वेंटिलेटर पर पड़ी अर्थव्यवस्था को चाहिए जनता का खून

मजदूर शहर में वापस आ रहे हैं। राज्य अंतर्राज्यीय आवाजाही में क्वारंटाइन करने की अनिवार्यता खत्म कर रहे हैं जिससे कि उनकी वापसी और आर्थिक गतिविधियां शुरू हो सकें। जबकि कोविड-19 से पीड़ितों की संख्या 60,000 प्रतिदिन से अधिक होता जा रहा है। मौत की संख्या हजार का आंकड़ा छूने के लिए बेचैन है। स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली आज कोई छुपी बात नहीं रह गई है। बीमारी की बाढ़ में अब मानसून की बाढ़ भी जुड़ गयी है। ऐसे में गांवों में काम का संकट पहले से बढ़ गया है। महामारी की मार बेरोजगारी की एक आवर्ती संकट पैदा कर रही है।

खेती, जिस पर पहले से ही दबाव है, महामारी के अतिरिक्त दबाव से निपटने के लिए मनरेगा-नरेगा जैसे कार्यक्रम दिये गये। लेकिन स्थिति में सुधार नहीं हुआ है। रोजगार का दबाव गांव के स्तर पर सबसे अधिक महिलाओं पर हुआ है। वैसे तो अंतर्राष्ट्रीय श्रम संघ महामारी की वजह से महिलाओं के रोजगार पर आम संकट आने का अनुमान पहले ही दिया था, ‘‘इससे महिला मजदूरों की नौकरियां पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक तेजी से खत्म हो रही हैं। महामारी की आपदा से सबसे अधिक प्रभावित रहने वाले आर्थिक क्षेत्रों पर्यटन, कपड़ा उद्योग और घरेलू काम में महिलाएं सबसे अधिक काम करती हैं।’’ (22 अगस्त, बिजनेस स्टैंडर्ड।) 

24 अगस्त, 2020 को इंडियन एक्सप्रेस ने नरेगा के पोर्टल के आंकड़ों के आधार पर जो रिपोर्ट छपी वह आईएलओ के गिने क्षेत्र से बाहर गांव का विवरण पेश करता है। इसके रिपोर्टर हरि कृष्ण शर्मा के अनुसार नरेगा के कुल मजदूर 13.34 करोड़ हैं जिसमें से 6.58 करोड़ महिला मजदूर हैं जो कुल का 49 प्रतिशत बैठता है। 2013-14 के आंकड़ों में देखें तब महिलाओं की भागीदारी 52.82 थी और 2016 में 56.16 प्रतिशत। पोर्टल पर इसका कारण नहीं बताया गया है।

लेकिन यह बात साफ है कि प्रवासी मजदूरों की बड़ी संख्या पुरुषों की है जिनके आने से काम में उनकी भागीदारी बढ़ गई। इस रिपोर्ट के अनुसार 18 राज्यों में यह गिरावट देखी जा सकती है। 14 राज्यों में नाम मात्र की बढ़ोत्तरी भी है। सबसे अधिक गिरावट पश्चिमी बंगाल, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश में है। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, हरियाणा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य महिला रोजगार में आई कमी वाले प्रदेश हैं। केरल में सबसे अधिक महिलाओं की रोजगार में भागीदारी है।

सीएमआई की रिपोर्ट के अनुसार अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगार पहले से बेहतर हुआ है लेकिन आय भी बढ़ा हो, यह कहना मुश्किल है। दूसरी ओर, मध्यवर्ग को जो नौकरियां मिली हुई थीं वह जा रही हैं। यह संख्या अनुमानतः 50 लाख है, और आने वाले समय में यह एक करोड़ हो सकती है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संघ के अनुसार बेरोजगारी दर 32.7 प्रतिशत हो चुकी है जो इसी साल के अप्रैल महीने में किये गए अनुमान से लगभग 5 प्रतिशत अधिक है। एशियन डेवलपमेंट बैंक और आईएलओ की रिपोर्ट के अनुसार 15-24 साल की उम्र वाले 60.1 लाख लोग आने वाले दिनों में नौकरियां खो देंगे।

भारत में इस बेरोजगारी और तबाही से 40 करोड़ लोग गरीबी की ओर धकेल दिये जाएंगे। भूख से मरने वालों की खबर आने लगी है। और उसका सरकारी खंडन भी। लेकिन परिवार में सबसे अधिक परेशानी महिलाओं और बच्चियों को उठाना तय होता है। ग़रीबी न सिर्फ परिवार को टूटन और बिखराव की तरफ ले जाती है, बल्कि आत्महत्याओं की दर को बढ़ा देती है। यह सामाजिक तनाव और उन बीमारियों की ओर ले जाती है जो भूख से पैदा होती हैं।

रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव ने अर्थव्यवस्था की ‘नई कोपलें’ के नजरिये को चेतावनी देते हुए 23 अगस्त, 2020 को पीटीआई से बातचीत में कहा कि इस पर अनावश्यक जोर न दें। ‘‘आप जिन नई कोंपलों की बात कर रहे हैं उस पर अनावश्यक जोर देने पर मैं भरोसा नहीं करता। जो हम अभी देख रहे हैं वह महज एक लाॅक डाउन से आने वाला स्वतः आवर्ती पक्ष है।

इसके बने रहने वाली चीज की तरह देखना गलती की ओर जाना होगा।’’ उन्होंने चेताया कि ‘‘भारतीय अर्थव्यवस्था में छोटी अवधि के साथ-साथ मध्यम अवधि का संकट बना रहेगा।’’ वह कहते हैं, ‘‘महामारी के तहत मरीजों की संख्या में आवर्ती वृद्धि हो रही है और यह नये इलाकों में फैलती जा रही है।’’ ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह घोषणा कि अर्थव्यवस्था में ‘नई कोंपलें’ दिखने लगी हैं, सिर्फ सच्चाई से मुंह मोड़ लेना होगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था जो 2008 के बाद एक बार फिर मंदी में फंस चुकी थी, महामारी की मार से जूझ रही है। आज जिस अरुण जेटली को इतनी शिद्दत से याद किया जाता है, वह वित्तीय सुधार की जिस नीति की ओर ले गये वह बैंकों का निजीकरण, रिजर्व बैंक के खातों का उपयोग, कर वसूली की एक ऐसी व्यवस्था बन चुका है जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती और उद्योग तेजी से बिना सुरक्षा नीति के बाजार में फेंके जा रहे हैं। मसलन खेती उत्पाद का मूल्य खुद किसान तय करेंगे, सार्वजनिक उद्योग को निजी हाथों में बेचना, रेलवे के संचालन को निजी हाथों में सौंपना, सामरिक क्षेत्र से जुड़े उद्यमों का निजीकरण, एसईजेड के नाम पर लाखों एकड़ जमीन का अधिग्रहण, प्राकृतिक वन और नदी क्षेत्र पर मनमानी करने की छूट, आदि।

भारत में पहले ही औद्योगीकरण अनौपचारिक विकास नीति का शिकार बनकर अपार गरीबी में डूबा हुआ है। वित्तीय सुधार हमें किस ओर ले जाएगा। मुझे ज्यार्जी दमित्रोव का वह सूत्रीकरण याद आ रहा हैः फासीवाद वित्तीय साम्राज्यवाद, चरम प्रतिक्रियावाद और चरम अंधराष्ट्रवाद की खुली तानाशाही का एक रूप है’। भारत में यह वित्तीय सुधार कांग्रेस के दौरान भी था और आज भाजपा के राज में खुलेआम चल ही रहा है।

दोनों पार्टियां आज एक दूसरे की नीति और इतिहास की तुलना कर रही हैं तो दूसरी तरफ बहुत से बुद्धिजीवी दोनों का तुलनात्मक अध्ययन पेश करने में लगे हुए हैं। लेकिन इतना साफ है यह सुधार भारत को ‘विश्वगुरू’ बनाने के लिए ही है। यह ‘आत्मनिर्भरता’ विश्व बाजार के लिए है और उसी का हिस्सा है। यह हिस्सा और हिस्सेदारी पूंजीपतियों और सरकार में बैठे प्रबंधकों के बीच चलने वाली एक ऐसी गुप्त प्रक्रिया है जिसे हम सिर्फ परिणाम की तरह देखने और भुगतने के लिए अभिशप्त हैं।

बहरहाल वित्तीय सुधार पूंजीपतियों द्वारा आय को हड़प जाने और बिना उत्पादन के मुनाफे को बढ़ा लेने की एक नीति होती है और यह काम वह हमेशा ही राष्ट्र के नाम पर करते हैं। भारत में यह थोड़ा और भी भोंडे ढंग से होता है। मसलन नोट बंदी जो देशभक्ति के साथ आई और जीएसटी नई आज़ादी के नारे के साथ। लेकिन यह था देश की आम जनता पर एक गहरे मार की तरह। इस तकलीफ में नींद के लिए नशा जरूरी बना दिया गया है। हमारे पास रोजगार न हो, मीडिया है और वह अफीम का नशा भी जिसे मार्क्स ने धर्म कहा था, इसे फेसबुक भी कह सकते हैं… और राष्ट्रवाद भी।

(अंजनी कुमार लेखक और एक्टिविस्ट हैं।)

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