शीर्ष पदों पर बढ़ता असंतुलन यानी संघवाद को निगलता सर्वसत्तावाद

देश में बढ़ता सर्वसत्तावाद किस तरह संघवाद को क्रमशः क्षतिग्रस्त कर रहा है, इसके उदाहरण विगत आठ वर्षों में शीर्षस्थ पदों पर लोकतांत्रिक और संघीय प्रतिनिधित्व के निर्णयों में दिखते आ रहे हैं। स्पष्ट है कि इसकी अनदेखी संवैधानिक संसदीय संरचना के खतरनाक पतन की ओर ले जा रही है।

उपराष्ट्रपति चुनाव के पूर्व प्रतिपक्ष की प्रत्याशी मार्गरेट अल्वा ने इस असंतुलित प्रक्रिया की ओर ध्यान दिलाया था। अंग्रेजी दैनिक हिन्दू  में 31 जुलाई को प्रकाशित अपनी बातचीत में उन्होंने कहा था कि यह परंपरा रही है कि शीर्ष पदों पर क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व की व्यवस्था बनाये रखी जाये। यदि प्रधानमंत्री उत्तर का हो तो राष्ट्रपति दक्षिण से बनाया जाये। लोकसभा अध्यक्ष यदि पूर्व भारत से हो तो उपराष्ट्रपति-सह-राज्यसभा का सभापति पश्चिम भारत से बने ताकि सर्वोच्च पदों के चयन में एक अखिल भारतीय छवि बने। 

अल्वा के तर्क में दम था लेकिन भारत के राजनीतिक वर्ग ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। यह ध्यान न देना निस्संदेह स्थिति को और गम्भीर बनाता है।

उल्लेखनीय है कि 2014 में नरेन्द्र मोदी उत्तर प्रदेश के वाराणसी लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनकर प्रधानमंत्री बने तो राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी पूर्व भारत यानी बंगाल से थे और उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी उत्तर भारत से थे। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन भी मध्य प्रदेश यानी उत्तर भारत से ही थीं। जाहिर है कि तीन सर्वोच्च पद प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष उत्तर भारत से रहे थे। कहा जा सकता है कि प्रधानमंत्री मूलतः गुजरात यानी पश्चिम भारत के हैं, लेकिन ऐसा कहना टेक्निकली या पोलिटिकली ही करेक्ट होगा। 

बहरहाल, तब लोकसभा उपाध्यक्ष के पद पर तमिलनाडु के थंबी दुरई आसीन थे। स्पष्ट है कि दक्षिण भारत को उस समय दो पदों पर प्रतिनिधित्व दिया गया था। दूसरा पद राज्य सभा के उपसभापति के तौर पर केरल के पीजे कुरियन के नाम था। लेकिन 2017 में यह असंतुलन और बढ़ गया, जब रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति बने। वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ही तरह उत्तर प्रदेश से थे। 

यानी तब पहली बार एक ही राज्य से राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों आए। एम. वैंकेया नायडू (आन्ध्र प्रदेश) उपराष्ट्रपति-सह-राज्यसभा के सभापति बने, लेकिन उपसभापति का पद भी उत्तर भारतीय हरिवंश नारायण सिंह (बिहार) को दिया गया। 

तब तक लोकसभा उपाध्यक्ष के पद पर थंबी दुरई बने रहे, लेकिन 2019 के बाद से यह पद खाली है। कोई इस पद पर निर्वाचित ही नहीं हुआ है। यह भी एक संवैधानिक अनुत्तरदायित्व है। इस तरह शीर्ष पदों पर संघीय संतुलन और क्षीण हुआ है। अब यह खाईं और ज्यादा गहरी व चौड़ी हो गई है, जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ओडिशा (पूर्व भारत) से, प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला दोनों राजस्थान से हैं। यानी राज्यसभा के उपसभापति सहित चार शीर्षस्थ पद उत्तर भारत से हैं। दक्षिण की आम धारणा ओडिशा को भी उत्तर भारत ही मानती है। 

इस संदर्भ में अल्वा का यह तथ्य विचारणीय है कि सर्वोच्च पदों की संरचना में दक्षिण का प्रतिनिधित्व कहां है? यह अलगाव संघवाद और लोकतंत्र के लिए कतई सही नहीं है, लेकिन सर्वसत्तावादी मानसिकता इसकी उपेक्षा कर रही है।

सर्वोच्च पदों पर संघीय और लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के उदाहरण के तौर पर 1952 की संरचना पर नजर डालें तो साफ दिखता है कि उस अवधि में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उत्तर प्रदेश से थे और दक्षिण (मद्रास) के राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के तहत नेहरू की अनिच्छा के बावजूद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (बिहार) को राष्ट्रपति चुना गया। इसे संतुलित करने के लिए उपराष्ट्रपति एस. राधाकृष्णन (आन्ध्र प्रदेश), लोकसभा अध्यक्ष पुरुषोत्तम मावलंकर (गुजरात), उपाध्यक्ष अनंत शयनम आयंगार (तत्कालीन मद्रास) और राज्यसभा का उपसभापति एस.वी. कृष्णमूर्ति राव (तत्कालीन मैसूर) को बनाया गया। इस तरह दक्षिण को उचित प्रतिनिधित्व देकर अखिल भारतीय छवि विकसित की गयी। यह प्रक्रिया 2012 तक अधिकांशतः जारी रही।

1969 में, जब कांग्रेस के अंदरूनी सत्ता संघर्ष में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने राष्ट्रपति पद के लिए नीलम संजीव रेड्डी (आन्ध्र प्रदेश) का नाम प्रस्तावित कर विरोध स्वरूप वी.वी. गिरि (ओडिशा) का समर्थन किया, तब भी संघीय संतुलन रखा गया। हालांकि 1977 में नीलम संजीव रेड्डी निर्विरोध राष्ट्रपति बने और कांग्रेस ने भी उनका समर्थन किया। कुछेक बार लोकसभा उपाध्यक्ष और राज्य सभा के उपसभापति का पद प्रतिपक्ष को भी दिया गया, लेकिन बाद में यह उदार प्रक्रिया खत्म हो गयी। इसके अलावा शीर्ष पदों के चयन में क्षेत्रीय सामाजिक और लैंगिक प्रतिनिधित्व का भी खयाल रखा गया। 

इस बार द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी में आदिवासी कार्ड का प्रचार किया गया, लेकिन इसके पहले भी जी.जी. स्वेल, पी. ए. संगमा, एन. ई. होरो, गौड़े मुराहरि व करिया मुण्डा आदि चुनाव लड़ चुके हैं। फिलहाल, अब प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष और राज्य सभा उपसभापति का पद उत्तर भारत के पास है और सिर्फ राष्ट्रपति का पद पूर्व भारत के पास है। इसमें दक्षिण कहीं नहीं है और यहां मार्गरेट अल्वा का मुद्दा जायज है।

एक अन्य दक्षिणी चिंता भी काबिलेगौर है कि आगामी संसदीय क्षेत्र परिसीमन में उत्तर भारत के संसदीय क्षेत्रों का अनुपात बढ़ेगा, क्योंकि इस बीच यहां आबादी बढ़ी है, जबकि दक्षिण के राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण को बखूबी लागू किया है। जाहिर है कि इसका खामियाजा उन्हें परिसीमन में भुगतना पड़ेगा, जबकि कायदे से उन्हें इसका पुरस्कार मिलना चाहिए। संसदीय प्रतिनिधित्व में यदि उत्तर भारत का दबदबा बढ़ेगा तो बजट में भी उसका हिस्सा बढ़ जायेगा और दक्षिण का हिस्सा घटेगा। यह भी अन्याय होगा। 

इसके अलावा उत्तर का राजनीतिक प्रभाव भी बढ़ेगा, जो पहले से ही बढ़ा हुआ है। उत्तर भारत में संसदीय क्षेत्र बढ़ने का लाभ भारतीय जनता पार्टी को ही होगा, क्योंकि जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, राष्ट्रवादी हिन्दुत्व और सनातनी विमर्श को वह निरंतर आगे बढ़ा रही है, उसका आधार क्षेत्र अभी उत्तर भारत और खासकर हिन्दी भाषी राज्य ही हैं। इसलिए सर्वसत्तावादी वर्चस्व का गढ़ भी यहीं रहेगा। 

इससे संघवाद और लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व की स्थिति कमजोर होती जाएगी, जिससे हिन्दीतर राज्यों में अलगाव की भावना मजबूत होगी। उसे संवैधानिक संतुलन से ही दूर किया सा सकेगा। इन सभी मौलिक चिंताओं पर राजनीतिक नेतृत्व को तत्काल ध्यान देना चाहिए ताकि संघात्मक भारत बना रहे। सर्वसत्तावाद को ‘एक भारत’ का पर्याय नहीं माना जा सकता। 

(लेखक प्रकाश चंद्रायन वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार हैं और आजकल नागपुर में रहते हैं।)

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