संपन्न तबके ने अपने ही ‘चाकरों’ को धकेल दिया सड़कों पर

आख़िर उत्पीड़ितों को दोषी ठहराने का अभियान शुरू हो गया है। फ़ासिस्ट दिमाग़ जिस तरह की कार्यशैली अपनाते रहे हैं, उसे देखते हुए यही होना था। सड़कों पर ग़रीबों के जो हुज़ूम जिनमें युवा स्त्री-पुरुष, उनके मासूम बच्चे, बूढ़े परिजन शामिल हैं, अपने पुराने ठिकानों की तरफ़ पैदल ही बढ़े जा रहे हैं, वे कोरोना के नहीं, इस सत्ता और इस व्यवस्था के मारे हुए लोग हैं। भारतीय जनता पार्टी के एक पूर्व सांसद और दैनिक जागरण जैसे कूड़ा अख़बारों के संघी स्तंभकार बलबीर पुंज ने विपदा के मारे इन लोगों पर ही सवाल उठाकर हैरान नहीं किया। वरिष्ठ कवि विष्णु नागर की एक दु:ख में डूबी कविता पर साहित्यिक मंडली के ही किसी राजेंद्र उपाध्याय की टिप्पणी ने मुझे चौंकाया कि दुस्साहस और निर्लज्जता का यह प्रदर्शन बताता है कि घृणा की लेबोरेटरी में बने वायरस का असर कोरोना वायरस से भी कितना ज़्यादा व्यापक है! 

गाँवों से गए थे क्यों और अब बीमारी फैलाने गाँवों की तरफ़ लौट क्यों रहे हो, यह घृणित वाक्य एकदम अभी का नहीं है। अपने बिहार के कितने पत्रकार मित्रों के मुँह से बिहारी मज़दूरों के लिए इस तरह की घृणित टिप्पणी सुनते हुए ज़िदगी गुज़री है। गाँवों में सदियों से सताये गए लोगों को उनसे बेगार कराकर भी बेइज़्ज़त करने वाली ये बाबू-औलादें कहती ही रही हैं कि रिक्शा ही चलाना है तो ये साले अपने गाँवों में रहकर मज़दूरी नहीं कर सकते। मतलब यह कि जिस घृणा के बल पर फ़ासिस्ट खड़े हुए हैं, वह इसी समाज के बाबू लोगों का प्राचीन हथियार है।     

सबसे पहली बात सुनिए, सड़कों पर नज़र आ रहे ये कमबख़्त लोग अपनी चॉइस से नहीं निकले हैं। उन्हें भी रोटी चाहिए, अपनी, अपने बच्चों, अपने परिजनों की ज़िंदगी की ख़ैर चाहिए। एक आदमी जो ख़ुद को फ़क़ीर कहता है, जिसके अकेले के ऊपर विशाल खर्च होता है, अचानक रात के उस कुख्यात हो चुके समय 8 बजे टीवी पर आकर 21 दिन की स्ट्राइक का ऐलान कर देता है तो देश की इस विशाल श्रमशील आबादी के पांवों तले से ज़मीन खिसक जाती है। कोई बताएगा, फैक्ट्रियों की काल-कोठरियों, किराये के मुर्गी खानों जैसे दड़बों में पड़े रहने वाले इन लोगों के लिए क्या इंतज़ाम थे? फैक्ट्रियों से लतिया दिए गए इन लोगों से पूछिए, शंख-थाली बजाने वालों ने उनकी तनख्वाएं तक मार लीं। बेकाम, बेछत हो गए लोग पुलिस की मार खाने का जोख़िम उठाकर भी अपने गाँवों की तरफ़ पैदल ही न निकल पड़ते तो क्या करते? सरकार और उसका सबसे प्रिय संपन्न समाज संकट में फंसे अपने ही `चाकर` तबके को इस तरह सड़कों पर धकेल देने का आरोपी क्यों नहीं हैं? इस तरह लॉक डाउन के जरिये सोशल डिस्टेंसिग के उपाय को ध्वस्त कर देने का भी। 

जिस आरएसएस और उसकी राजनीतिक विंग भा्रतीय जनता पार्टी ने मेहनतकशों के लिए बने जैसे-तैसे श्रम कानूनों को ध्वस्त करने और सामाजिक सुरक्षा के आरक्षण जैसे जैसे-तैसे प्रबंधों को नेस्तनाबूद करने में कांग्रेस से चार क़दम आगे बढ़कर निर्णायक भूमिका निभाई हो, उसे सत्ता और सामाजिक ताक़त सौंप देने वाला समाज भला ऐसे हृदय विदारक दृश्यों पर क्यों विचलित होगा? फ़र्क़ यह है कि इस मारा-मारी भीड़ में सिर्फ़ दलित और मुसलमान ही नहीं हैं, उत्पीड़क मनुवादियों के टूल बने ओबीसी और उत्पीड़कों की तरह व्यवहार करने वाली कथित मार्शल रेस किसान जातियों के लोेग भी हैं। ग़रीब ब्राह्मणों के भी। मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा से संतुष्ट हो जाने वाला यह तबका अपनी दुर्दशा को भी क्या पहचान पाता? इस ज़हरीले नशे में ग़रीब ब्राह्मण, ओबीसी, दलित सब डूबे रहे और फैक्ट्रियों के दरवाज़ों पर मुसलमानों के लिए नो एंट्री की तख्तियां देखकर कभी विचलित नहीं हो पाए।

तो यह समाज जिस जगह लाकर खड़ा कर दिया गया है, वहाँ दलितों के लिए नफ़रत है, मुसलमानों के लिए नफ़रत है, स्त्रियों के लिए भारी हिंसा है और ग़रीब सवर्णों के लिए भी उतनी ही नफ़रत है। पूंजीवाद द्वारा बनाई गई वर्गीय लेयर्स और मनुवाद द्वारा बनाई गई जातिगत लेयर्स मिलकर नफ़रतों की इतनी सारी लेयर्स के जरिये उत्पीड़क के ख़िलाफ़ कोई साझी समझ नहीं बनने देती हैं। इसलिए पिटते लोगों से सहानुभूति और अपराधी व्यवस्था के प्रति घृणा के बजाय उत्पीड़ितों पर ही हमलावर हो जाना यहाँ कोई  कठिन काम नहीं है।

यह भी सुनिए, गाँव अपने इन बिछुड़ों का इंतज़ार नहीं कर रहे हैं। वहाँ भी लोग इन आने वालों से डरे हुए हैं। बहुत जगह विरोध हो रहा है, बहुत जगह लोग रात के अंधेरों में अपने घरों में पहुंचे हैं। देश के पूंजीपतियों और सत्ता में बैठे लोगों पर अपार धन लुटाने वाले देश के लिए यह सारा काम व्यवस्थित ढंग से करना कठिन नहीं था। कोरोना के संकट के दौरान ही ट्रम्प की यात्रा और विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त जितना ही पैसा खर्च कर दिया जाता। अस्पतालों के बजाय मंदिरों के लिए चौक, शंख-थाली-जुलूस, रामायण-महाभारत जैसे प्रबंध बताते हैं कि जो नहीं हो रहा है और जो हो रहा है, सब योजनाबद्ध ढंग से किया जा रहा है। अराजकता के कीचड़ में कमल खिलाने के अनुभव। लीजिए, ग़ाज़ियाबाद के भाजपा विधायक ने लॉक डाउन का उल्लंघन करने वालों को गोली मारने का आह्वान करते हुए ऐसा करने वाले हर पुलिस वाले को 5100 रुपये देने का ऐलान कर दिया है।

(धीरेश सैनी जनचौक के रोविंग एडिटर हैं।)

धीरेश सैनी
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