कल्पना को विकसित करना होगा।

शुरूआत करते हैं एक देश की कल्पना से जो आकार में हरियाणा से आधा हो लेकिन आबादी में हरियाणा का एक-तिहाई। जी, बस इतना ही है इजराइल जिसमें कोई 90 लाख लोग बसते हैं जिनमें से 70 लाख यहूदी हैं और कोई 20 लाख अरब।

गाजा पट्टी सिर्फ 10 कि.मी. चौड़ी और 35 कि.मी. लंबी जमीन है, बस दिल्ली शहर का एक-तिहाई टुकड़ा। वहां कोई 20 लाख लोग बसते हैं। जरा सोचिए अगर इतने छोटे-से प्रदेश पर पूरी दुनिया के तख्त अपना खेल खेलना शुरू कर दें तो उसकी क्या गत बनेगी?

कल्पना की दूरबीन को अब जरा बिहार की तरफ घुमाइए, गौतम के बुद्ध बनने की धरती बोधगया की तरफ। अब जरा कल्पना कीजिए कि जापान और तिब्बत से विदेशी अगर आकर यह दावा ठोकें कि बोधगया हमारा पवित्र स्थल है और इस पर हिंदुओं को रहने का कोई अधिकार नहीं है। कल्पना कीजिए कि अगर वह बाहरी ताकतों के दम पर दलबल सहित पहुंच जाएं और धार्मिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आधार पर बोधगया पर कब्जा कर ले, तो हमें कैसा लगेगा?

अगर आपको यह एक क्रूर मजाक लग रहा है तो समझ लीजिए कि यही फिलिस्तीनियों की सच्चाई है। बेशक यरूशलम यहूदियों का पवित्र स्थल है लेकिन वहां उनकी बसाहट नहीं थी। सैंकड़ों साल से वहां फिलिस्तीनी लोग बसे हुए थे।

20वीं सदी में यहूदियों के साथ यूरोप में अत्याचार करने के बाद अपराध बोध से ग्रस्त यूरोपीय ताकतों ने यहूदी झंझट से छुट्टी पाने के लिए उन्हें जबरदस्ती उस इलाके में जाकर बसा दिया जिससे उनका कोई जीवंत संबंध नहीं बचा था।

साम्राज्यवादी बंदूक के बल पर फिलिस्तीनियों की छाती पर यहूदियों को ले जाकर बसा दिया गया, उनकी मातृभूमि पर किसी और का देश बना दिया गया। सदियों से बसे हुए फिलिस्तीनी अपने ही पुरखों की जमीन पर किराएदार बन गए। अत्याचार के शिकार यहूदी अब फिलिस्तीनियों के लिए अत्याचारी बन गए।

कल्पना कीजिए कि अगर ऐसा कुछ बिहार में हो जाए तो क्या कुछ होगा? वहां के मूल निवासी इन बाहरी शासकों का कैसे स्वागत करेंगे? कैसा संबंध बनेगा मूल निवासियों और आप्रवासियों के बीच? यह काल्पनिक उदाहरण आपको इजराइल में यहूदियों और फिलिस्तीनियों के संबंध को समझने में मदद करेगा। जरा सोचिए कि जिन बाहरी लोगों को दुनिया की तमाम ताकतों का समर्थन हो उसके खिलाफ मूल निवासी कैसा प्रतिरोध करेंगे?

यह सवाल आपको फिलिस्तीनियों की राजनीति समझने में मदद करेगा। उस स्थिति में बाहरी आप्रवासियों के साथ शांतिमय तरीके से जीने की वकालत करने वालों की क्या स्थिति होगी? यह विचार आपको यासिर अराफात की स्थिति समझने में मदद करेगा। क्या ऐसे में हिंसक विरोध की मांग नहीं उठेगी? आतंकवाद नहीं पनपेगा? यह सोच हमें हमास जैसे संगठनों के उद्गम को समझने में मदद करेगी। इस कल्पना से हमास की हिंसा, बर्बरता और आतंकवाद जायज नहीं हो जाएगा, मगर इतना समझ आने लगेगा कि इस आतंकवाद की जड़ें कहां हैं।

जब फिलिस्तीन के मुद्दे पर हमारी कल्पना की उलटी दूरबीन सीधी हो जाएगी तो हमें सच दिखने लगेगा, जैसा महात्मा गांधी को दिखता था। उन्होंने 26 नवंबर 1938 को ‘हरिजन’ में लिखा था, ‘‘फिलिस्तीन उसी तरह अरबों का है, जिस तरह इंगलैंड अंग्रेजों का या फ्रांस फ्रांसीसियों का है।’’ तब हमें यह समझ आने लगेगा कि गांधी आज की स्थिति पर क्या कहते।

हमास की आतंकी हिंसा की जितनी भर्त्सना की जाए कम है। इजराइल ने फिलिस्तीनियों के साथ जो भी ज्यादती की हो, यह हमास की बर्बरता को जायज नहीं ठहरा सकता। इसके जवाब में इजराइल जो गाजा पट्टी में कर रहा है, वह तो नरसंहार है। इसे किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। एक उग्रवादी संगठन के आतंकी हमले की हिंसा और दुनिया की ताकतों के समर्थन से किए फौजी हमले के नरसंहार को वही व्यक्ति एक बराबर मान सकता है जिसकी आत्मा मर चुकी हो।

 (स्वराज इंडिया के नेता और राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव का लेख, साभार- पंजाब केसरी।)

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