राम मंदिर के बहाने हिंदू राष्ट्र बनाने की कवायद

5 अगस्त को अयोध्या में जिस मंदिर कॉम्प्लेक्स के शिलान्यास को लेकर पूरी सरकार और उसका मीडिया धूमधड़ाका मचाए है, वहां किसका मंदिर बनने वाला है?

शबरी के बेर खाकर वन्यजीवन काटने वाले और 14 साल का वनवास भोग कर घर लौटते ही सबसे पहले कैकेयी के पांव छूने वाले राम का तो यकीनन नहीं। ऐसे किसी राम का मंदिर बनाने में उनकी दिलचस्पी न कभी थी, न आज है। 

अगर होती तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने अन्यथा अजीब निर्णय में “स्वतंत्र न्यास से मंदिर निर्माण कराए जाने” की जो बात कही है, उसे माना जा रहा होता। महामारी से जूझते देश में हड़बोंग नहीं मचाया जा रहा होता। ऐन कोरोना की तीव्र से तीव्रतर फैलती महामारी के बीच उचककर खुद प्रधानमंत्री वहां नहीं जा रहे होते।

उत्तर प्रदेश की सरकार महामारी थामने और प्रदेश भर में फैली अराजकता को रोकने की जिम्मेदारी सरयू में प्रवाहित कर ढपली नहीं बजा रहे होते। इन सबमें आस्था न रखने वाले सम्प्रदाय, गोरखनाथ के महंत मुख्यमंत्री अयोध्या की लिपाई, पुताई, चमकाई के काम में न लगे होते।

इधर अयोध्या के पुजारियों से लेकर सिपाहियों तक फैलती महामारी है, उधर शिलान्यास के बहाने धर्म-आधारित राष्ट्र के बुर्ज तानने की तैयारी है। राम मंदिर तो बहाना है, धर्म के नाम पर जनता को बहलाना और फुसलाना है। असली इरादा भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है। भारत देश, उसके समाज और सामजिक चेतना पर इतना तीखा हमला इससे पहले कभी नहीं हुआ।

लोकतंत्र, समता, आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता की बातें फिलहाल न भी करें तो भी हिंदू राष्ट्र बनाए जाने की इस कुटिल परियोजना को लेकर सजग होना इसलिए जरूरी है कि पांचेक हजार साल की सभ्यता के ज्ञात इतिहास में यह भूमि धर्म-आधारित राष्ट्र की यंत्रणा से कमोबेश बची रही है। इसलिए भी कि यह कथित हिंदू राष्ट्र जिस हिंदुत्व को हिंदू का पर्याय बनाना चाहता है, वह कुछ हजार साल के इतिहास में खुद हिंदू और उनके धर्म के लिए प्रस्तुत हुआ सबसे बड़ा ख़तरा है।

सिर्फ इसलिए भर नहीं कि हर धार्मिक कट्टरता सबसे पहले और सबसे ज्यादा नुकसान खुद अपने धर्म और उसके मानने वालों को पहुंचाती है, बल्कि इसलिए भी कि सावरकर प्रदत्त हिंदुत्व उनके ही शब्दों में: एक ऐसी राजनीतिक अवधारणा है, जिसका हिंदू धर्म से कोई संबंध नहीं है। अपने सच्चे अर्थ में भारत की अवधारणा और अस्तित्व का विलोम है- हिंदुत्व। विरासत और समावेशी परंपरा का निषेध, भारत दैट इज इंडिया के संविधान का खंडन है- हिंदुत्व। यह हिंदुत्व किसी कोण से हिंदू नहीं है। इसके कंधे पर मनु स्मृति का कुल्हाड़ा है, निशाने पर अक्खा हिंदुस्तान है। 

लिहाजा हिंदुस्तान बचाने की पहली शर्त है इस हिंदुत्व की विकृति का समूल उन्मूलन, जिसका आरंभ हिंदू और हिंदुत्व के पारस्परिक विरोधी स्वरूप को समझने और समझाने से होगा, और ठीक यही काम है, जो इस देश के शासक वर्गों ने नहीं किया, जिन्हें करना था, उन्होंने इसे प्राथमिकता के साथ एजेंडे पर नहीं लिया। नतीजा सामने है। कभी इस, तो कभी उस नाम से भेड़िए गांव की चौहद्दी के अंदर दाखिल हो रहे हैं।

मोबाइल फोन की एक क्लिक पर हाजिर हो जाने वाला दुनिया भर का इतिहास अगर सबसे ज्यादा मुखर और वैश्विक सबक देता है, तो वह यह है कि धर्म के आधार पर राष्ट्रों का निर्माण नहीं होता/नहीं हो सकता। धर्म के नाम पर बना कोई भी राष्ट्र न टिका है, न बढ़ा है। उसने सबसे ज्यादा घाटा अपने ही देश के नागरिकों और उनकी अर्जित समझदारी और संचित जीवन शक्ति को ही पहुंचाया है। ये हिंदुत्व के धर्मध्वजाधारी भी यही कर रहे हैं।

वे क्या कर रहे हैं और क्या करना चाहते हैं, इसका ब्यौरा इस स्तंभ को पढ़ने वालों के लिए दोहराने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें इनकी कारगुजारियां ज़ुबानी याद हैं, उनके रोजमर्रा के संघर्षों में लगातार अपडेट होती रहती है। देसी और विदेशी कारपोरेट की पालकी का कहार बने इन ध्वजाधारियों ने 90 फीसद मेहनतकश आबादी पर जो कहर ढाया है, वह निरंतरित पीड़ा है। मगर असल बात इससे भी आगे की है। 

वे केवल पूंजी के आदिम और नरभक्षी संचय तक सीमित नहीं हैं, वे दारुण दुःख देने से पहले मति हर लेने का काम भी उतनी ही शिद्दत से कर रहे हैं। आत्मविनाश की सर्वानुमति के उत्पादन और उसे संक्रामक बनाने में भी भिड़े हैं। इस प्रकार यह वर्गीय शोषण के सारे रूपों को असहनीय स्तर तक तीखा करने भर तक महदूद नहीं है।

इसके कांधे पर मनु की कुल्हाड़ी है, जो  जेएनयू को जेल बना रही है, शिक्षा को सीखने-सिखाने की बजाय भुलाने के जरिए और ज्ञानी की बजाय अज्ञानी ढालने के सांचे में बदल रही है। स्त्रियों को उनकी शास्त्र सम्मत जगह दिखा रही है। अवर्णों को उनकी मनु-निर्धारित हैसियत बता रही है। इसका दायरा सर्वग्रासी है। 

यह ऐसा चक्रव्यूह है, जिसका एकाध घेरा तोड़ने से उससे बाहर नहीं आया जा सकता, सारे व्यूह एक साथ तोड़ने होंगे, इसलिए यह गुनने और समझने या अभिमन्यु बनने का नहीं, एक्ट करने का समय है; खामोशी महंगी पड़ जाएगी। पुकार के एकांगी होने से इनका कुछ नहीं बनेगा-बिगड़ेगा,  इस अंधड़ के तिरस्कार और अस्वीकार को तर्कसंगत, लोकभाषी और सर्वआयामी होना ही होगा। 

यह सिर्फ समझने भर का नहीं, समझाने का भी समय है कि धर्म और सांप्रदायिकता के बीच न कोई रिश्ता है, न तादात्म्य। हमारे अपने अनुभव बताते हैं कि  सांप्रदायिक व्यक्ति अमूमन धार्मिक नहीं होता। उसी तरह कट्टर धर्मानुयायी सांप्रदायिक नहीं हो सकता। 

भारत के ताजे इतिहास में इसके उदाहरण हैं। एक गांधी हैं, हिंदू धर्म के सबसे महान सार्वजनिक व्यक्तित्व, पब्लिक फिगर, थे/हैं। वे इसके लिए जीए भी और मरे भी। आज जारी धतकरम को लेकर उनकी हजारों सार्वजनिक टिप्पणियां हैं। वहीं उन्ही के जमाने के स्वघोषित नास्तिक विनायक दामोदर सावरकर और प्रैक्टिसिंग नास्तिक जिन्ना हैं, जिन्होंने धर्म के नाम पर राष्ट्र बनाने में पूरी ताकत लगाई। उनकी धर्माधारित राष्ट्र बनाने की अवधारणा से लड़ते हुए धार्मिक गांधी के कथन आज भी उतने ही सामयिक और प्रासंगिक हैं। 

गांधी ने कहा था, “राज्य का कोई धर्म नहीं हो सकता, भले उसे मानने वाली आबादी 100 फीसदी क्यों न हो। धर्म एक व्यक्तिगत मामला है इसका राज्य के साथ कोई संबंध नहीं होना चाहिए और राजनीति में तो धर्म बिलकुल नहीं होना चाहिए।” जाहिर है कि यहां मसला धर्म नहीं, उसका राजनीति के साथ घालमेल है। 

यह संयोग नहीं है कि अयोध्या में मंदिर बनाने वाले आधुनिक भारत के मंदिर और तीर्थस्थल कहे जाने वाले आत्मनिर्भरता के स्तम्भों को धराशायी कर उसकी बालू बनाने में जुटे हैं। 

पूंजीवादी शोषण का सबसे हिंसक और बर्बर रूप इसी तरह के मुखौटे धारण करके आता है। गांधी की विशाल तस्वीरों के नीचे बैठने वालों की इनके खिलाफ नरमी या चुप्पी अख्तियार करना चतुराई का नहीं, राजनीतिक कायरता और दिशाहीनता का परिचायक है। भेड़िए भगाने के लिए मंजीरे नहीं बजाए जाते, हुंकार लगानी होती है, हांके लगाए जाते हैं। ठीक यही काम है, जो इस देश के मेहनतकश कर रहे हैं। दोनों खतरों के खिलाफ एक साथ जनता को उतारने में जुटे हैं। 

(लेखक पाक्षिक लोकजतन के संपादक हैं।)

बादल सरोज
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