फासीवाद को सबसे बड़ा खतरा कला से लगता है

कलाकार (कवि, फिल्म लेखक, संगीतकार, आर्ट एक्टिविस्ट) मयंक मुंबई से दिल्ली तक एनआरसी-सीएए-एनपीआर के खिलाफ़ देशभर में चल रहे जनांदोलन में अपनी कला के जरिए प्रतिरोध को अलग ही मुकाम दे रहे हैं। जनचौक के लिए सुशील मानव से बात करते हुए वो कला, धर्म, समाज और प्रतिरोध के अंतर्संबंधों के विभिन्न पहलुओं पर अपने विचार रखते हैं।

पहली बार बॉलीवुड इतना मुखर होकर आया है
मयंक कहते हैं, “सीएए, एनआरसी और एनपीआर विरोधी इस जनांदोलन के समर्थन में कलाकारों के साथ-साथ बॉलीवुड फ्रैटरनिटी के लोग भी बहुत मुखर होकर बोल रहे हैं। बॉलीवुड के जो लोग पहले कभी इस सरकार के खिलाफ़ नहीं बोलते थे, वो भी इस बार बहुत मुखर होकर आए। विशेषकर मेनस्ट्रीम का सिनेमा जैसे वरुण धवन ने इस पर बात की, आलिया भट्ट ने इस पर बात की, इस बारे में सुनील शेट्टी ने जेएनू हिंसा पर बात रखी, अनुराग कश्यप तो खैर मुखर हैं ही, लेकिन कार्तिक आर्यन जैसा एक्टर वो लगातार इस पर बोल रहा है।

सुशांत सिंह राजपूत, ‘तुम कौन हो बे’ कविता के कवि पुनीत शर्मा और हम लोग तो अपना सारा काम-वाम छोड़कर ही आंदोलन में उतर गए हैं। इस आंदोलन में जो ज़्यादा बड़ा बदलाव है वो ये है कि कुछ लोग जो साइलेंट सिटर थे, जो अभी तक चुप रहते थे वो बोल रहे हैं। इसके अलावा जीशान अयूब, स्वरा भास्कर और दीपिका पादुकोण, पूजा भट्ट, उर्मिला मातोंडकर ने भी सीएए-एनआरसी के खिलाफ़ अपने विचारों का इजहार किया है। 

जब भी फासीवादियों का उभार होता है तो बहुत से कलाकार उस समय लंबे समय तक चुप रहते हैं, या बोलने से बचते हैं। खास तौर पर जो व्यवसायिक कला में होते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि नुकसान होगा। कोई संदेह नहीं कि नुकसान होता भी है, लेकिन कला आपको हमेशा अंदर ही अंदर बदल रही होती है। तो आपका एक फ्रेश होल्ड होता है जहां पर ये तय होता है कि अब हम और चुप नहीं रह सकते हैं, क्योंकि क्या है न कला केवल आपको एक सांस्कृतिक या रचनात्मक चीज नहीं दे रही होती है।

कला आपको बहुत सारी चीजें देती है। मसलन हमारी जो कंडीशनिंग होती है समाज में जो हमें सांप्रदायिक बनाती है, पितृसत्तात्मक भी बनाती है जो हमको जातिवादी भी बनाती है, कला उसको तोड़ती है। कहीं न कहीं अंदर ही अंदर धीरे-धीरे। इसलिए कलाकार एक समय के बाद शांत नहीं बैठ सकता। दूसरा अगर हम दुनिया का इतिहास उठा लें तो फासिस्टों और तमाम तरह की गलत चीजों के खिलाफ़ चाहे वो बोलकर या चाहे अपनी कला के जरिए सबसे मुखर रहने वाला जीव कलाकार ही रहा है। चाहे वो लेखक हो, कवि, पेंटर, फिल्मकार, गायक, अभिनेता या निर्देशक हो सकता है।

आप इतिहास उठाकर चाहे लियो टालस्तोय की बात करें, चाहे आप हिंदुस्तान की आज़ादी के अंदर की बात करें, जिसमें तमाम कवि, लेखक, शायर शामिल थे। पाकिस्तानी तानाशाही के खिलाफ़ केवल कोई नेता जेल नहीं जा रहा था। हबीब जालिब और फैज अहमद फैज भी जेल जा रहे थे।

ऐसे ही हिटलर के समय में इटली में मुसोलिनी की सत्ता था। उसके खिलाफ एक बहुत ही मशहूर जनगीत बेलाचाओ लिखा-गाया गया था। बेलाचाओ की शुरुआत क्रांतिकारियों ने की थी। उसका हम लोगों ने हिंदुस्तानी वर्जन भी तैयार किया है। आज दुनिया के हर देश में उस मुल्क की जुबान में अलग-अलग मतलबों के साथ जा चुका है। जहां-जहां क्रांति हुई है, जहां-जहां आंदोलन हुए हैं। तो फ्रांस की क्रांति में भी जो तीन सबसे बड़े नाम हैं वो रूसो, वाल्तेयर, मौटेस्क्यू लेखक विचारक थे। कला इंसान के तौर पर लिबरेट करती है, इसलिए सत्ता सबसे पहले कलाकारों पर हमला करती है।

मोदी सरकार द्वारा पिछले छह सालों में कलाकारों के खिलाफ़ हमले पर अपनी बात आगे बढ़ाते हुए मयंक कहते हैं, कला इंसान को बदलती है। कला आपको संकीर्णता से बाहर लाती है। एक इंसान के तौर पर लिबरेट करती है। जब आप लिबरेट होने लगते हैं तो गुलामी कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं किसी भी तरह की। वो किसी अंग्रेज की हो या किसी फासीवादी की। सबसे पहला हमला भी आप देखो जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई तो ठीक उसके आस-पास तिरुमल मुरुगन ने ऐलान किया कि वो लिखना छोड़ देंगे।

उसके बाद उनके समर्थन में आवाज़ उठाई और उसके बाद उन्होंने फिर से लिखना शुरू किया दोबारा से, लेकिन सबसे बड़ा क्रैकडाउन किन लोगों पर हुआ। सरकार के सत्ता में आने से पहले या बाद में चाहे एमएफ हुसैन की बात करें, चाहे शाहरुख खान, आमिर ख़ान जब असहिष्णुता पर बयान देते हैं तब उन पर भाजपा-आरएसएस को ट्रॉलर्स उन पर हमला करते हैं। या कश्मीरी लड़कियां जिनका बैंड था उन पर किस तरह से हमला हुआ और उन्हें गाना छोड़ना पड़ा।

इस तरह से आप गौर करेंगे तो पिछले छह साल में चाहे वो किसी फिल्म का नाम बदलने के लिए सड़कों पर उतरना रहा हो। गौरी लंकेश क्या कर रही थीं वो तो पत्रकार थीं। दाभोलकर अंधविश्वास के खिलाफ़ काम कर रहे थे। पानसारे लेखक थे। उनकी हत्या उनकी किताब के कारण हुई। कलबुर्गी की हत्या उनके लिखे के चलते की गई।

ये सबसे ज्य़ादा हमले कलाकारों को सप्रेस करने की कोशिश में करते हैं। क्यों करते हैं। क्योंकि लोग किसी नेता का भाषण दो घंटे नहीं बर्दाश्त करते हैं, लेकिन एक अच्छी फिल्म आर्टिकल-15 हो सकती है, मुल्क हो सकती है, पीके या लगे रहो मुन्ना भाई हो सकती है। जो अपने कंटेंट में मनोरंजन करने के बावजूद कहीं न कहीं आपको दूसरा रास्ता दिखा रही है, अल्टरनेटिव। कहीं न कहीं अहिंसा और प्रेम को स्थापित कर रही है।

कोई भी सिनेमा, कला या संगीत हो जब लोकतंत्र, और अहिंसा और प्रेम के स्थापित करने लगेगा तो  वो अप्रत्यक्ष तौर पर चुनौती तो सत्ता, (स्टेट पावर) को ही दे रहा होगा। इसलिए कोई भी जनमीडिया जिसका व्यापक असर हो वो रवीश कुमार भी हो सकते हैं, गौरी लंकेश भी हो सकती हैं, वो आमिर या शाहरुख खान भी हो सकते हैं। सबसे बड़ा ख़तरा सत्ता को कला से लगता है ऐसे में। और इसलिए इनका पहला हमला कला पर होता है। ये एक हिस्सा है कि कला चुनौती दे रही है, क्योंकि वो पोपुलर है और जनता के बीच उसका असर ज़्यादा है।

कला धर्म को उदारता देती है
कला और धर्म के अंतर्संबध पर टिप्पणी करते हुए मयंक कहते हैं, दूसरा हिस्सा ये है कि आपको जब समाज को या किसी भी व्यक्ति को किसी भी तरह से कट्टर बनाना हो, तो आपको सबसे पहला काम ये करना होता है कि आप किसी भी धर्म की कट्टरपंथ की जो डॉक्ट्राइन है उसे जरा देखें तो चाहे वो अम्ने तालिबान हो, सलाफी इस्लाम की कट्टर धाराएं हैं, या चाहे इनका हिंदुत्व का आईडिया है ये सबसे पहले मनुष्य को साहित्य, संगीत, कला से दूर कर देती हैं।

कही पेंटिंग हराम हो जाएगी, कहीं म्युजिक हराम हो जाएगा। जैसे ही आप किसी व्यक्ति को साहित्य, संगीत कला से दूर करेंगे वो धीरे-धीरे अपने आप कट्टर हो जाएगा। आपको बनाने की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी। ये लगातार किया गया है।

हिंदू धर्म और हिंदुत्व को अगर देखें तो मैं नास्तिक ज़रूर हूं पर मैं पला-बढ़ा हिंदू परिवार में हूं। आप देखें की आज से दस साल पहले या हिंदू धर्म का जो एक नॉर्मल रिचुअल प्रोसेस होता है उसमें साहित्य, संगीत और कला कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। और इसका नतीजा क्या होता है। इस्लाम में जो सबसे मॉडरेट, सबसे प्यारी इस्लाम की धारा है वो सूफी है। सूफी में म्यूजिक के जरिए ही पूरी इबादत की जाती है।

इसीलिए वो सेकुलर और लिबरल हैं। सारे सूफी, दरवेश या संत हुए हैं यदि आप उनकी कहानियां देखें, उनकी बातें सुनें, या उनका लिखा देखें तो वो सत्ता को चैलेंज कर रहे हैं। हिंदू धर्म में भी भक्ति कला की जो कविताएं हैं वो केवल ईश्वर की आराधना नहीं कर रही हैं। वहां वो प्रेम की सूक्ष्म अभिव्यक्ति की भी बात कर रहे हैं, लेकिन बीजेपी का जो हिंदुत्व है वो आप उसमें ढूंढ लीजिए कि उसमें आपको कहीं साहित्य और संगीत की कल्पना दिखाई देती है। क्या उसमें वो औरतें जो दीवारों से लेकर घरों तक में पेंटिंग करती थीं, खड़िया और गेरू से, जो चौक पूरती थीं वो कहीं पर हैं क्या इसमें।

राम जिनकी ये बात करते हैं, जिसमें वो बाल खोलकर, रौद्र रूप में खड़े हैं 1989 से पहले के राम की वो फोटो हमने कभी नहीं देखी थी। तब हिंदू राजा रवि वर्मा की बनाई उन पेंटिंग्स की पूजा कर रहा था, जिसमें राम अपनी पत्नी सीता और भाईयों के साथ खड़े हुए हैं सौम्य रूप में। इसलिए कृष्ण इनके एजेंडे में फिट नहीं बैठते, क्योंकि वो सारी कलाओं और नौ रसों को रिप्रेजेंट करते हैं। कृष्ण इनके एजेंडे में इसलिए नहीं फिट बैठते क्योंकि वो धनुष और बाण नहीं उठाते। हिंदू धर्म का भी जो एक लोकाचार था उससे इन्होंने संगीत और कला को गायब कर दिया है। और बहुत आसान हो गया है अब कट्टर बनाना। 

दक्षिणपंथियों ने दुनिया और समाज को कोई कलाकार नहीं दिया 
सीएए, एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ़ जनांदोन हो रहा है और लोग तो इसमें जुट ही रहे हैं भाजपा ने सीएए के समर्थन में कई रैलियां की हैं। उनमें कितने लोग आए हम जानते हैं। उनकी किसी रैली में आपने कोई गीत सुना क्या। आपने कला देखी? आपने कोई आर्ट इंस्टालेशन या पेंटिंग देखी। नहीं देखा। जबकि हिंदू धर्म में भी जो लोकाचार था उसमें जो है, आपके घर में कोई पूजा होती थी तो वो औरतों के चौक पूरने की पेंटिंग से लेकर हजार तरह के चीजें थी जो कला को रिप्रेजेंट करती थीं। लेकिन इनकी रैलियों में कहीं दिखी क्या। 

हम गाने गा रहे हैं, पेंटिंग कर रहे हैं। जब आपके पास कला औजार के रूप में प्रतिरोध जताने के लिए नहीं होती है तब आपके पास विरोध जताने के लिए सिर्फ़ हिंसा बचती है। इसलिए वो आग लगाएंगे, बसें फूकेंगे, वो गोली चलाएंगे। और हमारा एक नौजवान निहत्था ही उनकी तरफ बढ़ जाएगा कि अगर गोली चलनी ही है तो मुझे लगे मेरे और किसी साथी को न लगे। कला इसी के लिए है। हिंदुत्व के एजेंडे में जो गाने आप सुनेंगे भी वो फूहड़ सा कोई भोजपुरी गाना है, जो बहुत हिंसा की बात करता है वो एक सी ही धुन में हैं। क्योंकि वो कला नहीं है।

मुझे कोई भी कट्टरपंथी संगठन, इक्स्ट्रीमिस्ट रेडिकल ये बता दे कि पिछले 50-60 साल में कितने बड़े लेखक और कितने बड़े संगीतकार दिए हैं इन्होंने इस देश को या समाज को। वो दे ही नहीं सकते। क्योंकि वहां पर कला के लिए एक बेसिक इंटिलेक्ट है ही नहीं। हर कला के पीछे एक बेसिंक इंटिलेक्ट होता है।

जो एक अनपढ़ कलाकार भी है वो भले ही कभी स्कूल न गया हो पर उसके पास एक बेसिक इंटिलेक्ट होगा। जो बिस्मिल्लाह ख़ान के पास था। जो बेग़म अख़्तर के पास था या कबीर के पास था जो किसी के पास भी हो सकता है। अगर आपके पास बेसिक इंटिलेक्ट होता ही तो आप राइट विंगर बनते ही क्यों साहब। इसलिए आप समाज को कभी कुछ दे ही नहीं सकते कला के क्षेत्र में। ये एक बुनियादी समस्या है।

कला हमेशा प्रतिरोध के तौर पर मौजूद रहेगी और हिंसा के खिलाफ़ जब हम बात करेंगे तो रास्ता क्या है आपके पास। हिंसा का प्रतिरोध प्रतिहिंसा नहीं हो सकती, क्योंकि वो प्रोसेस फिर कभी खत्म ही नहीं होगा। हिंसा के खिलाफ़ अहिंसा हमारा जवाब है। कला और साहित्य ही हमारा जवाब होगा हमेशा। और यही हो भी सकता है। और दुनिया भर में ऐसे ही होता है। जब हमने सिविलाइज्ड होना सीखा खेती की और बस्तियां बसाईं, कला की उत्पत्ति होती है वहां से। गुफाओं में रहने वाला आदि मानव चित्र उकेर रहा था वहां पर। और वहां से आज तक को जो सफर है। ऐसी कोई भी चीज जो हमको अकेले में हिम्मत देती है।

आदि मानव गुफाओं में इसीलिए चित्र बना रहा था क्योंकि वो खाली था। अकेले व्यक्ति को जीवित रहने की हिम्मत जो चीज दे सकती है वो कला और संगीत हो सकता है। वो सामूहिक तौर पर लड़ाई की टूल नहीं होगी क्या। वो जीवनी शक्ति है। तो हर लड़ाई में सबसे मजबूत टूल कला को ही होना है। एक गाना लाखों लोगों को वो हिम्मत दे सकता है जो कोई भाषण नहीं दे सकता। यही कला की ताकत है। वर्ना अंग्रेजों को लेखकों और अख़बारों को बैन करने की ज़रूरत न होती। वही ये भी कर रहे हैं। 

हो सकता है कल को हम रोबोटों की सेक्सुअल आज़ादी की लड़ाई के लिए लड़ रहे हों 
कल की भूमिका रहेगी और सिर्फ़ आज ही नहीं हमेशा रहेगी। सीएए और एनआरसी आंदोलन खत्म होने के बाद भी आंदोलन होंगे। समाज को प्रगतिशील बनाए रखने के लिए हमेशा हमको नए आंदोलन चाहिए। हो सकता है आज से 30 साल बाद हम रोबोटों की सेक्सुअल आजादी की लड़ाई लड़ रहे हों। तो आंदोलन तो कभी खत्म नहीं होंगे जब तक इस धरती पर ज़िंदग़ी है, दुनिया है। 

(सुशील मानव लेखक और पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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