सत्ता की साजिश का शिकार किसान आंदोलन

लोकतंत्र में आंदोलन होते हैं और लोग भारी संख्या में जुटते हैं तो छिटपुट घटनाएं हो जाती हैं क्योंकि हमारी पुलिस हैंडल करने के लिए उस स्तर तक प्रशिक्षित नहीं होती है।

जब सुरक्षा बलों का शीर्ष नेतृत्व राजनैतिक जमात को संविधान से बड़ा आका मान लेता है तो स्थिति और खराब हो जाती है।

जब कोई बड़ा आंदोलन खड़ा होता है और सरकार वार्ता करके आपसी सहमति से खत्म करने में नाकाम हो जाती है तो अंतिम विकल्प के रूप में अपने लोगों को बीच में घुसाकर आंदोलन को तोड़ने के लिए हिंसा का सहारा लेती है।

किसान आंदोलन को शुरू से ही सत्ता ने अपने देश के नागरिकों/किसानों के नजरिये से देखा ही नहीं था। पंजाब के किसानों ने महीनों आंदोलन के बाद दिल्ली कूच किया तो सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ता, पार्टी की आईटी सेल से लेकर मंत्रियों/मुख्यमंत्रियों व केंद्रीय मंत्रियों तक ने खालिस्तानी, किराए के, विपक्ष के बरगलाए आदि कई अलंकारों से नवाजा।

प्रतिक्रिया स्वरूप आंदोलन का विस्तार होता गया और लोग जुड़ते गए। आंदोलन को गति देने में भारतीय चाटुकार मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। किसानों ने मीडिया से दूरी बनाई व सोशल मीडिया के द्वारा आपस में जुड़ते गए।

किसान 62 दिन से शांतिपूर्ण तरीके से दिल्ली के बॉर्डर पर डटे हुए थे। कहीं कोई हिंसा नहीं हुई लेकिन परसों जो लाल किले पर खाली पोल पर झंडे को लेकर बवाल सरकार में बैठे लोग व इनकी भांड मीडिया/ट्रोल सेना काट रही है वो कानून के मुताबिक गलत नहीं है। ध्वज संहिता को ध्यान से पढ़ कर देख लीजिए। जो छुटपुट हिंसा हुई उसको उकसाने वाला कौन था, उसके संबंध किसके साथ रहे हैं वो सबके सामने है।

ऐसी घटनाओं के बचाव के लिए राष्ट्रीय पुलिस आयोग बनाने की मांग कई बार उठी, कमेटियां बनाई गईं, रिपोर्ट्स आईं लेकिन कभी लागू नहीं की गईं क्योंकि सत्ताधारी पार्टी चाहती रही है कि पुलिस का दुरुपयोग ऐसे मौकों पर किया जा सके!

अब सरकार की तरफ से जो मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं ऐसे मुकदमे आंदोलन खत्म करने हेतु किसान नेताओं को दबाव में लाने के लिए किए जाते रहे हैं। सबको पता है कि आंदोलन आगे बढ़ता है तो अंतिम वार्ता में यह भी एक मांग शामिल होती है कि आंदोलन के दौरान जितने भी मुकदमे दर्ज किए गए हैं वो वापस ले लिए जाएं।

कल सुबह से कमजोर किसान नेताओं को निशाना बनाया जा रहा है जिसके कारण 2 नेता भानुप्रताप सिंह जो पहले ही सरकार को समर्थन दे चुका था मगर किसानों के डर से चिल्ला बॉर्डर पर कुछ लोगों को बिठाये हुए था व दूसरा वीएम सिंह जो सबसे पहले भागकर बुराड़ी गया था ताकि सरकार से वार्ता में शामिल हो सके मगर शामिल नहीं किया गया था। उसके बाद मुंह लटकाकर गाजीपुर बॉर्डर पर कोने में बैठा रहा और कल अलग होने का ऐलान किया लेकिन उसी के कार्यकर्ताओं ने विरोध कर दिया।

इस किसान आंदोलन में हर किसान नेता है बस वार्ता के लिए नामित लोग जाते हैं। देशभर के करोड़ों किसान अपने-अपने हिसाब से इस आंदोलन में भागीदारी निभा रहे हैं। सरकार इतने बड़े जन आंदोलन को पुरानी पड़ चुकी ट्रिक से खत्म करने की भूल कर रही है! पुलिस द्वारा मुकदमे दर्ज करना, मीडिया में पार्टी प्रवक्ताओं के घड़ियाली आंसुओं का सैलाब निकालना, ट्रोल सेना द्वारा वर्षों पुराने देश/विदेश के फोटो/वीडियो वायरल करना आदि हथकंडे अपना रही है।

सबसे खराब जो हथकंडा इस सरकार ने नया अपनाया है वो आंदोलनकारी जनता के खिलाफ जनता के दूसरे गुट को खड़ा करना। जैसे शाहीन बाग आदि में गोलियां चलाई गईं और कपिल मिश्रा जैसे उन्मादी गुंडों को सड़कों पर उतारा गया था। उसी प्रकार की सूचना आ रही है कि धारूहेड़ा में डटे किसानों को आसपास के गांवों से कुछ लोगों ने कल आकर अल्टीमेटम दिया कि 24 घंटे में सड़क खाली करो अन्यथा हम खाली करवाएंगे! यह हथकंडा आग से खेलने जैसा है।

किसान नेताओं को चाहिए कि भानु,वीएम सिंह के साथ-साथ शिवकुमार शर्मा उर्फ कक्का व अभिमन्यु कोहाड़ को बाहर कर दें। सोशल मीडिया चला रहे किसानों के बच्चों से भी निवेदन है कि मोर्चा मजबूती के साथ संभाल लो। यह आंदोलन पूरे देश का जन-आंदोलन है इसलिए क्षणिक आवेश में आकर गलत प्रतिक्रिया न दें और झूठ के बवंडर से दबाव में न आएं। राष्ट्रीय प्रतीकों, राष्ट्रगान का अपमान कैसे होता है वो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के राष्ट्रगान के साथ सम्मान में लहराए झंडे को देखिए।

किसान लड़ेगा व जीतेगा।

देश नहीं झुकने देगा।।

(प्रेमाराम सियाग स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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