पहली बार आंचल का परचम बना तानाशाह के मुकाबिल हैं महिलाएं

देश तो बहुत दूर की बात है जनाब, ‘महिलाओं का कोई घर नहीं होता’ ऐसी जाने कितनी कहावतें भारतीय समाज का सच रही हैं। सनद रहे कि यहां जब मैं भारतीय समाज कह रहा हूं तो इसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी धर्मों की महिलाएं शामिल हैं। सीता के मिथक से लेकर निर्वासित तस्लीमा नसरीन तक अनगिनत उदाहरण हमारे सामने हैं, लेकिन आज महिलाएं अपने मुल्क और अपनी राष्ट्रीयता को रिक्लेम करती हुई संविधान को बचाने के लिए आंदोलनरत हैं। बकौल मजाज़, ये अपने आंचल को परचम बना चुकी महिलाएं हैं। 

पिछले एक हजार साल का भारतीय इतिहास उलट लीजिए ऐसा महिला आंदोलन आपको नहीं मिलेगा। महिलाओं के नेतृत्व में महिलाओं द्वारा सीएए, एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ़ चल रहा देशव्यापी आंदोलन अद्वितीय और अभूतपूर्व है। इतने बड़े पैमाने पर एक साथ एक मोर्चे पर आकर महिलाओं ने इससे पहले कभी कोई सामाजिक राजनीतिक आंदोलन नहीं किया था।

इस आंदोलन का तत्कालिक राजनीतिक परिणाम चाहे कुछ भी हो, लेकिन आने वाले समय में इस महिला आंदोलन का भारतीय समाज और भारतीय राजनीति के दशा-दिशा और चरित्र को बहुत गहरे और व्यापक रूप से प्रभावित करने वाला है। समाजिक हित वाला इतना व्यापक महिला आंदोलन कभी नहीं हुआ। यूं तो कोई भी आंदोलन महिलाओं की भागीदारी के बिना चल ही नहीं सकता, लेकिन सही मायने में फातिमा शेख और सावित्री बाई फुले द्वारा महिला शिक्षा के लिए छेड़े गए आंदोलन को छोड़कर महिलाओं द्वारा किए गए किसी भी संघर्ष में समाजिक सरोकार इतने व्यापक और प्रभावशाली नहीं थे। 

रज़िया सुल्तान से लेकर बेग़म हज़रत महल तक और शाहबानो से लेकर सायरा बानो तक सबकी लड़ाईयां निजी सत्ता और निजी हित के लिए थीं। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और 1947 की आजादी की लड़ाईयों में महिलाएं निजी सत्ता और निजी स्वार्थ के दायरे से बाहर निकलकर संघर्ष और आंदोलन कर रही थीं, लेकिन वहां भी वो नेतृत्वकारी भूमिका में न होकर सहायक की भूमिका में थीं।

जहां 1857 में हाजिरा बेग़म रोटियां बना कर घर-घर भेजकर आंदोलनकारियों को इकट्ठा कर रही थीं। बता दें कि रोटी और कमल उस वक्त आंदोलन का प्रतीक था। अजीजनबाई और झलकारीबाई ने तो बतौर योद्धा अंग्रेजों के नाक में दम कर दिए थे। कबीर कौसर के मुताबिक तकरीबन 258 मुस्लिम महिलाओं को सिर्फ़ 1857 में मुजरिम करार देकर या तो जेल या फांसी की सजा हुई थी। 1857 में सबसे ज्यादा मुस्लिम औरतों की हिस्सेदारी पश्चिमी उत्तर प्रदेश से रही, जहां लगभग 40 प्रतिशत मुस्लिम आबादी रहती थी। एक वजह दिल्ली से इलाके की नजदीकी थी।

बता दें कि उस वक़्त इलाके में बहुत सारी मुगल शहजादियों ने भी आश्रय लिया था। मेरठ की हबीबा (गुर्जर मुस्लिम) को 1857 में फांसी पर चढ़ा दिया गया था। 1857 की क्रांति में भाग लेने के चलते जमीला नाम की बहादुर पठान को फांसी पर चढ़ा दिया गया था। रहीमी, लाला रुख, इबरतुन निसा, नवाब खास महल, जहां अफरोज बानो जैसी औरतों का नाम भी 1857 की क्रंति में भूमिका निभाने के लिए याद किया जाता है, जिसका नेतृत्व बहादुर शाह, पेशवा नाना साहब, लियाकत अली जैसे नेताओं ने किया था। हजरत महल, जीनत महल और रानी लक्ष्मी बाई ने अपने-अपने इलाकों का नेतृत्व किया था, लेकिन वो सब अपनी सत्ता और राज्य को बचाने के लिए था।

वहीं 1947 की आज़ादी की लड़ाई में स्थिति थोड़ी उलट थी। आज़ादी की लड़ाई में अधिकांशतः एलीट वर्ग की पढ़ी-लिखी, विधवा, परित्यक्ता महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई थीं।

पहली बार हाशिए के समाज की महिलाएं कर रही हैं आंदोलन का नेतृत्व
इस आंदोलन की खास बात ये भी है कि इसका नेतृत्व हाशिए के समाज की महिलाएं कर रही हैं। सवर्ण, अभिजात्य वर्ग की महिलाएं इस आंदोलन में पीछे पीछे चल रही हैं। वो महिलाएं जिनका अधिकांश वक़्त खाना पकाने में गुज़र जाता है।

बच्चों और शौहर की ज़रूरतों की पूर्ति के बाद घर की अर्थव्यवस्था में अपने हिस्से का योदगान करने के लिए बचे-खुचे समय में बीड़ी बनाना, सिलाई, कढ़ाई या दूसरा छोटा मोटा काम करके कुछ पैसे कमाने में जिनकी ज़िंदगी ख़र्च हो जाती थी, वो महिलाएं आज घर-गृहस्थी की फिक्र छोड़कर डेढ़-दो महीनों से लगातार धरने पर बैठी हैं। पुरुष इस आंदोलन में पीछे रहकर सहायक की भूमिका निभा रहे हैं। इस आंदोलन के नारे गढ़ने से लेकर इसकी दशा-दिशा-चरित्र तय करने तक सारा बंदोबस्त महिलाओं ने अपने हाथों में ले रखा है।

महिला मुद्दों पर भी महिलाएं नहीं निकली थीं घरों से बाहर
इतिहास गवाह है, सती प्रथा का अंत, बाल-विवाह का अंत, विधवा विवाह, पैतृक संपत्ति में पुत्री का हक़, महिलाओं के लिए शिक्षा का अधिकार, महिलाओं के लिए आरक्षण, घर और घर से बाहर सुरक्षा का अधिकार, तीन तलाक़ और सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश जैसे कई महिला मुद्दों पर भी महिलाएं इतनी बड़ी संख्या में घरों से बाहर नहीं निकली थीं, लेकिन आज जब देश के संविधान पर संकट आया, उस संविधान पर जो लिंग, जाति, धर्म, वर्ग आदि के आधार पर बिना किसी भेदभाव के, सबको समानता, बराबरी और स्वतंत्रता का अधिकार देता है, उस संविधान को बचाने के लिए महिलाएं अपनी हजार तकलीफों के बावजूद विरोध आंदोलन को जारी रखे हुए हैं। 

इस आंदोलन में सियासी समझ विकसित कर चुकी हैं महिलाएं
दिल्ली के शाहीन बाग़ से लेकर कोलकाता के पार्क सर्कस तक धरने पर बैठी किसी भी महिला से बात कर लीजिए आप। वो ग़ज़ब के आत्मविश्वास से लबरेज है। उनके नारे से लेकर उनकी बातचीत तक में आपको एक स्पष्ट सियासी समझ दिखाई सुनाई देगी। ये समझ इन महिलाओं ने पिछले कुछ महीनों में अर्जित की है।

ये सियासी समझ किसी की सिखाई या ओढ़ाई हुई नहीं है। ये समझ अपने संघर्ष से अर्जित की हुई है। आप उनके मुंह से संविधान से लेकर देश के हजारों साल पुराने इतिहास तक पर लाजवाब कर देने वाली बातें सुनकर दंग हुए बिना नहीं रह सकते। वो बातें जो आज तक इस देश के नागरिकों को स्कूल-कॉलेज नहीं सिखा समझा सका। वो इन अनपढ़ या कम पढ़ी लिखी महिलाओं की संगत में कुछ दिन गुजारकर आप सीख समझ सकते हैं।

आप इनके पास नफ़रत लेकर जाइए और यकीन मानिए लौटते वक़्त आप मोहब्बत से महकते हुए लौटेंगे। आपकी जुबान पर भाईचारा, देश की एकता, अखंडता, गंगा-जमुनी तहजीब और अपने मुल्क के संविधान से मोहब्बत करने की तमीज विकसित हो चुकी होगी। और इस पर भी ग़ज़ब ये कि आपको मालूम भी नहीं चलेगा कि ये सब आपमें कब किस महिला ने विकसित कर दिया। 

किसी भी स्थिति-परिस्थिति को अपनी कमजोरी नहीं बनने दे रही महिलाएं
बदला लेने के लिए मुस्लिम महिलाओं को कब्र से निकालकर बलात्कार करने जैसे बयानवीर लखनऊ के घंटाघर में धरने पर बैठी महिलाओं को प्रताड़ित करने के लिए सुलभ शौचालय में तालाबंदी करवा देता है। पुलिस को आदेश देकर महिलाओं के खाने की चीजें और कंबल छीन लेता है। इलाके की लाइट कटवा देता है। आजमगढ़ की धरनारत महिलाओं पर लाठीचार्ज करवाकर, पार्क में पानी भरवा देता है। वो फरमान निकाल देता है कि 18 वर्ष से कम के बच्चों को लेकर महिलाएं धरना स्थल पर गईं तो उनके खिलाफ़ कार्रवाई होगी।  

बावजूद इसके महिलाएं अपने छोटे-छोटे बच्चों को गोद में लेकर डटी हुई हैं। शाहीन बाग़ धरने पर अपने चार माह के बेटे मोहम्मद जहान को कुर्बान करने वाली मां नाजिया कहती हैं, “वह लगातार प्रदर्शन में हिस्सा ले रही हैं, क्योंकि यह उनके बच्चों के भविष्य के लिए है।” कई गर्भवती महिलाएं, कई 80 और 90 पार की बुजुर्ग महिलाएं जो चलने-फिरने से भी लाचार हैं, इस आंदोलन का हिस्सा बनकर खुद को धन्य समझ रही हैं। तमाम तकलीफों और विपरीत शारीरिक मानसिक स्थितियों के बावजूद लगातार आंदोलनरत महिलाओं के जज्बे को वही समझ सकता है, जो इस मुल्क और मुल्क के संविधान से मोहब्बत करता होगा। जिसे इनके महत्व का अंदाजा होगा।  

कठमुल्लाओं को नकार दिया महिलाओं ने
वो 1986 का साल था जब एक ख़्वातून शाहबानो ने अपने हक़ के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और फैसला उसके हक़ में भी मिला, लेकिन कठमुल्लों ने उस फैसले के खिलाफ़ मोर्चा खोल दिया और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने कोर्ट के फैसले को संसद में पलट दिया था। साल 1986 में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की राजनीतिक हैसियत क्या थी, राजीव गांधी सरकार द्वारा कोर्ट का फैसला उलट देने से जाहिर है, लेकिन आज 2019-20 में स्थितियां बिल्कुल उलट हैं।

निजी ज़िंदग़ी से लेकर सियासी मसअले तक कठमुल्लों पर आश्रित मुस्लिम समाज आज़ादी के बाद आज पहली बार मुस्लिम महिलाएं कठमुल्लों और उनकी हर हदबंदियों को नकारकर घर की दहलीज से बाहर निकली हैं। क़ौम की लाज बताकर महिलाओं की पर्देदारी करने वाले कौम के ठेकेदारों की नसीहतों को कुचलते हुए वो मुल्क और संविधान बचाने का प्रण लेकर अपने आंचल को परचम बनाकर लड़ रही हैं। मुल्क के प्रधानमंत्री उनके परचम को उनकी पोशाक समझने की गलती कर बठे हैं।

महिलाओं का धरना पुलिस और सरकार के लिए बना मुसीबत
महिलाओं का इस तरह दो महीने से लगातार रातों-दिन धरने पर बैठना ‘महिलाओं’ को कमतर समझने वाले सत्ता-पुरुषों को पच ही नहीं रहा। वो इस बात को अभी तक नहीं स्वीकार कर पाए हैं कि इस मुल्क की महिलाएं उनके मुकाबिल हैं। इससे उनकी ‘माचो मैन’ वाली इमेज को खासा नुकसान पहुंचा है। इसीलिए वो बौखलाहट में लगातार ऊल जलूल बयान दे रहे हैं। कभी वो उन्हें 500 रुपये लेकर धरने पर बैठी बिकने वाली महिलाएं बताते हैं तो कभी पाकिस्तानी और बंग्लादेशी।

दरअसल वर्तमान सत्ताधारी और पुलिस प्रशासन महिला की स्वतंत्र चेतना, स्वतंत्र अस्तित्व, स्वतंत्र विचार और स्वतंत्र निर्णय क्षमता को स्वीकार ही नहीं कर पा रहे हैं। मनुवाद से पीड़ित होने के चलते उन्होंने आज भी यही मान रखा है कि महिला पति और पिता के पराधीन है। 

यूपी पुलिस को मुसलमानों से बदला लेने का आदेश देने वाले वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट ने मर्द होने के दंभ में धरनारत महिलाओं पर सामंतवादी महिलाद्वेषी बयान में कहा, “पुरुष घरों में रजाई ओढ़कर सो रहे हैं और महिलाएं धरने पर बैठी हैं। महिलाएं कहती हैं कि पुरुष बोलते हैं कि अब हम अक्षम हो चुके हैं, आप धरने पर जाकर बैठो।” दरअसल यूपी से लेकर केंद्रीय सत्ता में इस समय घोर मर्दवादी कुंठित लोग काबिज़ हैं। उत्तर प्रदेश के पुरुष आंदोलनकारियों पर मौत का फरमान बनकर टूटी यूपी पुलिस के अधिकारी महिलाओं के शांतिपूर्ण धरने की पीछे उनके पतियों का हाथ मानकर पतियों से महिलाओं को धरने से उठाने के लिए धमका रहे हैं।

पुलिसवालों ने गंज शहीदां दरगाह, गोमती नगर, लखनऊ की एक अधेड़ मुस्लिम महिला से कहा कि आप दरगाह पर धारा 144 का उल्लंघन कर रही हैं। जवाब में महिला ने कहा कि आपने मेरे खिलाफ़ मामला तो दर्ज़ कर ही लिया है अब दूसरी महिलाओं के साथ तब तक धरने पर रहूंगी जब तक आप मुझे गिरफ्तार कर जेल न भेज दें। इसके बाद पुलिस वाले गोमती नगर में उस महिला के घर गए और उसके पति से कहा कि अपनी पत्नी को नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ धरना देने से रोकिए।

इस पर पति ने कहा कि उसने मना किया है पर उसकी पत्नी उसका कहा नहीं मानती है। इस पर पुलिस अधिकारियों ने कहा कि वह आपकी पत्नी है और आपकी बात मानेगी। पति का कहना था कि वह उसके नियंत्रण में नहीं है। पुलिस ने कहा कि उसे डांटिए, पति की तरह व्यवहार कीजिए। इस पर पति ने पूछा कि क्या मैं उसे तलाक, तलाक तलाक की धमकी दूं? इस पर पुलिस ने कहा कि आप जो चाहे कीजिए पर उसे विरोध करने से रोकिए।

सीएए, एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ़ वर्तमान महिला आंदोलन का अब तक का हासिल ये है कि वर्तमान क्रूर सत्ता के प्रति अवाम में जो भय था उस भय को इस महिला आंदोलन ने खत्म कर दिया है। एक इंच भी पीछे न हटने का दंभ भरने वाली सरकार बैकफुट पर है। पूरे देश में एनआरसी करवाने का संसद में खुला बयान देने वाले गृह मंत्री अमित शाह अब कह रहे हैं कि एनआरसी पर कोई फैसला नहीं हुआ है। एनपीआर पर भी वो सरकार का रुख स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एनपीआर के समय कोई कागज नहीं जमा किया जाएगा। ये इस मुल्क की महिलाओं की जीत है।

(सुशील मानव लेखक और पत्रकार हैं। वह दिल्ली में रहते हैं।)

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