तिरंगे की कमी को भगवा से पूरने की कोशिश और उससे आगे!

वर्ष में दो दिन- स्वतंत्रता दिवस, 15 अगस्त और गणतंत्र दिवस, 26 जनवरी- ऐसे होते हैं जब देश में जैसे तिरंगे की बहार आ जाती है। दफ्तरों में, सडकों पर, दुकानों में, घरों पर, स्कूली बच्चों के हाथों में, बाइक से लेकर गाड़ियों तक जहां देखो वहां राष्ट्रीय झंडा ही दिखाई देता है। पूरे दिन भर लाउडस्पीकर से उसकी गाथा गाने वाले गीत बजते रहते हैं।

लेकिन इस बार की 26 जनवरी को ऐसा कुछ नहीं दिखा। तिरंगे या तो गायब थे या फिर चार दिन पहले युद्धस्तर पर हर जगह टांगे, लटकाए भगवा ध्वजों के बीच इक्का दुक्का सहमे दुबके से दिखाई दे रहे थे। ध्यान देने की जरूरत है कि इस बार का 26 जनवरी 75वां गणतंत्र दिवस था और उसी दिन से ही उसका वह साल शुरू हो रहा था जिसे अमृत महोत्सव का साल कहा जाता है। 

किसी भी देश में ऐसे अवसर कुछ ज्यादा ही धूमधाम और उत्सवी समारोहों के साथ मनाये जाते हैं।  उत्सव धर्मी, समारोह प्रेमी और इवेंट-आश्रित मोदी सरकार के अब तक के रिकॉर्ड के हिसाब से तो, भले उनकी तस्वीरों के साथ ही होता, मगर कुछ बड़ा तो होना ही चाहिए था। मगर ऐसा नहीं हुआ- गणतंत्र दिवस चुपके से निकल गया। 

यह अचानक हुआ हो ऐसी बात नहीं है- यह सायास किया गया काम है और इसकी एक पूर्व निर्धारित क्रोनोलोजी है। यह अलग थलग घटना नहीं है, एक समग्र का हिस्सा है। 

स्वतन्त्रता की 75वीं वर्षगांठ पर 2022 की 13 अगस्त से 15 अगस्त के बीच बड़े जोर शोर से घर घर तिरंगा अभियान शुरू कर पूरे देश में एक ड्रिल सी की गयी। इसे पिछले बरस के इन्हीं दिनों में फिर दोहराया गया; दिल्ली में तो खुद केन्द्रीय मंत्री तक दल बनाकर बाइक रैली पर निकले। मगर जैसा कि अब साफ़ हो गया है यह ड्रिल सिर्फ ड्रेस रिहर्सल थी। इसका असली मंचन इस वर्ष 20 जनवरी से 22 जनवरी के बीच घर घर भगवा पहुंचाने के साथ हुआ। 

राम मंदिर के प्राणप्रतिष्ठा आयोजन के नाम पर सारे सरकारी विभागों को जुटा कर राम के कथित ध्वज के नाम पर भगवा लगवाया गया। तिरंगा झंडा भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में शहादतों के बीच कुर्बानियों के प्रतीक के रूप में उभर कर राष्ट्रीय ध्वज के रूप में उभर कर आया था। 

आजादी के महासंग्राम में भाग लेने से बचने वाले, इंग्लैंड की महारानी को माफीनामे की चिट्ठियां लिखने और पूरे समय अंग्रेजी राज की हिमायत करने वाले इस कुनबे के इस तिरंगे झंडे के बारे में कितने उच्च विचार हैं, इस बारे में पहले भी लिखा जा चुका है, मगर ताजे सन्दर्भ में उसे दोहराने में भी हर्ज नहीं। ज्यादा नहीं सिर्फ पांच प्रसंग ले लेते हैं–

एक-  “जो लोग किस्मत के दांव से सत्ता में आ गए हैं वे हमारे हाथ में तिरंगा दे सकते हैं, लेकिन इसको हिंदुओं द्वारा कभी अपनाया नहीं जाएगा और न ही इसका कभी हिंदुओं द्वारा सम्मान होगा।”

(आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ के 14 अगस्त 1947 के अंक में ‘भगवा ध्वज के पीछे रहस्य’ के सनसनीखेज शीर्षक के साथ छपे एक लेख का सार वक्तव्य)

दो- “तीन का अंक और शब्द ही अपने आप में एक बुरा अपशकुन है। इसलिए तीन रंगों वाले झंडे का निश्चित रूप से एक बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव होगा और यह देश के लिए हानिकारक साबित होगा।” (आरएसएस के प पू गुरु जी एम एस गोलवलकर)

हालांकि इस दावे में भी एक लोचा है। तीन तेरह को अशुभ मानना ईसाइयत में होता है, इसलिए ज्यादातर अंग्रेजी नस्ल के प्राणी उसे अशुभ मानते हैं। हिन्दू धर्म में सृष्टि का आधार ही ब्रह्मा-विष्णु-महेश की त्रयी को माना गया है। सावरकर ठीक कहे थे कि “हिंदुत्व का हिन्दू धर्म या उसकी परम्पराओं से कोई संबंध नहीं है।” अब हिटलर और मुसोलिनी से गुरु दीक्षा लेकर आएंगे तो उन्हीं के रूपकों में गाल बजायेंगे।

तीन- “हमारे नेताओं ने जो राष्ट्रीय ध्वज दिया है वह नकल का भौंडा नमूना है। इसमें ये तीन रंग कहां से आये? फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान उनके झंडे पर तीन रंग की पट्टियां उनके “समता, भाईचारे और स्वतंत्रता” के तीन नारों की अभिव्यक्ति थीं। अमेरिकी झंडे में भी थोड़े बहुत बदलाव के साथ इन्हें आजादी की लड़ाई में कुर्बानी देने वालों के प्रतीक के रूप में लिया गया था। भारत के झण्डे में ये सिर्फ उनकी नक़ल है।” (पुनः आरएसएस के प पू गुरु जी एम एस गोलवलकर)

चार- “इसमें जो हरा रंग है वह मुसलमानों का है- इसलिए आरएसएस इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकता।” (पुनः आरएसएस के प पू गुरु जी एम एस गोलवलकर)

पांच- 26 जनवरी 2001 को, राष्ट्रप्रेमी युवा दल के तीन सदस्यों द्वारा संघ मुख्यालय में घुसकर जबरदस्ती तिरंगा फहराया गया था। “परिसर के प्रभारी सुनील कथले ने पहले उन्हें परिसर में प्रवेश करने से रोकने की कोशिश की और बाद में उन्हें तिरंगा फहराने से रोकने की कोशिश की। इतना ही नहीं उसके बाद इन तीनो युवाओं को गिरफ्तार भी करवा दिया। इन युवाओं पर यह मुकदमा 13 वर्षों तक चला।” (14 अगस्त 2013 की प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट)

इस तरह स्पष्ट है कि 26 जनवरी को तिरंगे की कमी पैदा करने और उसे भगवा ध्वजों से पूरी करने की कोशिश उसी हिंदुत्वी राष्ट्र की दिशा में बढाया गया एक और कदम है जिसका युद्धघोष 22 जनवरी को प्रधानमंत्री और आरएसएस प्रमुख की साझी उपस्थिति में उस आयोजन के साथ अयोध्या से किया गया है, जिसका न धर्म से कोई रिश्ता है न उन राम से कोई संबंध है। 

इसलिए कि मामला सिर्फ तिरंगे भर का नहीं है मामला सीधे ऊपर तक का है। धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, संघीय गणराज्य की राष्ट्रपति और उनके मंत्रिमंडल का मोदी स्तुति प्रस्ताव इसका उदाहरण है। 22 जनवरी को जब अयोध्या काण्ड चल रहा था तब भारत की राष्ट्रपति भले उसमे न बुलाई गयी हों मगर राजधानी में थीं और नई दिल्ली के विज्ञान भवन में बच्चों को प्रधानमंत्री राष्ट्रीय बाल पुरस्कार से सम्मानित कर रही थीं। 

इस कार्यक्रम में उन्होंने बोला कि “आप सब जानते हैं कि आज प्रभु श्री राम की मूर्ति की अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा की गई है। यह एक ऐतिहासिक दिन है।” वे यहीं तक नहीं रुकीं, गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संबोधन- जिसे देश के अधिकांश मीडिया ने तवज्जोह तक नहीं दी- में उन्होंने कहा कि–

“इस सप्ताह के आरंभ में हम सबने अयोध्या में प्रभु श्रीराम के जन्मस्थान पर निर्मित भव्य मंदिर में स्थापित मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का ऐतिहासिक समारोह देखा। भविष्य में जब इस घटना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाएगा, तब इतिहासकार, भारत द्वारा अपनी सभ्यतागत विरासत की निरंतर खोज में युगांतरकारी आयोजन के रूप में इसका विवेचन करेंगे।” 

यह उस संविधान के तहत बने उस शीर्षस्थ संवैधानिक पद पर विराजमान देश की प्रथम नागरिक महोदया का बयान है जो संविधान धर्म और सत्ता के अलगाव की बात ही नहीं करता उसका बंदोबस्त भी करता है।

बहरहाल राष्ट्रपति महोदया के भाषण में जो थोड़ी बहुत पर्दादारी दी, 24 जनवरी को मोदी मंत्रिमंडल की कैबिनेट की मीटिंग में पारित मोदी स्तुति के प्रस्ताव ने उसे भी उघाड़कर सब कुछ बेपर्दा करके रख दिया।

‘रामलला के विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा पर हार्दिक बधाई’ देते हुए यह कैबिनेट अपनी मीटिंग को न सिर्फ एतिहासिक बताती है बल्कि इसे “सहस्त्राब्दि की कैबिनेट, यानि कैबिनेट ऑफ मिलेनियम” होने का भी दावा ठोक देती है। प्रधानमंत्री को “भारतीय सभ्यता बीते पांच शताब्दियों से जो स्वप्न देख रही थी,  वह सदियों पुराना स्वप्न पूरा करने वाला” बताती है। मगर यहीं तक नहीं रुकती मोदी की कैबिनेट दावा करती है कि–

“ऐतिहासिक कार्य तो कई बार हुए होंगे, परन्तु जब से यह कैबिनेट व्यवस्था बनी है और यदि ब्रिटिश टाइम से वायसराय की एग्जीक्यूटिव काउंसिल का कालखण्ड भी जोड़ लें, तो ऐसा अवसर कभी नहीं आया होगा। क्योंकि 22 जनवरी, 2024 को आपके माध्यम से जो कार्य हुआ है, वह इतिहास में अद्वितीय है।”

और यह भी कि “1947 में इस देश का शरीर स्वतंत्र हुआ था और अब इसमें आत्मा की प्राण-प्रतिष्ठा हुई है। इससे सभी को आत्मिक आनंद की अनुभूति हुई है।” 

यह बात असल में कुछ महीने पहले दिए गए लगातार फ्लॉप फिल्मों का रिकॉर्ड जैसा बनाने वाली, अपनी भड़काऊ भाषा के लिए ज्यादा प्रसिद्द   हिन्दुत्ववादी फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत के आप्त्वचन- “भारत को आजादी 2014 में मिली है” का भारत की कैबिनेट द्वारा किया गया विलंबित अनुमोदन है। अब तक के- 75 वर्ष के भारत का नकार और स्वतंत्रता आन्दोलन के धिक्कार से कम नहीं है।  

यूं तो यह पूरा ही प्रस्ताव ख़ास किस्म के निहितार्थों से भरा हुआ है मगर फिर भी इसके कुछ अंश उस आख्यान को आगे बढाने वाले हैं जिसे 26 जनवरी को तिरंगे झंडों की अनुल्लेखनीय हाजिरी के रूप में दर्ज किया गया है। इसलिए मसला सिर्फ झंडों का नहीं है- पूरे संविधान और उसमे निहित भारत दैट इज इंडिया की समझदारी के विलोम का है।

जैसे इस प्रस्ताव के अनुसार “राम मंदिर के लिए हुआ जन आंदोलन अब तक के भारत का सबसे बड़ा जन आन्दोलन था।  यह आंदोलन स्वतंत्र भारत का एकमात्र आंदोलन था, जिसमें पूरे देश के लोग एकजुट हुए थे।” खुद इस प्रस्ताव में कहा गया है कि “आज भव्य राम मंदिर में भगवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा के साथ एक नए युग का प्रवर्तन हुआ है। आज यह एक नया नैरेटिव सेट करने वाला जन-आंदोलन भी बन चुका है।”

इस तरह यह प्रस्ताव 22 जनवरी के बाद भारत के एक नए कालचक्र में प्रवेश की, इतिहास के एक नए चरण की शुरुआत की घोषणा करता है। यह चरण क्या है? इसके जरिये भारत को किस घुटन भरे, बर्बर मध्ययुगीन समाज में पहुंचाया जाने का लक्ष्य है, इसके बारे में पिछले अंक में “राम के बहाने हिंदुत्व की राज प्रतिष्ठा” में लिखा जा चुका है। 

यहां सवाल यह है कि यह सब हुआ कैसे?  यह अचानक अनायास नहीं हुआ है। संविधान निर्माताओं को इसकी पक्की आशंका थी। बाद में संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष बने डॉ आंबेडकर ने 1940 में पाकिस्तान की मांग उठते समय ही आगाह कर दिया था कि “अगर इधर हिन्दू राष्ट्र बन जाता है तो इस बात में कोई शक नहीं है कि इस देश के लिए भारी खतरा उत्पन्न हो जाएगा।”

उन्होंने कहा था कि “हिंदुत्व स्वतन्त्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए ख़तरा है। इस आधार पर लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त है। हिन्दू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।” इन्हीं डॉ अम्बेडकर ने नव-लिखित संविधान पर हस्ताक्षर करने के लिए 25 नवम्बर 1949 को इकट्ठा हुए संविधान सभा के सदस्यों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि “हम संविधान कितना भी अच्छा बना लें, इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं होंगे तो यह भी बुरा साबित हो जाएगा।”

उन्होंने संवैधानिक लोकतंत्र को बचाने और तानाशाही से बचने के लिए चेतावनियां देते हुए कहा था कि “अपनी शक्तियां किसी व्यक्ति- भले वह कितना ही महान क्यों न हो- के चरणों में रख देना या उसे इतनी ताकत दे देना कि वह संविधान को ही पलट दे। राजनीति में भक्ति या व्यक्तिपूजा संविधान के पतन और नतीजे में तानाशाही का सुनिश्चित रास्ता है।”

याद रहे उनके जमाने में जो व्यक्ति थे वे मौजूदा व्यक्ति जैसे नहीं थे- उनकी एक पृष्ठभूमि थी और नव आजाद देश की एकता आदि के प्रति समर्पण था। डॉ. अम्बेडकर की तीसरी चेतावनी और भी सारगर्भित थी। उन्होंने कहा था कि “हमने राजनीतिक लोकतंत्र तो कायम कर लिया- मगर हमारा समाज लोकतांत्रिक नहीं है। भारतीय सामाजिक ढांचे में दो बातें अनुपस्थित हैं, एक स्वतंत्रता (लिबर्टी), दूसरा भ्रातृत्व और बहनापा (फ्रेटर्निटी)।”

उन्होंने चेताया था कि “यदि यथाशीघ्र सामाजिक लोकतंत्र कायम नहीं हुआ तो राजनीतिक लोकतंत्र भी सलामत नहीं रहेगा।” संविधान और गणराज्य और उसमें निहित गणतंत्र की 75वीं सालगिरह पर उठते काली आंधी के तूफानों को देखते हुए उनका पुनर्पाठ जरूरी हो जाता है। सवाल सिर्फ इनकी याद कर इन्हें दोहराने का नहीं है- इन्हें अमल में लाने का है।

संविधान और उसमे वर्णित संघीय ढांचे पर हमलों और राज्यपाल सहित अनेक संस्थाओं का अलोकतांत्रिक दुरुपयोग किए जाने के खिलाफ 8 फरवरी को केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन दिल्ली में धरना देकर तानाशाही और हिंदुत्व के नाम पर लाये जा रहे सर्वसत्तावाद के खिलाफ देश की जनता की भावनाओं को स्वर भी देंगे। आने वाले दिनों के संघर्षों को दिशा भी देंगे। 

दिल्ली सहित अन्य विपक्ष शासित प्रदेशों की एकजुटता ही नहीं देश की लोकतंत्र प्रेमी, संविधान हिमायती जनता की एकजुटता भी उनके साथ होगी। हुक्मरान अगर बांह मरोड़कर पटना और नीतीश करना चाहेंगे तो देश का अवाम मुट्ठी बांधकर हाथ उठाकर तिरुवनंतपुरम, चेन्नई, भारत, इंडिया करेगा और बिलाशक कुछ महीनों बाद अपनी नयी हुकूमत चुनकर सटीक जवाब देगा। 

पुनश्च

जिस प्रदेश में बैठकर यह लिखा गया है उस प्रदेश में 30 जनवरी की सुबह 11 बजे पूरे शहर में हूटर बजाकर 2 मिनट का मौन रखकर हर वर्ष दी जाने वाली श्रद्धांजली की औपचारिकता भी नहीं की गयी। यह है वह नया कालचक्र जिसमें जाने का दावा मोदी की कैबिनेट ने अपने प्रस्ताव में किया है; गांधी को गोडसे से प्रस्थापित करने की ओर प्रयाण का कालचक्र।

(बादल सरोज, लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसानसभा के संयुक्त सचिव हैं।)

बादल सरोज
Published by
बादल सरोज